मनोविज्ञान से हार रही हैं भारतीय भाषाएं

गलत नियमों, सिद्धांतों, से भी कहीं ज्यादा सरलीकृत निष्कर्ष खतरनाक होते हैं। हिंदी भाषा के बारे में जब भी कोई विद्वान, समाजशास्त्री, भाषाविद, राजनेता या कोई भी जिसे यह भ्रम है कि वह हिंदी की दुर्दशा की सही वजह जानता है, छूटते ही कहेगा कि हिंदी की इज़्ज़त इसलिए नहीं है, हिंदी को छात्र पढ़ने से इसलिए कतरा रहे हैं, क्योंकि हिंदी बाज़ार और रोज़ीरोटी की भाषा नहीं है। यह बात सिरे से गलत है लेकिन चूंकि लगातार करीब-करीब हर विद्वान के मुंह से यही कहा जा रहा है, इसलिए यह सरलीकृत निष्कर्ष स्थापित है और हम बाज़ार की सबसे महत्वपूर्ण भाषा को बाज़ार की भाषा ही नहीं मानते। आखिर बाज़ार की भाषा हम किसे कहेंगे? जिस भाषा में बाज़ार में लेनदेन करने वाले ज्यादातर लोग आपस में बातचीत करते हों। भारत में करीब 9 करोड़ छोटे बड़े फुटकर और थोक के दुकानदार हैं और इनमें से करीब 5 करोड़ सभी तरह के दुकानदार विशुद्ध रूप से हिंदी बोलते और समझते हैं, जबकि 3 करोड़ दुकानदार टूटी फूटी हिंदी भाषा बोल लेते हैं और करीब-करीब सभी हिंदी समझ लेते हैं। भारत में करीब 16 लाख करोड़ रुपये की सालाना खरीद फरोख्त होती है। इसमें से तकरीबन 10 लाख करोड़ की खरीद फरोख्त का रिश्ता हिंदी बोलने या हिंदी समझने वालों से है। भारत का फिल्म उद्योग, फिल्म बनाने की संख्या के लिहाज से दुनिया का सबसे बड़ा और आर्थिक हैसियत के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है, जिससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर करीब 80 लाख लोगों की रोजी रोटी मिलती है। दुनिया के 132 मुल्कों में हिंदी किसी न किसी विश्वविद्यालय में और 80 मुल्कों में कम से कम 3 विश्वविद्यालयों या शैक्षिक संस्थानों में हिंदी पढ़ाई जाती है। दुनिया के करीब 53 मुल्कों के विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा के विभाग हैं और शोध अध्ययन संस्थान हैं। दुनिया में हिंदी तीसरी वह भाषा है जिसमें सबसे ज्यादा किताबें छपती हैं। दुनिया में हिंदी तीसरी वह भाषा है जिसे सबसे ज्यादा लोग बोलते हैं। भारत का राष्ट्रीय विज्ञापन उद्योग 85 प्रतिशत से ज्यादा विज्ञापन हिंदी में बनाता है। भारत में हिंदी जानने की सहूलियत के चलते करीब 50 लाख लोगों को अलग-अलग क्षेत्रों में प्रत्यक्ष तौर पर नौकरी मिली हुई है। इनमें 10 लाख से ज्यादा विभिन्न सरकारी और अर्ध-सरकारी संस्थानों में अनुवादक हैं और करीब 3 लाख से ज्यादा उच्च शिक्षण संस्थानों में हिंदी पढ़ाने वाले अध्यापक हैं।क्या इन तमाम आंकड़ों के बाद भी हम बिना कुछ सोचे समझे यह कह सकते हैं कि हिंदी की दुर्दशा का कारण यह है कि हिंदी बाज़ार और रोजगार की भाषा नहीं है? दरअसल यह पिछले 50 सालों से स्थापित झूठ पर आधारित एक ऐसा  सरलीकृत अनुमान है, जिसका खामियाजा हिंदी लगातार भुगत रही है। हिंदी की असली समस्या कभी भी बाजार या रोजगार नहीं रही। 1915-1918 और 1920 में भी हिंदी के साथ यह समस्या नहीं थी, जबकि तब तक न देश आज़ाद था और न ही हिंदी को किसी राजभाषा होने का गौरव हासिल था। 1857 से लेकर 1947 तक का सारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम हिंदी जुबान से लड़ा गया है। हम भूल जाते हैं कि इस देश के सबसे बड़े जनवक्ता महात्मा गांधी ने अपने पूरे राजनीतिक जीवनकाल में करीब 90 फीसदी समय हिंदी जुबान बोली। सन् 2020 में भारत के सबसे लोकप्रिय राजनेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जो 90 फीसदी नहीं बल्कि 98 फीसदी मौकों पर हिंदी में ही बोलते हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक बार नहीं, कई बार अपनी यह कसक सार्वजनिक की है कि वह देश के प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बन सके, क्योंकि उन्हें अच्छी हिंदी नहीं आती। एचडी देवगौड़ा, प्रधानमंत्री बनने के बाद युद्धस्तर पर हिंदी जुबान सीखी थी। दरअसल हिंदी थोड़े से नौकरशाहों, कारपोरेट दिग्गजों, बड़े कारोबारियों और सत्ता का सुख भोगने वाले आभिजात्य राजनीतिक वर्ग की पूंजी है। इन्हें पता है कि उनकी यह पूंजी तभी तक प्रभावशाली है, जब तक देश का बहुसंख्यक समाज अपने को दोयम दर्जे का मानता रहे और हीनताबोध से ग्रस्त रहे। पिछले कई दिनों से यह विचार एक बड़ी चिंता के रूप में सोशल मीडिया में घूम रहा है कि उत्तर प्रदेश में बोर्ड परीक्षाओं में 8 लाख छात्र हिंदी में फेल हो गये हैं, जबकि करीब 2 लाख 40 हजार छात्रों ने हिंदी के प्रश्नपत्र को ही छोड़ दिया, इस चिंता से कि वे इसमें फेल हो जाएंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन छात्रों की असफलता हिंदी की दुर्दशा की कहानी कह रही है लेकिन हमने क्या यह जानने की कोशिश की है कि महाराष्ट्र में मराठी में कितने छात्र असफल हुए? पंजाब में पंजाबी भाषा में कितने छात्र असफल हुए? बंगाल में बांग्ला, असम में असमी, उड़ीसा में उड़िया, तमिलनाडु में तमिल और केरल में मलयलायम भाषा में कितने छात्र फेल हुए हैं? हिंदी में फेल हुए छात्रों का आंकड़ा जानने की कोशिश महज एक पाखंड है। इस पाखंड से मुक्ति तभी मिलेगी, जब हम हिंदी की चिंता में समग्र भारतीय भाषाओं की चिंता को समाहित करेंगे और इसकी वास्तविकता समझने के लिए इसके मनोविज्ञान से दो-चार होंगे।

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