संघवाद के खात्मे की ओर बढ़ रहा है भारत ?

क्या भारत संघवाद के खात्मे की ओर बढ़ रहा है? क्या देश में एक विशेष तरह की तानाशाही के आसार बनते जा रहे हैं? यह प्रश्न उस समय बहुत ज़ोर से मन को कचोटते हैं, जब गत कुछ समय के हालात, आदेशों और स्थितियों को ध्यान में रखते हुए अब कोरोना महामारी के बहाने सी.बी.एस.ई. के विद्यार्थियों पर बोझ कम करने के नाम पर 30 प्रतिशत पाठ्यक्रम (सिलेबस) कम करने का फैसला लिया गया है।  परन्तु जो अध्याय पढ़ाई में से हटाये जा रहे हैं, उनमें कुछ ऐसे हैं जिनका अस्तित्व आने वाली पीढ़ी की सोच संघवाद, संविधान और धर्म-निरपेक्षता संबंधी महत्त्व कम कर सकती है। विश्व में तानाशाह बनने के चाहवान शासक कई रास्ते अपनाते हैं। परन्तु वे सभी तो शायद भारत के संदर्भ में लागू नहीं होते। वैसे तानाशाही का पोषण युद्ध और बाहरी खतरों से होता है। तानाशाह बनने का चाहवान युद्ध के खतरे या युद्ध में पहले एक रक्षक के रूप में उभरता है। युद्ध की स्थिति हमेशा सैनिक कार्रवाई की सफलता के लिए एक केन्द्रीय कमांड और कंट्रोल सिस्टम के निर्माण को समय की ज़रूरत बना देती है। तानाशाह बनने का चाहवान हमेशा सूचना के खुले वेग को रोकता है और देश भक्ति के नाम पर इस प्रवाह को रोकने की प्रक्रिया और भी आसान और स्वीकृत हो जाती है। तानाशाह बनने का चाहवान मीडिया को अपनी प्रचार मशीन में बदल देता है और इस उद्देश्य के लिए वह साम, दाम, दंड, भेद सभी नीतियों का इस्तेमाल करता है। हालांकि सबसे पहला और प्रभावी हथियार दाम (पैसा) ही होता है। फिर यह प्रचार मशीन सम्भावित तानाशाह को ‘नायक’ बना कर प्रस्तुत करती है और बहु-संख्यक लोगों को अपनी सभी मुश्किलों से मुक्ति उस नायक की सफलता में नज़र आने लग पड़ती है। खैर, वर्तमान समय में भारत में तानाशाही का प्रत्यक्ष रूप से खतरा तो दूर की बात लगती है।  वर्तमान समय में तो भारत में सीधा खतरा तो संघवाद के खात्मे का नज़र आ रहा है, जो भविष्य में रूस और उससे भी अधिक तुर्की के शासन प्रमुखों द्वारा अपनाये केन्द्रवादी मॉडल जैसी कोई स्वदेशी (इंडीजीनियस) राजनीतिक व्यवस्था बना लिए जाने का आधार ज़रूर बन सकता है।खैर, बात कर रहे थे सी.बी.एस.ई. की किताबों में से 30 प्रतिशत पाठ्यक्रम कम करने की, इस संबंध में जिस तरह की सूचनाएं मिली हैं, उनमें शेष विषयों की बात न करें तो इतिहास, पॉलिटिकल साईंस और अर्थ-शास्त्र के विषयों में ऐसे चैप्टर (अध्याय) खत्म किए जा रहे हैं, जो भारत की आने वाली पीढ़ी की सोच से संघवाद, राष्ट्रवाद और निष्पक्षतावाद, लोकतांत्रिक अधिकारों आदि संबंधी जानकारी को शून्य करने में सहायक होंगे। प्राप्त जानकारी के अनुसार 11वीं के राजनीतिक विज्ञान पाठ्यक्रम में उपरोक्त विषयों से संबंधित अध्यायों के अलावा स्थानीय सरकार से संबंधित चैप्टरों में से ‘हमें स्थानीय सरकार की ज़रूरत क्यों है? और ‘भारत में स्थानीय विकास’ आदि चैप्टर खत्म किए गए हैं, जबकि 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में से ‘क्षेत्रीय इच्छाएं’, ‘भारत में सामाजिक और नव-सामाजिक लहरें’, ‘भारत और इसके पड़ोसी, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और म्यांमार’ जैसे विषय भी हटा दिए गए हैं। 9वीं कक्षा में लोकतांत्रिक अधिकार, भारतीय संविधान की संरचना और खाद्य सुरक्षा जैसे लोक सत्ता हेतु आवश्यक अध्याय भी हटाये जाने की चर्चा है। 10वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में ‘लोकतंत्र और अनेकता’ और ‘लोकतंत्र को चुनौतियां’ जैसे अध्याय भी हटाये जा रहे हैं। यह भी वर्णनीय है कि अगर भारत जैसे देश की युवा पीढ़ी देश में अनेकता, संघवाद, क्षेत्रीय इच्छाओं, भारत के पड़ोसी देशों से संबंधों और लोकतंत्र की चुनौतियों से अनभिज्ञ रहेगी तो उसकी सोच क्या होगी? इसका अनुमान तो सहज ही लगाया जा सकता है।
