राजनीतिक आकाओं की पुलिस कब बनेगी ‘जनता’ की पुलिस

लगभग सौ वर्ष पहले अंग्रेज़ कालमनवीस रुडयार्ड किप्लिंग ने अपनी कहानी The tomb of His Ancester  में लिखा था कि इन एशियाई समाजों की परेशानी है कि वे नंगी तलवार देखे बिना किसी कानून का पालन नहीं करते। तमिलनाडु में अत्याचारों की अति करने वाले पुलिस अधिकारियों ने एक शताब्दी पहले लिखी यह कहानी पढ़ी है या नहीं, यह तो पता नहीं लेकिन 19-20 जून को जैसे उन्होंने इन लिखित शब्दों की आत्मा को उस समय अपने अंदर धारण कर लिया हो, जब उन्होंने तमिलनाडु के जयराज और बेनिकस नाम के पिता-पुत्र को पुलिस स्टेशन के अंदर इतना मारा कि जख्मों का दर्द न सहन करते हुए दोनों की मृत्यु हो गई। साथानाकूल्लम पुलिस स्टेशन में अत्याचार की घटना रौंगटे खड़े करने वाली है। खबरों के मुताबिक 18 जून को पुलिस और जयराज के मध्य कुछ कहा सुनी हुई, जिसके बाद 19 जून को पुलिस ने जयराज को हिरासत में ले लिया। उन पर कर्फ्यू के समय से 15 मिनट बाद दुकान बंद करने का आरोप लगाया गया। जयराज के पीछे उसका बेटा भी थाने पहुंचा। बेटे ने जब पिता पर किए जा रहे अत्याचार पर एतराज करते हुए पुलिस को रोकना चाहा तो पुलिस ने डंडों के साथ दोनों पिता-पुत्र को मारना शुरू  कर दिया। जयराज का परिवार पूरी रात पुलिस स्टेशन के बाहर इंतज़ार करता रहा और उनकी कभी तेज़ और कभी धीमी चीखों को सुनता रहा। अगले दिन दोनों को रक्त रंजित कपड़ों के साथ साथानकूल्लम के सरकारी अस्पताल में लेजाया गया जहां परिवार वालों को उनकी खून के साथ भरी हुई लुंगियां कई बार बदलनी पडीं। तीन घंटे के बाद दोनों को मैजिस्ट्रेट अदालत में लगाया गया चश्मदीदों के मुताबिक मैजिस्ट्रेट ने इमारत की पहली मंजिल से ही हाथ हिला कर ही दोनों को केवीलपट्टी जेल में रिमांड के लिए भेज दिया। इसके बाद परिवार को 22 जून की शाम तक उस समय तक कुछ पता नहीं लगा, जब तक उनको अस्पताल नें भर्ती नहीं कराया गया। लगातार खून बहने और अंदरूनी चोटों को सहन न करने के कारण दोनों की मृत्यु हो गई। 
तमिलनाडु में जयराज और बेनिक्स की मृत्यु पुलिस अत्याचार के कारण होने वाली कोई पहली मृत्यु नहीं है। समय-समय पर अत्याचार की ऐसी घटनाएं छोटी बड़ी सुर्खियां बन कर चर्चा में आती रही हैं। ‘एशियन सैंटर ऑफ ह्यूमन राइट’ की ओर से पेश की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2002 से 2007 के मध्य प्रतिदिन कम से कम चार लोगों की हिरासती मौत होती है। ‘नैशनल कम्पेन अगेंस्ट टार्चर’ की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में हिरासती मौतों की यह गिनती प्रतिदिन के आधार पर 4 से बढ़ कर 5 हो गई है। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा अधिक हो सकता है, क्योंकि एक तो पुलिस के खौफ से कई मामले दर्ज नहीं होते, दूसरा, आंकड़े इकट्ठे करने वाली संस्था भी खुद पुलिस ही होने के कारण कई मामले पुलिस थाने की चारदीवारी से बाहर नहीं आ पाते। इस त्रास्दी को शायर अमीर क्जलबाग के शब्दों में कहें तो -
उसी का शहर, वही मुदई, वही मुनसिफ, 
हमें यकीं था कि हमारा कसूर निकलेगा। 
ऐसे हालात में कि यह मान लिया जाए कि पुलिस वाले दिन-प्रतिदिन असंवेदनशील हो रहे हैं या फिर ताकत का  ‘़गरूर’ इतना भारी हो जाता है कि सामने वाला इन्सान होने की परिभाषा से भी वंचित हो जाता है। यह हादसा हमें फिर से उस भयानक हकीकत का सामना करने के लिए मजबूर करता है, जिससे हम पिछले कई दशकों से आंख-मूंदे बैठे हैं कि पुलिस सुधारों को कागज़ी दस्तावेजों के स्थान पर वास्तविक रूम में लागू करने की आवश्यकता है। इन सरोकारों और सवालों के मध्य सबसे अहम मुद्दा जो निकल कर सामने आता है, वह है कि क्या पुलिस के कामकाज में राजनीतिक आकाओं का हस्तक्षेप ही पुलिस को समाज की पुलिस बनने से रोक रहा है। 
कब बनेगी ‘जनता की पुलिस’?
