महारानी जिंदां को याद करते हुए

महारानी जिंदां महाराजा रणजीत सिंह की सबसे छोटी तथा बनती-फबती रानी थी। उसने अपने लम्बे जीवन काल में महाराजा रणजीत सिंह की चढ़त का भी आनंद लिया, अपने पुत्र दलीप सिंह से दूर रहने के वियोग भी सहन किया और उससे मिलने के बाद उसके दुख एवं निराशा भी अपनी आंखों के साथ देखो। 7 जुलाई, 1799 को नौजवान रणजीत सिंह द्वारा लाहौर के किले में प्रवेश करके विरोधी मिसलों भंगियों तथा रामगढ़ियों के नेताओं के किनारे लगाने के बाद की जीतों ने महारानी को कितनी लोकप्रिय बनाया होगा, इस का अनुमान लगाना कठिन नहीं। अपने 40 वर्ष के शासन में उनके पति ने सतलुज से दर्रा खैबर तथा लद्दाख से सिंध तक के इलाके पर कब्ज़ा करके यहां के हिन्दु, मस्लिम, सिख वसनीकों का मन मोह लिया और शेर-ए-पंजाब की पदवी प्राप्त की। महाराजा के अपने कथन के अनुसार तैमूर उनका रोल माडल था। उन्होंने तैमूर की कथनी को करनी कर दिखाया। उनकी दरियादिली, उद्दम, शूरमगति पबंदी के किस्से दूर-दूर तक पहुंचने लगे। उन्होंने जीते गए क्षेत्रों की रक्षा करने वाले शूरबीरों को तोहफे तथा जगीरें दीं। वह विरोधी से टक्कर लेते हुए ज़रा भी झिजकते नहीं थे। शाही पौशाक में आराम नहीं किया तथा गरीब गुरबों तथा फकीरों को दान दे कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। खूबी यह है कि इन उपलब्धियों को वह परमात्मा को देन कहते रहे। परन्तु हुआ यह कि महारानी जिंदां की अथक कोशिशें के बावजूद महाराजा की मौत के बाद कुछ खुदगर्जों ने ऐसी बेवसाही, धोखेबाजी, रंजिश तथा ईषा की भावना पैदा की कि खालसा राज बिखर गया। उधर फरंगी शासकों ने महाराजा के साथ किये अहिदनामों को ही लीर-लीर नहीं किया बल्कि महारानी से उनके  बेटे को भी दूर कर दिया और उनको खुद को लाहौर से दूर शेखूपुरा, बनारस तथा अन्य दूर स्थानों में बंद करके माइक जागीरें देकर भरमाया। धीरे-धीरे वह भी इतनी कम कर दीं कि रानी जिंदां के लिए जीना कठिन हो गया। जब महारानी को पूरा विश्वास हो गया कि ब्रिटिश शासक उनको किसी हालत में भी अपने बेटे महाराजा दलीप के निकट नहीं रहने देंगे तो वह कैदखाने में से बाहर निकलने की योजनाएं सोचने लगीं। अंत एक दिन आधी रात उन्होंने अपना शाही लिबास तथा गहने अपनी देख-रेख कर रही दासी को पहना कर खादी की साड़ी पहनी और कैद खाने से बाहर निकल अज्ञात यात्रा पर निकल पड़ीं। क्या आप सोच सकते हैं कि शेर-ए-पंजाब की यह धर्म-पत्नी जंगल बेले तथा नदियां के पैंडे तय करती हुई नेपाल की सीमा पार कर गई। वहां पहुंत कर उसने नेपाल के राजा को खबर भेजी तो राजा ने उनको काठमंडू लाने के लिए पालकी भेजी, जो उनको राजा की महल में ले गई। उनकी यात्रा हालत देख कर राजा के विश्वास न आये कि वह महारानी जिंदां