गैंगस्टर का पुलिस मुकाबला प्रश्नों के घेरे में

उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध गैंगस्टर (बदमाश) विकास दुबे के समाचार लगभग एक सप्ताह से देश भर में चर्चा का विषय बने रहे हैं। 3 जुलाई की रात को कानपुर के निकट एक गांव में उसे पकड़ने के लिए गई पुलिस पार्टी के एक डी.एस.पी. सहित 8 कर्मियों का मारा जाना तथा बाद में उसकी और उसके दर्जनों ही साथियों की तलाश में पुलिस की ओर से भारी भागदौड़, 9 जुलाई को मध्य प्रदेश के उज्जैन से उसका पकड़ा जाना और 10 जुलाई को उसका पुलिस के हाथों मारा जाना ऐसा वृत्तांत है जो अत्यधिक अजीबो-गरीब भी है तथा हमारे समाज में होने वाले अपराधों के संबंध में एक बड़ा उदाहरण भी है। आज देश भर में प्रत्येक राज्य में गैंगस्टरों एवं बदमाशों के समूह दनदनाते  रहते हैं परन्तु इनका सबसे बड़ा गढ़ उत्तर प्रदेश को ही माना जाता है। विकास दुबे चाहे मर चुका है परन्तु वह प्रदेश के आपराधिक इतिहास की एक बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण कड़ी है। विकास दुबे ने पिछले 30 वर्ष से अपने इलाके में पूरी दहशत मचाई हुई थी। उसके दर्जनों पिस्तौलधारी एवं हथियाबंद साथी थे। ज़िले भर में उसके भय के कारण कोई उसके विरुद्ध नहीं बोलता था। दर्जनों गांवों के स्थानीय चुनाव उसके भय के तले होते थे। पुलिस और अन्य अधिकारी उसका पानी भरते थे। पिछले समय में उसने दर्जनों हत्याएं कीं, डाके डाले, लोगों का अपहरण किया और ज़बरन ज़मीनों पर कब्ज़े किये। इस कारण उस पर 60 से भी अधिक आपराधिक केस बने हुये थे परन्तु इसके बावजूद वह हर स्थान पर दनदनाता रहा। इसका बड़ा कारण उसे राजनीतिक संरक्षण एवं पुलिस की ओर से कई प्रकार से सुरक्षा मिलना था। 1990 में उसके विरुद्ध हत्या का पहला केस दर्ज हुआ। शीघ्र ही वह ज़िला कानपुर के बड़े बदमाशों में गिना जाने लगा परन्तु इसके साथ ही उसे राजनीतिक संरक्षण भी मिलता रहा। क्षेत्र के बसपा एवं भाजपा के बड़े राजनीतिज्ञों के साथ उसके खास संबंध थे। वर्ष 1995 में वह बसपा में शामिल हो गया। उसके बाद वह ज़िला के सभी स्थानीय चुनाव जीतता रहा। वर्ष 2001 में भाजपा नेता संतोष शुक्ला जिन्हें कि राज्य मंत्री का दर्जा हासिल था, की उसने शिवली थाने में ही हत्या कर दी थी। इस घटना में दो पुलिस कर्मी भी मारे गये थे। चाहे उस समय उसे पकड़ लिया गया परन्तु बाद में थाने के सभी चश्मदीद गवाह, जिनमें कई पुलिस कर्मी भी शामिल थे, अदालत में मुकर गये तथा दुबे ‘आज़ाद पंछी’ बन गया। दर्जनों बार उसे अनेक कानूनों के तहत पकड़ा गया। उस पर दोष आयद किये गये, परन्तु अदालतों में वह बरी होता चला गया अथवा ज़मानत पर रिहा होता रहा। जितनी देर वह जेल में भी रहा, उस समय भी पूर्व की तरह बाहर उसका सिक्का चलता था। राजनीतिज्ञ, पुलिस एवं बड़े अधिकारियों से मेल-जोल के कारण वह इतना साहसी हो चुका था कि अपने साथ वह अक्सर 40-50 ़गैर-लाइसैंसी हथियारों वाले गुंडे रखता था। 3 जुलाई को जब निकटवर्ती कुछ थानों की पुलिस की एक संयुक्त टीम उसे पकड़ने के लिए गई तो उसके पोषित किये हुये 50 से भी अधिक गुंडों ने इस पुलिस पार्टी को गोलियों से भून दिया, जिनमें से 8 पुलिस कर्मी मारे गये तथा लगभग एक दर्जन बुरी तरह से घायल हो गये। उत्तर प्रदेश में इन गैंगस्टरों का दबदबा चम्बल घाटी के डाकुओं से भी अधिक माना जाता है। उनकी ओर से निरन्तर  की जाती हत्याओं की चर्चा आम होती रही है, परन्तु निर्ममता के साथ लोगों को मारने के मामले में विकास दुबे के गिरोह ने उत्तर प्रदेश के जाने-माने बदमाश समूहों जिनमें मुख्तियार अंसारी, अतीक अहमद, बृजेश सिंह तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भाटी तथा त्यागी गिरोह शामिल हैं, को भी पीछे छोड़ दिया था। उज्जैन में गिरफ्तारी के बाद पुलिस मुकाबले में उसके मारे जाने की वास्तविकता गले के नीचे नहीं उतर रही। इस आश्चर्यजनक घटना ने अनेक प्रश्न-चिन्ह खड़े कर दिये हैं। चाहे दुबे कितना भी बड़ा क्रूर अपराधी हो, उसे कानून के शासन के शिकंजे में ही जकड़ा चाहिये था। चाहे आज बसपा, कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टियां इस घटना के संबंध में अनेक प्रश्न उठा रही हैं, परन्तु दुबे को उसकी पूरी उम्र किसी न किसी तरह का राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा है। नि:सन्देह पुलिस इस ‘मुकाबले’ को लेकर कटघरे में खड़े दिखाई दे रही है परन्तु इससे भी बड़ी बात यह है कि दुबे की तमाम कार्रवाइयों की तह तक पहुंचा जाना आवश्यक था जिससे इस समूची आपराधिक कड़ी की तस्वीर स्पष्ट होती। इसमें सन्देह नहीं कि यह पाशविक शख्स 30 वर्ष तक अनेक कारणों के दृष्टिगत कानून के शिकंजे से बचता रहा था। यह हमारी समूची कानून व्यवस्था के दुर्बल होने का भी चिन्ह है परन्तु इसके बावजूद लोकतंत्र में कानून के शासन की ही प्राथमिकता रहनी चाहिए। पुलिस एवं प्रभावशाली व्यक्तियों की ओर से कानून को अपने हाथ में लेने के जहां गम्भीर परिणाम हो सकते हैं, वहीं ऐसी कोई कार्रवाई लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी एक बड़ा आघात् सिद्ध होगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द