भारत ने कोरोना का टीका बना लेने की जगाई उम्मीद 

कोरोना महामारी का संकट झेल रही दुनिया के लिए भारत ने इसी साल 15 अगस्त तक कोविड-19 का स्वदेशी टीका बना लेने की उम्मीद जताई है। यह सफलता भारत के हाथ लग जाती है तो भारत समेत दूसरे देशों के लिए यह राहत की बड़ी खबर होगी। दरअसल भारत के लिए टीका बना लेना इसलिए संभव है, क्योंकि भारत के चिकित्सा विज्ञानियों ने दुनिया में दवाओं के आविष्कार और बीमारियों की जांच के उपकरण-निर्माण में बड़ी भागीदारी की है। इस टीके का निर्माण भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) और भारत बॉयोटेक कर रहे हैं। इस सिलसिले में दवा का जानवरों पर परीक्षण पूरा हो चुका है और अब मनुष्यों पर परीक्षण करने की अनुमति मिल गई है। देश के 12 चिकित्सा संस्थानों में कोरोना संक्रमितों पर टीके का परीक्षण किया जाएगा। दुनिया में इस समय करीब 140 टीकों का परीक्षण चल रहा है। हालांकि टीका परीक्षण का काम अत्यंत चुनौती और खतरे से भरा होने के साथ खर्चीला भी होता है। इसलिए दवा कम्पनियां अब टीकों के निर्माण में हाथ नहीं डाल रही हैं।  विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि 16 टीकों की क्लीनिकल ड्रग ट्रॉयल अंतिम चरण में है। इनमें चीन में पांच, अमरीका में तीन, ब्रिटेन में दो और एक-एक आस्ट्रेलिया, रूस एवं जर्मनी में है। इसी बीच भारत की बॉयोटैक्नोलॉजी कम्पनी भारत बॉयोटेक, हैदराबाद द्वारा निर्मित टीके को मानव पर परीक्षण करने की अनुमति मिल गई है। इस कम्पनी ने देश का पहला कोविड-19 वैक्सिन ‘कोवाक्सिन’ को बना लेने का दावा किया है। दुनिया का पहला दवा परीक्षण 1747 में जेम्सलिंड ने किया था। उन्होंने अपने परीक्षण में पाया कि खट्टे फल खाने वाले सैनिकों को स्कर्वी रोग नहीं होता। बाद में जैसे-जैसे दवाएं कृत्रिम तरीकों से प्रयोगशालाओं में तैयार की जाने लगीं, वैसे-वैसे दवा परीक्षणों की ज़रूरत भी बढ़ती चली गई। इसी ज़रूरत पूर्ति के लिए ‘संविदा अनुसंधान संगठन’ (कॉन्टेक्ट रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन) वजूद में आया। दवा कम्पनियां अपनी मर्जी के मुताबिक मानदण्ड तय करके सीआरओ के जरिये दवा परीक्षण कराने लगीं। सीआरओ ने ही पहले दवा परीक्षण की शुरुआत दलालों के माध्यम से चिकित्सा विश्व विद्यालयों से जुड़े चिकित्सा महाविद्यालयों में की और अब तो हालात इतने बदतर हैं कि ये प्रयोग निजी अस्पतालों और प्राइवेट प्रेक्टिशनर्स के माध्यम से भी किए जाने लगे हैं। नई ऐलोपैथिक दवाओं का ज्यादातर आविष्कार करते तो अमरीका, इंग्लैंड, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, चीन  और जर्मनी जैसे विकसित देश हैं, किंतु इन दवाओं का वास्तविक प्रभाव-दुष्प्रभाव जानने के लिए भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ्रीका, भूटान और श्रीलंका जैसे गरीब व विकासशील देशों के नागरिकों का गिनीपिग की तर्ज पर प्रयोग हेतु इस्तेमाल किया जाता है। कोरोना टीका परीक्षण के साथ यह अच्छी बात है कि इसके रोगी फिलहाल हर देश में उपलब्ध हैं। नतीजतन इंसान को गिनी पिग बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ रही है। चूंकि दवा पहली बार मरीज़ों के मर्ज पर आजमाई जाती है, इस कारण इसके विपरीत असर की आशंका बनी रहती है। दवा जानलेवा भी साबित हो सकती है। यह बात दवा कम्पनी और चिकित्सक बखूबी जानते हैं। ये प्रयोग चूहा, खरगोश, बंदर और छोटे सूअर के बाद अकसर लाचार इन्सान पर किए जाते हैं। परीक्षण के बहाने गुमनामी के ये प्रयोग चिकित्सकों की नाजायज कमाई का बड़ा हिस्सा बनते हैं। एक मरीज़ पर दवा के प्रयोग के लिए तीन से पांच लाख रुपये तक डॉक्टर को मिलते हैं। दवा की रोग पर उपयुक्तता तय हो जाने के बाद कम्पनियां दवा को विश्वव्यापी बाजार में बेचकर अरबों रुपये का मुनाफा कमाती हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में ड्रग ट्रायल का कारोबार 3000 करोड़ रुपए प्रति वर्ष है। मौजूदा समय में करीब 2000 विभिन्न प्रकार की दवाओं के क्लीनिकल ट्रायल भारत में पंजीकृत हैं। दुनियाभर में दवाओं का बाज़ार 80 खरब से भी ज्यादा रुपयों का है। पर इसमें टीकों की भागीदारी केवल तीन प्रतिशत है। किसी एक विषाणु को समाप्त करने के लिए एक टीका बनाने में लगभग 15 अरब रुपए खर्च आता है। इसका कई वर्ष तक चूहे, खरगोश, बंदर और फिर मनुष्य पर परीक्षण करना होता है। इसलिए दवा कम्पनियां विषाणु का टीका बनाने की प्रक्रिया में हाथ नहीं डालती हैं। विकसित देशों के समूह ही इन कार्यक्रमों में धन खर्च कर सकते हैं। शायद इसीलिए कोरोना कोविड-19 का टीका बनाने के दावे तो कई देश कर रहे हैं, लेकिन इनमें सच्चाई कितनी है, अभी पता नहीं। इसीलिए भारत की स्वास्थ्य से जुड़ी शीर्ष संस्था  काऊंसिल ऑफ  साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) के महानिदेशक डॉक्टर शेखर पांडे ने कहा है कि यह एक गलतफहमी है कि कोविड-19 का इलाज केवल वैक्सीन से ही संभव है। इसके उपचार में दवा भी मददगार हो सकती है।

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