निडरता की मिसाल : मलाला यूसुफज़ई

दिदन-प्रतिदिन महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। आज भारत में अधिकतर महिलाओं के जीवन में डर और सहम के अलावा गुलामी ही देखने को मिलती है। अगर निडरता की बात की जाए तो हज़ारों में कोई एक महिला होगी जो अपने अधिकारों के लिए निडर होकर अपनी आवाज़ बुलंद करती है। कई बार ऐसी महिलाओं को अपनी निडरता दिखाने के कारण अपनी जान से भी हाथ  धोना पड़ता है। अधिकतर महिलाएं ऐसे सम्भावित खतरों के कारण अधिकारों के प्रति आवाज़ उठाने से ज्यादा अपने ऊपर अत्याचार सहन करने को प्राथमिकता देती हैं। ऐसे अत्याचारों के प्रति आवाज़ बुलंद करके अपनी जान खतरे में डालने वाली सबसे छोटी उम्र 17 वर्ष में ‘नोबल शांति’ पुरस्कार प्राप्त करने वाली प्यारी बच्ची मलाला युसूफजेई का नाम आज विश्व भर के प्रत्येक बच्चे को पता है। मलाला युसूफज़ेई लड़कियों की शिक्षा और उनके अधिकारों के प्रति आवाज़ बुलंद करने वाली वह लड़की है, जिसने अपने हंसने-खेलने की आयु में निडरता दिखाते हुए तालिबान आतंकवादियों के विरुद्ध जाकर लड़कियों की शिक्षा और अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई और उसको बदले में आतंकवादियों के हमले का शिकार होना पड़ा, लेकिन खुशकिस्मती से इस  हमले में विशेष तौर पर निशाना बनाई गई मलाला के सिर में गोली लगने के बावजूद वह बच गई। इस घटना के बाद भी मलाला ने अपना लड़कियों की शिक्षा और अधिकारों के प्रति संघर्ष करना नहीं छोड़ा। आज भी वह महिलाओं की शिक्षा, अधिकारों और महिलाओं की गुलामी के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं। मलाला यूसुफज़ेई का जन्म पाकिस्तान के स्वात ज़िले के गांव मीनगोरा में 12 जुलाई, 1997 को हुआ। छोटी उम्र में ही डायरी लिखने की शौकीन मलाला पढ़ाई में बहुत ही होशियार थी। वह प्रत्येक पल को डायरी में उतारती थी। मलाला की स्कूली शिक्षा के दौरान मीनगोरा में 2009 में तालिबानी आतंकवादियों  का कब्ज़ा था। उस समय के दौरान आतंकवादियों की ओर से लड़कियों को स्कूल में पढ़ने के लिए भेजने पर रोक लगाई गई थी। मलाला भी उन पीड़ित लड़कियों में शामिल थी। इसके अतिरिक्त लड़कियों को टी.वी. देखने और खुले में खेलने और घूमने पर भी रोक लगा दी थी। लड़कियों के स्कूल बंद कर दिये गये थे। इस सबके चलते ही मलाला ने 11 वर्ष की छोटी आयु में ही अपनी डायरी में आतंकवादियों की गतिविधियां और लड़कियों पर हो रहे अत्याचारों के बारे में लिखना शुरू किया और लोगों को जागरूक करना शुरू कर दिया। इसके बाद उनकी लिखी डायरी को बी.बी.सी. न्यूज़ ने प्रकाशित किया है और उसके बाद मलाला लड़कियों की पढ़ाई और उनके अधिकारों के प्रति उठाई आवाज़ के कारण चर्चा में आ गई। लेकिन कट्टर तालिबानी आतंकवादी विशेष तौर पर लड़कियों की पढ़ाई करने के विरोध में थे। इसी के कारण ही मलाला युसूफज़ेई आतंकवादियों की हिट लिस्ट में शामिल हो गई। 2009 में स्वात में आतंकवादियों की ओर से लड़कियों के स्कूल जाने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया था और यह भी घोषणा कर दी गई थी कि अगर कोई इस फरमान के विपरीत जाएगा तो वह अपनी मौत का स्वयं  ज़िम्मेदार होगा। आतंकवादी खतरा कम होने तक अपने संघर्ष के कारण मलाला काफी चर्चा में आ चुकी थी। आतंकवादियों की ओर से पहले ही उसको मारने की धमकियां मिल रही थीं। लेकिन वह इसके प्रति पूरी तरह से निडर थीं। वर्ष 2009 में न्यूयार्क टाइम्स में मलाला पर एक फिल्म भी बनी, जिसमें आतंकवादियों के आतंक  और महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों का पर्दाफाश किया गया था। अपने निडर संघर्ष के लिए मलाला को 2013 में ‘इंटरनैशनल चिल्ड्रन पीस’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मलाला के संघर्ष के सामने अपनी हो रही हार को देखकर तालिबानी आतंकवादियों ने मलाला को मारने की योजना बनाई। 