पुलिस मुकाबलों से अमन-कानून की स्थिति नहीं सुधर सकती

‘विकास दुबे कानुपर वाला’ भारतीय लोकतंत्र की विफलता और स्तरहीनता का एक रूपक बन गया है। खास बात यह है कि यह नाकामी कुछ इस तरह की है जिसे हमारा लोकतंत्र बार-बार दोहराए जाने के लिए अभिशप्त है। विकास दुबे जैसा प्रकरण फिर से न घटे, इसके लिए इस व्यवस्था में आमूल चूल किस्म के परिवर्तन करने होंगे। पहले बड़ा बदलाव तो यह करना होगा कि मौजूदा पुलिस प्रणाली को या तो पूरी तरह से खत्म कर देना होगा, या उसमें  रैडिकल सुधार करके उसकी शक्ल-सूरत  पूरी तरह से कुछ की कुछ बना देनी होगी। दूसरा बड़ा बदलाव करने के लिए राजनीतिक दलों और अपराध की दुनिया के बीच के रिश्तों को निष्प्रभावी बनाने की संहिताएं तैयार करनी होंगी। तीसरा बड़ा बदलाव न्याय व्यवस्था में करना होगा ताकि अगर पुलिस अपराधी को गिऱफ्तार करके अदालत में पेश कर भी दे तो उसे सुचिंतित और निष्पक्ष तरीके से सज़ा दी जा सके, पुलिस को ़फर्जी एनकाउंटर का सहारा न लेना पड़े। इसी के साथ जेल प्रणाली को ब्रिटिश जेल प्रणाली के कायदे-कानूनों से बाहर निकाल कर नवीकृत करना होगा, ताकि सज़ा काट रहे कैदी जेल में ही बैठ कर सुरक्षित रूप से जेल के बाहर अपना साम्राज्य न चला सकें। ज़ाहिर है कि ये बहुत बड़े-बड़े काम हैं जो एक बार में किये ही नहीं जा सकते। इन्हें अन्जाम देने के लिए कम से कम दस या पंद्रह साल लगेंगे, बशर्ते आज की ताऱीख में हमारी सरकार इन परिवर्तनों का ब्लू-प्रिंट तैयार करके सर्वदलीय सहमति के साथ उस पर अमल शुरू कर दे। ज़रा कल्पना कीजिए कि विकास दुबे प्रकरण के पीछे राजनीति, समाजनीति और पुलिसनीति के बीच किस तरह के समीकरण चल रहे थे। विकास दुबे और उसके हथियरबंद गुर्गों ने जब आठ पुलिस वालों की गोलियों और धारदार हथियारों से हत्या कर दी, तो उसके तुरंत बाद जो प्रक्रिया शुरू हुई, उस पर एक नज़र डालते ही समझ में आ जाता है कि ऊपर बताये गए काम अभी तक क्यों नहीं किये जा सके, और आगे भी क्यों नहीं किये जाएंगे। पुलिसजनों के प्राण लेने के बाद जैसे ही विकास दुबे फरार हुआ, वैसे ही उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के भीतर की जातिगत गुटबाज़ी तेज़ी से सक्रिय हो गई। उत्तर प्रदेश की भाजपा तीन जातिगत गुटों के आपसी संतुलन पर टिकी रहती है। यह है ब्राह्मण लॉबी, ठाकुर लॉबी और पिछड़ा लॉबी का संतुलन। इन तीनों गुटों के पास ही मुख्यमंत्री पद और दो उप-मुख्यमंत्री पद हैं। तीनों लॉबियां प्रदेश और स्थानीय स्तर पर अपने-अपने राजनीतिक हितों के मद्देनज़र बाहुबलियों को उठाने-गिराने की योजनाओं पर अमल करती रहती हैं। किसी ज़माने में ब्राह्मण लॉबी के झंडाबरदार मुरली मनोहर जोशी हुआ करते थे। अब वह नेपथ्य में चले गए हैं, लेकिन भाजपा इस लॉबी की उपेक्षा नहीं कर सकती। ब्राह्मण समुदाय भाजपा को पिछले तीस साल से निष्ठापूर्वक वोट दे रहा है, पार्टी जीते या हारे (उप्र में ब्राह्मण वोटों की संख्या द्विज जातियों में सबसे ज़्यादा है)। राजपूत समुदाय के किसी भी राजनीतिकृत व्यक्ति से बात कर लीजिए, वह यह आभास दे देगा कि इस समय सत्ता उसी के पास है। पिछड़ा लॉबी के सिरमौर कभी कल्याण सिंह हुआ करते थे, और उनका संघर्ष जोशी के साथ होता रहता था। इस समय ताकतवर पिछड़ी जातियों में यादवों को छोड़ कर कुर्मी, लोधी और शाक्य वगैरह भाजपा का समर्थन कर रहे हैं। जैसे ही विकास दुबे कांड हुआ, ब्राह्मण लॉबी ने