वक्त की फिक्र कर नादां,  मुसीबत आने वाली है,
तेरी बर्बादियों के मश्वरे हैं आसमानों में।
अमलों पर होंगे निपटारे 
अकाली दल में फूट का इतिहास बहुत पुराना है। बेशक प्रकाश सिंह बादल के मुकाबले में बने अनेकों अकाली दल असफल साबित हुए हैं परन्तु ऐसा भी नहीं कि कभी पुराने अकाली दल को छोड़ कर नया बनने वाला कोई अकाली दल सफल ही न हुआ हो। मास्टर तारा सिंह के एक छत्र राज्य को तोड़ कर संत फतेह सिंह के नेतृत्व वाला अकाली दल सिखों में स्वीकृत हो गया था। बादल के दो बार मुख्यमंत्री बने रहने के बावजूद सुरजीत सिंह बरनाला 1985 में मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। 1989 में मान अकाली दल, बादल, टोहड़ा और तलवंडी की तिकड़ी को किनारे लगा कर लोकसभा की 13 में से 9 सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रहे थे।हां, वास्तव में स्पष्ट बात यह है कि सिखों ने हमेशा एक ही अकाली दल या लीडर पर समूचे तौर पर विश्वास व्यक्त किया है। आज और बादल दल के समक्ष असफल होने वाले दलों के समय में एक बड़ा अन्तर है कि उस समय प्रकाश सिंह बादल सिखों में सर्वमान्य हो चुके थे। अब वह लगभग सेवानिवृत्त हो चुके हैं। दूसरी तरफ वर्तमान अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल अपनी पंथक नेता की छवि नहीं बना सके। गत समय में घटी घटनाओं और विधानसभा चुनावों में अकाली दल की हार ने अकाली दल की स्थिति कमज़ोर की है। अकाली शासन के समय हुई बेअदबियां और उनके दोषी न पकड़े जाने, सिरसा डेरे के प्रमुख की माफी, शिरोमणि कमेटी और अकाली दल के अध्यक्ष का अधिक कंट्रोल होना और कई अन्य घटनाओं ने भी सिखों को अकाली दल से नाराज़ किया है। बेशक अभी भी अकाली दल बादल का अपना कैडर उनके साथ है। इसके अलावा कांग्रेस की विगत 3 साढ़े 3 वर्षों की कारगुज़ारी से भी लोग निराश हैं, जबकि आम आदमी पार्टी भी इस स्थिति में नहीं है कि वह अकेले सरकार बना सके। इस पूरी स्थिति में पंजाब में एक राजनीतिक बिखराव तो है ही परन्तु सिखों की स्थिति इस समय पूरी तरह नेतृत्व-विहीन वाली है यह स्थिति बेशक नई पार्टी के लिए साज़गार है परन्तु क्या सुखदेव सिंह ढींडसा इन स्थितियों में स्वयं को एक पंथक और पंजाबी नेता के रूप में स्थापित कर सकेंगे ताकि सिख उन पर विश्वास कर सकें? इस समय तो यही कहा जा सकता है कि पंजाबियों विशेष तौर पर सिखों का फैसला तो इस बात पर ही निर्भर करेगा कि वह अपने संकल्प-पत्र में किए गए वायदों को पूरा करने के लिए अमली रूप में ही कदम उठाते हैं। तीसरा विकल्प देने हेतु वह कौन-से गुटों को साथ लेते हैं। पंजाब और सिखों की पुरानी मांगों के प्रति क्या रवैया अपनाते हैं? क्योंकि लोगों ने तो पंजाब और पंथ हेतु किए  कार्यों और इनके प्रति समर्पण और कुर्बानी की भावना को आजमाना है। ‘बस अमलों पर होंगे निपटारे।’

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