विद्यार्थियों के हित में होता है परीक्षाओं का आयोजन

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अपने दिशानिर्देशों पर पुन: विचार करते हुए बीती 6 जुलाई को उच्च शिक्षा संस्थानों से कहा कि उन्हें अन्तिम वर्ष की परीक्षाएं जुलाई 2020 की बजाय सितम्बर 2020 में करा लेनी चाहिएं। लेकिन कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्तियों की संख्या निरंतर तेजी से बढ़ने के कारण भिन्न-भिन्न राज्यों में अलग-अलग अवधि के लॉकडाउन करने का सिलसिला जारी है। 
इस विस्फोटक स्थिति को मद्देनजर रखते हुए छह राज्यों ने मांग की है कि अन्तिम वर्ष के छात्रों की परीक्षाएं रद्द कर दी जायें। हालांकि इन छह राज्यों के आग्रह की समीक्षा करना सरकार ने स्वीकार कर लिया है, लेकिन मानव संसाधन मंत्रालय ने यह हवाला देते हुए कि अनेक राज्यों और 200 से अधिक विश्वविद्यालयों ने पहले ही अपने टर्मिनल सेमेस्टर परीक्षाएं पूर्ण कर ली हैं, अत: छात्रों के दीर्घकालीन हितों को मद्देनज़र रखते हुए राज्यों को अन्तिम वर्ष के छात्रों का मूल्यांकन करना चाहिए। ध्यान रहे कि यूजीसी के दिशानिर्देश लाज़िमी होते हैं और केंद्र का आदेश प्राथमिक होता है। इसका अर्थ यह है कि जिन राज्यों ने परीक्षाएं रद्द करने की घोषणा की है, उनकी घोषणा का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि इस संदर्भ में जो केंद्र कहेगा, उसे ही राज्यों को मानना पड़ेगा। 
उच्च शिक्षा समवर्ती सूची में है। तमिलनाडु, पंजाब, महाराष्ट्र, ओडिशा व पश्चिम बंगाल ने केंद्र को लिखा है कि उनके लिए परीक्षाएं कराना संभव नहीं है। राजस्थान व मध्य प्रदेश भी ऐसी मांग कर रहे थे और उन्होंने परीक्षाएं रद्द करने की घोषणा भी कर दी थी। लेकिन राजस्थान जिसने पिछले वर्ष की परीक्षा के आधार पर अन्तिम वर्ष का मूल्यांकन करने का फैसला लिया था, अब अपने निर्णय पर पुन:विचार कर रहा है। सवाल यह है कि इस पृष्ठभूमि में जिन विश्वविद्यालयों या राज्यों में अभी अन्तिम वर्ष की परीक्षाएं नहीं हुई हैं, उनमें परीक्षाएं होंगी या नहीं होंगी? मानव संसाधन मंत्रालय व यूजीसी के सूत्रों का कहना है कि सरकार को परीक्षा रद्द करने का पॉपुलिस्ट कदम उठाने की बजाय स्थिति की चिंता है और कि वह 2020 के बैच के हित में दीर्घकालीन दृष्टिकोण अपनायेगी। दूसरे व स्पष्ट शब्दों में इसका अर्थ यह है कि अन्तिम वर्ष की परीक्षाएं तो होंगी, भले देर से हों।
लॉकडाउन के कारण विश्वविद्यालय बंद रहे, ऑनलाइन क्लासेज अवश्य हुईं लेकिन गरीब व ग्रामीण छात्र इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की कमी, बिजली की खराब स्थिति आदि के कारण उनका भरपूर उपयोग नहीं कर सके, खासकर इसलिए भी कि नये कोरोना वायरस संक्रमण से उत्पन्न चिंता व तनाव और लॉकडाउन के कारण आर्थिक तंगी ने शिक्षा पर फोकस कभी करने ही नहीं दिया। जिन विश्वविद्यालयों ने ऑनलाइन परीक्षाएं लीं भी, तो वह मज़ाक अधिक था, क्योंकि नकल करने की पूरी छूट व आशंका थी। ऐसे में परीक्षा से क्या लाभ हुआ? लेकिन यूजीसी का मानना है कि उसने विश्वविद्यालयों को परीक्षा आयोजित करने का पर्याप्त समय व विकल्प दिये हैं और परीक्षाएं रद्द करना छात्रों के हित में नहीं रहेगा। उसका कहना है कि परीक्षाएं छात्रों के दीर्घकालीन हित और जीवन भर की विश्वसनीयता के लिए बेहतर सिद्ध होंगी। उसके दिशानिर्देश मूल्यांकन के संदर्भ में एकरूपता लाने के लिए हैं।
