दृश्य कुछ ज्यादा भयानक है

कोरोना वायरस धर्म-अधर्म, ऊंच नीच, कुछ नहीं जानता। इसके विकाशकारी परिणामों ने हमारी आस्था, हमारे विश्वास, हमारी जीवन शैली की धज्जियां उड़ा दी हैं। काम-काज पूरी तरह प्रभावित हुए हैं। कितने ही युवा होगे जिन्होंने पढ़ाई पूरी करके कैरियर की तरफ कदम बढ़ाना ही था कि बेरोज़गार होकर घरों में बैठ गए हैं। उनके पास इंतज़ार और इंतज़ार के सिवा कुछ नहीं है। कोई आश्वासन दिल को मज़बूत करता नहीं। दुकानदान दुकानें खोलो बैठे हैं, परन्तु ग्राहक नहीं है। घरों में छोटी-छोटी ज़रूरत के लिए झगड़े होने लगे हैं। सोचने का विषय है कि इस कोरोना के खिलाफ लड़ाई में पूरी दुनिया में और आज भारत में अराजक स्थिति क्यों है? वह युद्ध जो लॉकडाउन (कर्फ्यू) से आरंभ हुआ था अब सत्तापक्ष, विपक्ष, केन्द्र सरकार, गैर-भाजपा सरकारों के बीच तूं-तूं, मैं-मैं का खेल क्यों होता चला गया? हम इससे गंभीरता पूर्वक निपटने की जगह भावनाओं और कल्पनाओं में क्यों बहने लगे हैं? सार्वजनिक बहसों से हमें क्या हासिल हो रहा है? क्या वे हमें कहीं ले जाने वाली होती हैं? मेरे अधिकांश मित्रों ने टीवी न्यूज़ चैनलों पर होती बहस देखना बंद कर दिया है। शुरू में ही वायरस को मज़हब के साथ जोड़ कर देखना शुरू कर दिया। तबलीगी जमात को पूरी तरह जिम्मेदार बना दिया। फिर महाराष्ट्र के नादेड़ से लौटे सिख यात्रियों पर प्रश्नचिन्ह लगाए। क्या वायरस या लॉकडाउन का सवाल किसी विचारधारा की सहमति या असहमति से जुड़ा हुआ है? आज सूरते हाल यह है कि भारत के कुछ हिस्सों में किसी समुदाय विशेष के लोग जो गरीब हैं, नये किस्म के अछूत नज़र आने लगे हैं। वे हैं बीमार, मरीज़ और  प्रवासी मज़दूर जिनके पास अब कोई रोज़गार नहीं, गरीब से गरीब, पिछड़े से पिछड़े, भूख से बीमारी से, कर्ज से लड़ते लोग। त्रास्दी देखो, ये शहर से अस्वीकृत हो गए गांव इन्हें लेने को तैयार नहीं। वे बेरोज़गार लोग जिन्हें सरकार सेहत संबंधी जोखिम मान रही है जिनका सरेआम बहिष्कार हो रहा है और जिनके हक में कहीं से कोई आवाज नहीं। उन्हे गांव में भी जगह नहीं, जहां के लिए ये भागे चले आए, कई परेशानियां और धक्के झेल कर। जब उनमें कोई हारी बीमारी से लड़ते हुए मृत्यु को प्राप्त होता है तो शमशान जलाने के लिए दाखिला देने से इन्कार कर रहे हैं।  इन्सान की ऐसी बेअदबी अस्पतालों के शवगृह भरते चले जा रहे हैं। कोई उठाने को हाजिर नहीं, परिवार वाले भी। क्या सचमुच यह बहुत भयानक तस्वीर नहीं? जैसा समाज हम देखते रहे हैं या बनाना चाहते रहे हैं , यह तस्वीर अकल्पनीय भी है परन्तु आज का सच बनकर आपके तमाम आदर्श और दावों की पोल खोल देने के लिए काफी है। यह ऐसा निर्दयता पूर्वक दृश्य है जो हमारी रातों की नींद तबाह कर सकता है। क्या हम आज इन बेसहारा, फूटे भाग्य के सहारे छूटे लोगों को पहचानते नहीं? इनमें कोई आटो चालक स्टेशन  तक छोड़कर हमें समय पर गाड़ी पकड़वा देता था, कोई किसी छोटे रेस्तरां में हमारी मेज पर हमारी पसंद का भोजन लाता था। कुछ करोड़ों की लागत से बने मॉल के बाहर वर्दी पहने सुरक्षा गार्ड की नौकरी कर रहे थे। एक विश्लेषक के अनुसार जुलाई 2020 तक लाखों मध्यवर्गीय इसी कैटगरी में आ जाएंगे, क्योंकि अनके संचित साधन खत्म होते जा रहे  हैं। । सीनियर सिटीजन जिनको रोग भागकर पकड़ते हैं, वे बैंक ब्याज पर जिंदा हैं, जो लगातार कम होता चला गया और उनकी महीने भर की दवाईयों का दाम ऊंचा उठता चला गया। उनके बच्चों की नौकरी चली गई। जो किराये के घर में हैं, उन्हें और दूर तथा उपेक्षित इलाके में कम दर पर घर देखना पड़ेगा, फर्नीचर बेचना पड़ेगा।क्या सरकार, राजनीतिक दल, जन-प्रतिनिधि इस सबके बारे में सोच रहे हैं? क्या उनके पास संवेदनशीलता बची है? क्या वे भयानक दृश्य से बेखबर हैं?