लाताबंदी के दौरान कई ऐसे वीडियो समाने आए जिसमें पुलिस वालों का मानवीय पक्ष उभर कर नज़र आया। फिर चाहे वह रेलगाड़ी में भूखे बच्चे की मां के लिए दूध की बोतल लेकर भागता पुलिसवाला हो या फिर सड़क के किनारे अजनबी लोगों को अपना खाना देता पुलिसवाला। पुलिसवालों का यह  ‘मानवीय’ रूप कभी-कभी ही उभर कर सामने आता है। मुम्बई पुलिस में पुलिस कमिश्नर रह चुके और महाराष्ट्र पुलिस के डायरैक्टर जरनल रह चुके डाक्टर परविन्द्र सिंह पसरीचा का मानना है कि इस एक हादसे ने पिछले चार महीनों से उभर रही पुलिस की अच्छी छवि की पुन: पीठ लगा दी है। वास्तव में पुलिस की छवि कभी भी ऐसी नहीं रही कि लोग मुश्किल की घड़ी में उनको पहले मददगार के रूप में याद कर सकें। समाज की रक्षा के लिए बनाई गई पुलिस कभी भी समाज की पुलिस नहीं बन सकी बल्कि समझदार लोगों की प्रचलित राय यह ही रही है कि पुलिसवालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी।पुलिस की छवि के लिए काफी हद कर हमारा कानूनी ढांचा ही ज़िम्मेदार है। भारतीय पुलिस प्रबंधन का काम पुलिस कानून 1861 के तहत किया जाता है। यह कानून उस समय अस्तित्व में लाया गया था, जब अंगे्रज़ हमारे शासक थे। अंग्रेज़ों की ओर से इस कानून को अस्तित्व में लाने का पहला उद्देश्य कानूनी तरीके द्वारा अपने आदेशों का पालन करवाना था। दूसरा काम गुप्त जानकारी इकट्ठी करना और पुलिस की असली जिम्मेदारी अर्थात अपराध रोकना प्राथमिकता में तीसरे नम्बर पर आता था। तकरीबन डेढ़ सौ वर्ष पुराने कानून और प्राथमिकताएं आज भी संशोधन के इन्तज़ार में हैं। इस समय सिर्फ कमान अंग्रेज़ों के स्थान पर आज़ाद भारत के शासकों के हाथ आने का ही बदलाव आया है।
ताकत का गरूर
तमिलनाडु में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना पुलिस के जब्र की घटना है। इस गरूर की एक झलक 1980 के एक हादसे में भी मिलती थी, जिसे हादसा या घटना नहीं बल्कि त्रास्दी कहा जाएगा। जब 1980 में भागलपुर की जेल में पुलिस अधिकारियों ने 33 मुजरिमों को अन्धा कर दिया था। इस अमानवीय कृत्य के साथ पूरा देश जैसे सदमे में चला गया था। आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसे कई सुने-अनसुने किस्से मिलेंगे, जिनसे मानवता शर्मसार होती नज़र आएगी। ये घटनाएं उस समय हो रही थीं जब भारत अत्याचार के खिलाफ कई समझौतों पर हस्ताक्षर कर चुका है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट महासभा ने मानवाधिकारों के बारे में व्यापक घोषणा पत्र का एलान करते समय अत्याचार का प्रयोग करने पर पाबंदी लगाने की व्यवस्था को उसमें विशेष  स्थान दिया था। संयुक्त राष्ट्र की ओर से 1966 में सिविल और राजनीतिक अधिकारों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय संधि में घोषणा पत्र की अत्याचार संबंधी व्यवस्था को शामिल करते हुए कहा था कि किसी पर भी अत्याचार, बेरहम और अमानवीय तशद्द नहीं किये जाने चाहिएं। इस संधी पर हस्ताक्षर करने वाले 153 देशों में भारत भी शामिल था।  1984 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाई गई तशद्द के खिलाफ संधी पर दस्तखत करने वाले 136 देशों में भारत हालांकि भारत का शुमार उन कुछ देशों में भी है, जिन्होंने संधी को कभी तसदीक नहीं किया।

(शेष कल)