है। थोड़ी झिजक के बाद रानी ने नेपाल के राजा को उसके समान की होकर इतने साहस से पुकारा कि उसे उसके महारानी होने पर विश्वास हो गया। नेपाल के राजा की खुलदिली देखें कि उसने पूरे 11 वर्ष रानी जिंदां को पनाह दी। परन्तु इस  अवधि में वह अपने पुत्र महाराजा दलीप सिंह की याद में इतनी रोई कि उनकी नज़र जाती रही। वह लगभग अंधी हो गई। इधर ब्रिटिश शासकों ने बालक दलीप सिंह को राज कुमारों के तरह पाला और हर तरह की सुविधाएं देकर उसे पंजाब तथा सिखी मान-मर्यादा से तोड़ कर तथा ब्रिटिश वरत-वरतारे की प्रशंसा कर उसे इसाई बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हिन्दुस्तान रहते हुए उसे ठंडे स्थानों पर घुमाया और इंग्लैंड ले जा कर ऐसे ठिकानों पर रखा, जिनकी खिड़कियों को मुंह उसकी रखवाली कर रहे जॉन लागिन जैसे मनोवैज्ञानिक रुचियों वाले इसाईयों की ओर खुलते थे। उसे इसाई मत के ओर प्ररेरित करने हेतु महाराजा परिवार के पुराने नौकर भजन लाल को भी ढूंढा, जो जद्दी-पुश्ती ब्राह्मण से इसाई हो चुका था। उसने अपना प्रमाण देकर बालक दलीप को इतना प्ररेरित किया कि उसने जॉन लागिन से दूर एक महीने की छुट्टी समय ही घोषणा कर दी कि उसे इसाई मत प्रवान करके खुशी होगी। जब फरंगियों को पूरा विश्वास हो गया कि दलीप सिंह तन-मन से इसाई हो चुका है तभी उसे हिन्दुस्तान आ कर अपनी माता मिलने का रास्ता दिखाया। हिन्दुस्तान लौटने से पहले सभी यूरोप की सैर करवाना भी इन भरमाने वाली विधियों का हिस्सा थी। अंत दलीप सिंह की यूरोप के रास्ते और उसकी मां की काठमंडू से सीधी कलकत्ते पहुंचने की दास्तान इतनी मारमिक है कि छोटे लेख में नहीं समा सकती। फिर जब पुत्र मिलाप पर महारानी जिंदां को पता चला कि उसका बेटा इसाई हो चुका है तो मां को इंग्लैंड लेजाना चाहते हैं तो महारानी ने इस शर्त पर जाना मान लिया कि वह पुन: सिखी अपनाए। पुत्र द्वारा सकारात्मक उत्तर मिलने पर वह मान गई और अंत जुलाई 1861 को वहां पहुंच गईं। दो वर्ष जीवित रह कर उन्होंने लंदन में ही अपने प्राण त्याग दिए। बादशाह अकबर जैसा प्रसिद्धि हासिल करके शेर-ए-पंजाब के रूप में जाने जाते महाराजा रणजीत सिंह की धर्म पत्नी जिंदां की इस मारमिक गाथा को जुलाई के महीने से जोड़ते हुए मुझे तालाबंदी से राहत मिल रही है। 

अंतिका 
(गुरभजन गिल)
होठां उत्तों चुप दे जंदरे खोल दिया कर।
मन मसतक में जो भी आवे बोल दिया कर।
तूं धरती की धी हैं लेखा मावां धीआं, 
मां दी बुक्कल बहि के दुख-सुख फोल दिआ कर।
एक मुस्कान उधारी दे के पौणां नूं तूं,
कुल आलम दे साहीं संदल घोल दिआ कर। 
सारा अंबर तेरा, तेरे चंद सितारे,
मार उडारी पौणां विच पर तोल दिआ कर।
माणक मोती महंगे इह अनमोल खज़ाना, 
पानी वांगूं अथरू  ना तूं डोल दिआ कर।