9 अक्तूबर, 2012 में मलाला स्कूल से अपने सहपाठियों के साथ घर वापिस आ रही थी। इसी दौरान तालिबान आतंकवादियों ने मलाला को अपनी बंदूक की गोली का निशाना बनाया। गोली मलाला के सिर में मारी गई। इस घटना में कुछ अन्य लड़कियां भी घायल हुईं। हालत गम्भीर होने के कारण उसको पेशावर के मिल्ट्री अस्पताल में भर्ती करवाया गया। उसके सिर का आप्रेशन किया गया। इस घटना पर पूरी दुनिया में अफसोस जताया गया। उसके बाद प्रत्येक व्यक्ति ने आतंकवादियों के हमले में घायल हुई बच्ची के लिए दुआएं मांगी और इस घटना से पूरी दुनिया में छा कर चर्चा में आ गई। बाद में मलाला को अगले उपचार के लिए रानी एलिज़ाबेथ अस्पताल बर्मिंघम इंग्लैंड भेज दिया गया। लम्बे उपचार और काफी आप्रेशनों व सर्जरियों और सिर में टाइटेनियम की प्लेट डालने के बाद मलाला की हालत में सुधार आया। मार्च 2013 को मौत के मुंह से वापिस आकर ठीक होने के बाद बर्मिंघम के स्कूल में अपनी पढ़ाई की दोबारा शुरुआत करके मलाला ने पूरी विश्व में लड़कियों के अधिकारों के प्रति उठाई आवाज़ को और मज़बूत किया। इस संघर्ष के रास्ते पर चलते ही वर्ष 2013 में मलाला युसूफज़ेई ने अपनी किताब  'I AM MALALA' लोगों को समर्पित की, जिसको यूरोप और दूसरे अन्य देशों में काफी पसंद किया जा रहा है। इस किताब का अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद किया गया है। इस में प्रसिद्ध जनर्लिस्ट क्रिस्टीना लामब ने सह-लेखक के तौर पर अपनी भूमिका निभाई है। इस पुस्तक के द्वारा मलाला ने लड़कियों के अधिकारों पर और अपने साथ बीती घटनाएं सांझी की हैं। फिर वर्ष 2014 में मलाला युसूफज़ेई बाल अधिकारों पर काम करने वाले कैलाश सत्यार्थी के साथ ‘नोबल शांति पुरस्कार’ जीतने में सफल हुईं। इसके बिना पाकिस्तान सरकार की ओर से भी मलाला के सम्मान के लिए कई पुरस्कार उनको दिए गए थे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की ओर से मलाला को पाकिस्तान की शान कहा गया। आज भी हमले का खतरा होने का सन्देह होने के कारण मलाला को हथियारबंद सुरक्षा प्रदान की गई है। यह सब हमें सोचने के लिए मजबूर करता है कि लड़कियों की हालत आज भी गुलामी वाली है। भारत में भी लड़कियों के अधिकारों के प्रति कोई मजबूत रास्ता नहीं है। हज़ारों लड़कियां हैं जिनसे उनके अधिकार छीने जा रहे हैं। लोगों की घटिया सोच होने के कारण और व अन्य कई कारणों से आज हज़ारों ही लड़कियां  शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। लड़कियों के प्रति बढ़ रहा अत्याचार लड़कियों के गुलाम होने की पूरी गवाही भरता है। पंजाब में भी लड़कियों को काफी अत्याचार सहन करना पड़ रहा है। लड़कियों की संख्या का कम होना इसका बड़ा प्रमाण है। आज़ादी की लगभग पौनी सदी बीत चुकी है तब भी महिलाएं गुलामी का शिकार बन कर जी रही हैं। अगर इन सभी तथ्यों को देखा जाए तो महिलाएं सिर्फ सती प्रथा खत्म करने में सफल हुई हैं। अन्य गुलामी की प्रथाएं आज भी जारी हैं। महिला की स्थिति आज बद से बदतर होती जा रही है। आज़ादी सिर्फ नाम की है। सभी कामों में महिलाएं आज भी गुलामी सहन कर रही है। वैज्ञानिक युग होने पर भी महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति आवाज़ उठाने नहीं दी जाती। अगर कोई महिला बोलती भी है तो उस पर मर्यादा भंग करने का झूठा आरोप लगा खामोश कर दिया जाता है। अगर आज हम अपने देश को विकास के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं तो आवश्यकता है कि सभी को समानता दी जाए, महिलाओं के सभी अधिकारों को बहाल किया जाए, महिलाओं के प्रति घटिया सोच को बदला जाए ताकि आज प्रत्येक लड़की मलाला जैसी सोच अपनाकर अपने अधिकारों के प्रति आवाज़ उठाकर उसे प्राप्त कर सके।