यूजीसी का एक अन्य तर्क यह भी है कि महामारी के कारण विश्व के बेहतरीन विश्वविद्यालय भी ऑनलाइन परीक्षाएं आयोजित कर रहे हैं और कोई भी बिना मूल्यांकन के सर्टीफिकेट अवार्ड नहीं कर रहा है। इस तर्क में मुख्यत: दो खोट प्रतीत होते हैं। एक, विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में जो व्यवस्था व उनके छात्रों के पास जो साधन हैं, वे हमारे अधिकतर विश्वविद्यालयों से कहीं अधिक बेहतर हैं। इसलिए उनसे तुलना करना या उनकी नकल करना उचित नहीं हैं। हमें अपनी स्थितियों का संज्ञान लेकर निर्णय लेना चाहिए। दूसरा, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ऑनलाइन परीक्षा में नकल की आशंका प्रबल रहती है। इसलिए इस तरह मूल्यांकन करने से क्या लाभ होगा? ऐसा लगता है कि यूजीसी केवल एक औपचारिकता को पूरा करना चाहता है वरन् एक छात्र का सही मूल्यांकन तो परम्परागत परीक्षा के माध्यम से ही होता है, जिसके लिए महामारी के कारण उचित माहौल नहीं है।
हालांकि कुछ राज्यों में छात्रों को परीक्षा केन्द्रों पर बुलाकर परीक्षा ली गई, लेकिन यह अनुभव खतरे से भरा रहा। मध्य प्रदेश में सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर छात्रों को तपती धूप में मैदान में बैठा कर परीक्षा ली गई क्योंकि कमरों में दो गज की दूरी के साथ सभी छात्रों को एडजस्ट नहीं किया जा सकता था। ऐसी भी खबरें आयीं कि धर्म व जाति के आधार पर छात्रों को धूप में बैठाकर परीक्षा ली गई। कुछ छात्र लू लगने से बीमार हुए तो कुछ कोविड संक्रमित भी हुए। संक्रमण के डर से परीक्षा निरीक्षकों ने न छात्रों की तलाशी ली और न निगरानी करने के लिए, उनके पास तक गये। महामारी के कारण औपचारिक परीक्षा व्यवस्था भी दिखावा अधिक रही।
बहरहाल, यूजीसी ने अब परीक्षा खिड़की जुलाई से हटाकर सितम्बर में खोल दी है, लेकिन सवाल यह है कि क्या उस समय तक संक्रमण पर नियंत्रण कर लिया जायेगा? शायद नहीं। महामारी की स्थिति दिन ब दिन चिंताजनक होती जा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि 2021 से पहले वैक्सीन का आना मुश्किल है और जब तक वैक्सीन नहीं आ जाती, तब तक इस वायरस से मुक्ति मिलना असंभव प्रतीत होता है। शायद इसीलिए यूजीसी विकल्प दे रही है कि परीक्षाएं ऑफलाइन, ऑनलाइन या ब्लेंडेड मोड में आयोजित की जायें। अगर किसी कारण से कोई छात्र परीक्षा न दे सके तो विश्वविद्यालय उचित समय पर उसकी विशेष परीक्षा ले। कहने का अर्थ यह है कि परीक्षा संबंधी यूजीसी दिशा-निर्देश औपचारिकताएं पूर्ण करने से अधिक कुछ नहीं हैं। बस, वह यह संदेश नहीं देना चाहती कि छात्र बिना परीक्षा के पास हो गये हैं।                      
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