तय किया कि वह पुलिस के हाथों उसे मरने नहीं देगी। यह इस लॉबी की ताकत का प्रमाण है कि उप्र की भाजपा उसके इस आग्रह को मान गई। सोशल मीडिया पर भी मुहिम चलने लगी कि ‘ब्राह्मण शिरोमणि’ विकास दुबे ने ऐसा कुछ नहीं किया है जो किसी दूसरी जाति के बाहुबली नहीं करते रहे हैं। टिप्पणियां की जाने लगीं कि कई जातियों के बाहुबलियों ने पुलिस का खून बहाया है, इसलिए अगर एक ब्राह्मण बाहुबली ने बहा दिया तो इतनी हाय-तौबा क्यों मच रही है। लेकिन, समस्या यह थी कि चौबेपुर के बिकरू गांव में हुई ‘उल्टी मुठभेड़’ ने उप्र पुलिस की साख पर पूरी तरह से बट्टा लगा दिया था। पुलिस और एसटीए़फ (स्पेशल टास्क फोर्स) ने कमर कस ली थी कि विकास दुबे को किसी भी तरह से छोड़ना नहीं है। भाजपा और उसकी ब्राह्मण लॉबी की यही सबसे बड़ी दिक्कत साबित हुई। उप्र पुलिस की एनकाउंटर करने की ज़िद के कारण प्रदेश के भीतर विकास दुबे का ‘समर्पण’ और गिऱफ्तारी नामुमकिन थी। ऐसा लगता है कि इसीलिए पहले हरियाणा (जहां भाजपा की सरकार है) पुलिस की मदद से विकास दुबे की गिऱफ्तारी करने की कोशिश की गई। इसीलिए विकास दुबे पहले फरीदाबाद में दिखा था, लेकिन किसी वजह से ऐसा न हो पाने की सूरत में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार के तहत उज्जैन की पुलिस से यह काम करवाया गया। गिरफ्तारी का नाटक हो गया। भाजपा अपनी इस कुशलता पर अपनी पीठ ठोक रही थी। भाजपा समर्थक मीडिया का एक चिल्लाता हुआ स्वर बुलंद आवाज़ में पूछ रहा था कि विकास दुबे का एनकाउंटर होने की थ्यूरी का प्रचार कर रहे मीडिया वाले अब चुप क्यों हैं। लेकिन, जानकार लोगों को पक्का यकीन था कि उप्र पुलिस विकास दुबे को किसी कीमत पर छोड़ेगी नहीं। ऐसा ही हुआ। ट्रांज़िट रिमांड के बिना उप्र पुलिस विकास दुबे को उज्जैन से ले कर चली और कानपुर से कुछ पहले उसकी ‘जीप पलट गई’, और वही एनकाउंटर हो गया जिसके बारे में भविष्यवाणी की जा रही थी। वैसे भी पुलिस पहले से ही विकास दुबे के साथियों को चुन-चुन कर मार रही थी। कहीं उसकी जीप का टायर पंक्चर हो रहा था, और कहीं एनकाउंटर करने का कोई और बहाना था। उप्र की मौजूदा भाजपा सरकार ने सत्ता में आते ही एनकाउंटरों के ज़रिये कानून और व्यवस्था सुधारने की नीति पर अमल करना शुरू किया था। ठीक ऐसी ही कोशिश कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुख्यमंत्रित्व वाली कांग्रेस सरकार ने की थी। तब उसके ख़िलाफ़ संयुक्त विपक्ष ने एमनेस्टी इंटरनैशनल को चिट्ठी लिख कर पिछड़े वर्ग के निर्दोष युवकों की फर्जी मुठभेड़ों में हत्या के ख़िलाफ़ विरोध व्यक्त किया था। इतिहास में दर्ज है कि एक तरफ सरकार एनकाउंटरों में व्यस्त थी, दूसरी तरफ मुख्यमंत्री वी.पी. सिंह के न्यायाधीश भाई की हत्या एक बड़े डकैत ने कर दी थी। इससे पैदा हुई ग्लानि के कारण वी.पी. सिंह ने इस्तीफा दे दिया था। मौजूदा सरकार भी एनकाउंटरों के दम पर कानून-व्यवस्था की समस्या हल नहीं कर पाई है। कानुपर जनपद के सबसे बड़े दस अपराधियों की सूची में उस विकास दुबे का नाम नहीं था जिसके बंदूकचियों ने पंद्रह मिनट के भीतर-भीतर आठ पुलिसवालों को मौत के घाट उतार दिया। यह इस बात का सबूत है कि एनकाउंटर करके कानून का शासन स्थापित नहीं किया जा सकता। वी.पी. सिंह सरकार के हश्र से योगी सरकार को सबक लेना चाहिए। विकास दुबे प्रकरण ने उसकी साख पर एक ऐसा कलंक लगाया है जिसका धुलना बहुत मुश्किल है।