...तो तीसरा विश्व युद्ध टालना मुश्किल होगा

नवम्बर 2012 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व संभालने के बाद राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जो पहला प्रतीकात्मक कार्य किया था, वह था म्यूजियम ऑफ  रेवोलुशन की यात्रा करना। वहां चीन के अपमान और बाद में पार्टी की विजय की तस्वीरों के सामने खड़े होकर जिनपिंग ने अपने भाषण में कहा था, ‘चीनी राष्ट्र का शानदार 5000-वर्ष का इतिहास, सीसीपी का 95-वर्ष का ऐतिहासिक संघर्ष और सुधारों के 38-वर्ष का चमत्कारिक विकास पहले ही अकाट्य साक्ष्यों से संसार के सामने साबित कर चुका है कि हम (विश्व) नेता बनने के योग्य हैं।’ तो यह है चाइना ड्रीम, जिसे शी जिनपिंग ने बिना किसी लाग-लपेट के दो टूक शब्दों में व्यक्त किया। जिनपिंग ने वायदा किया कि वह चीन के प्राचीन गौरव को पुनरूस्थापित करेंगे और उसे ‘ज्ञान व शक्ति से अजय राष्ट्र’ बना देंगे। इस चाइना ड्रीम को साकार करने लिए जिनपिंग को उनके आजीवन काल के लिए चीन का नेतृत्व सौंप दिया गया है। बहरहाल, उस समय जिनपिंग का दूसरा प्रतीकात्मक कार्य यह था कि वह उस युद्धपोत की यात्रा पर गये जो दक्षिण चाइना सी में सैन्य निर्माण के जरिये अपना नियंत्रण स्थापित करने में शामिल था। इसके बाद के वर्षों में हुआ यह कि अब साउथ चाइना सी में जहां तक निगाह जाती है, चीनी मिसाइल साइट्स व एयरफील्ड्स ही नजर आते हैं। संक्षेप में बात सिर्फ इतनी सी है कि अब तक के अपने कार्यकाल में जिनपिंग ने ग्लोबल टेक्नोलॉजी पर कब्जा करने के ‘चाइना 2025’ प्रोग्राम से लेकर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की जो योजनाएं बनायी हैं,उनका एकमात्र उद्देश्य चाइना ड्रीम को साकार करने के लिए सुनियोजित बुनियाद रखने का रहा है । एडोल्फ  हिटलर ने भी जर्मनी की आर्य नस्ल के लिए ऐसा ही सपना देखा था, लगभग ऐसे ही प्रयास किये थे और उसे भी अपनी ताकत के बल पर अजेय होने का गुमान हो गया था। नतीजा विश्व युद्ध के रूप में सामने आया। जिनपिंग के चाइना ड्रीम से भी तीसरे विश्व युद्ध की घंटियां बजती सुनायी दे रही हैं।चाइना ड्रीम को साकार करने के लिए चीन ने ‘कैरट एंड स्टिक’ नीति अपनायी हुई है। नेपाल, पाकिस्तान, म्यांमार  व श्रीलंका को इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के नाम पर वह अपने पाले में किये हुए है भूटान डर कर उसके ‘साथ’ है, जिसका नतीजा यह है कि आज भारत के पड़ोसियों में सिर्फ  बांग्लादेश व मालद्वीप ही चीन के ‘कब्जे’ में नहीं हैं। भारत को अपना पिछलग्गू बनाने के लिए उसने व्यापार व आरआईसी (रूस-इंडिया-चीन) समूह का सपना यह कह कर बेचा कि ग्लोबल शासन के नियमों का गठन अकेले अमरीका के नेतृत्व वाले पश्चिम को न करने दिया जाये बल्कि ऐसा वैकल्पिक ग्लोबल शासन विकसित किया जाये जिसका नेतृत्व एशिया के पास हो। जिनपिंग ने अपने इस सपने को भारत को बेचने के लिए साबरमती नदी के किनारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ झूला झूला, चीनी झील के किनारे चहलकदमी की और द्विपक्षीय समझौतों के ज़रिये ‘वुहान स्पिरिट’ को बनाये रखने के वायदे किये। इसका नतीजा यह हुआ कि नई दिल्ली में भी ‘विश्व गुरु’ बनने और 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था हासिल करने के सपने देखे जाने लगे।लेकिन देर से ही सही, नई दिल्ली को एहसास हो गया कि ‘साझा भाग्य का समुदाय’ वास्तव में सिर्फ  ‘चीन का भाग्य’ या चाइना ड्रीम साकार करने का प्रयास है,जिसके असंतुलित व्यापार में भारत की भूमिका पिछलग्गू से अधिक की न होगी।  ड्रैगन ‘पड़ोसियों’ को ‘सबक सिखाने’ के लिए निकला है। गौरतलब है कि 1979 में चीन ने इन्हीं कारणों के चलते वियतनाम में ‘सबक सिखाने’ के लिए प्रवेश किया था, मगर उसे मुंह की खानी पड़ी थी। ड्रैगन के मंसूबे भारत में भी कामयाब नहीं होंगे लेकिन लगता यह है कि इस बार अगर तोपों ने आग उगली तो झगड़ा केवल गलवान घाटी तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि विश्व युद्ध में तबदील हो जायेगा क्योंकि ड्रैगन पर गुस्सा सिर्फ  भारत को ही नहीं है बल्कि संसार के अधिकतर देशों को है। हां, कारण अलग- अलग हो सकते हैं, जैसे ऑस्ट्रेलिया को चीन से कोविड-19 महामारी फैलाने के लिए नाराज़गी है और दस देशों के समूह एसोसिएशन ऑफ  साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स इस बात को लेकर नाराज़ हैं कि चीन साऊथ चाइना सी में समुद्री नियमों का उल्लंघन करते हुए अपना अवैध कब्जा बढ़ा रहा है। एहसास बीजिंग को भी है कि विभिन्न देश उसके विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं, इसलिए उसने अपने सैन्य रिजर्व बलों को एक केन्द्रीय कमांड के तहत करते हुए विश्वस्तरीय सेना विकसित करने का काम शुरू कर दिया है। संक्षेप में बात सिर्फ  इतनी सी है कि अगर जिनपिंग ने चाइना ड्रीम को साकार करने के अपने नापाक प्रयास नहीं छोड़े तो तीसरे विश्व युद्ध को टालना कठिन हो जायेगा।         

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