" राजस्थान का राजनीतिक संकट "  कमज़ोर होता जा रहा है कांग्रेस हाई कमान 

राजस्थान में वही हो रहा है, जिसकी आशंका थी। मध्यप्रदेश की तरह वहां भी भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस सरकार को अपदस्थ कर सत्ता प्राप्ति की कोशिश कर रही है और इस कोशिश में उसका साथ दे रहे हैं सचिन पायलट। पिछले विधानसभा चुनाव के समय पायलट प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे और चुनाव जीतने के बाद वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी बन गए थे। उनको और उनके समर्थकों को लगता था कि उनके कारण ही कांग्रेस की राजस्थान में जीत हुई है, हालांकि वह जीत कोई बहुत बड़ी जीत नहीं थी। कांग्रेस को बहुमत के आंकड़े के पास ही सीटें मिली थीं और बसपा व कुछ अन्य छोटे दलों और निर्दलीयों की सहायता से उसकी सरकार बन गई, परन्तु पायलट मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने और सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया। उसके अलावा वह प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी बने रहे। लेकिन मुख्यमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा हिलोरें मार रही थी। मध्य प्रदेश में उनके मित्र ज्योतिरादित्य के भाजपा में जाने के बाद उनके भी भाजपा में जाने की खबरें उड़ने लगी थीं, लेकिन कोरोना संकट ने इंतजार को लंबा खींच दिया। पायलट देखना चाह रहे थे कि सिंधिया के साथ भाजपा में कैसा व्यवहार होता है। इधर सिंधिया राज्यसभा के सांसद बने और उनके समर्थक विधायकों में से 12 मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री भी बन गए। भाजपा के नेतृत्व ने शिवराज सिंह चौहान के ऊपर सिंधिया को वरीयता दी। ऐसा करके पायलट को संदेश दिया गया कि उनसे जो भी वायदा किया जाएगा, उसे भाजपा पूरा करेगी। फिर क्या था, पायलट ने विद्रोह का बिगुल फूंक डाला। लगता है कि अशोक गहलोत भी उनसे छुटकारा पाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपनी तरफ  से भी कुछ ऐसा कर दिया कि पायलट को विद्रोह करने का बहाना मिल गया। विद्रोह के बाद कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें मनाने की भरसक कोशिश की, लेकिन अशोक गहलोत को लेकर वह सशंकित बने रहे और आखिरकार कांग्रेस ने भी तय कर लिया कि अब उसे सचिन पायलट नहीं चाहिए। उन्हें प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से ही नहीं, बल्कि उपमुख्यमंत्री के पद से भी हटा दिया गया। यह एक बड़ा राजनीतिक खेल है, जिसे जीतने के लिए भारतीय जनता पार्टी अपनी पूरी ताकत लगा रही है, लेकिन राजस्थान मध्य प्रदेश जैसा आसान नहीं है। इसका कारण यह है कि यहां कांग्रेस और भाजपा की सीटों की संख्या में ज्यादा अंतर है, जबकि मध्यप्रदेश में यह अंतर मामूली था। राजस्थान के सभी बसपा विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए हैं, इसलिए भाजपा का खेल थोड़ा और मुश्किल हो गया है। मध्यप्रदेश में सिंधिया समर्थक विधायकों के इस्तीफे के बाद कमलनाथ की कांग्रेस सरकार सीधे अल्पमत में जा रही थी, इसलिए वहां सब कुछ साफ  था। अंकगणित भाजपा के पक्ष में था परन्तु राजस्थान में वैसी स्थिति नहीं है। पायलट के समर्थन में इस समय करीब 20 विधायक दिख रहे हैं। वह 30 का दावा कर रहे हैं, लेकिन उनके इस्तीफे के बाद भी प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार के पास भाजपा से ज्यादा विधायक रहेंगे। इसलिए कांग्रेस वहां मध्य प्रदेश जैसी खराब स्थिति में नहीं है। यदि बदलाव संभव होता नहीं दिखेगा तो पायलट के समर्थक 20 विधायकों में से कई कांग्रेस की ओर लौट भी सकते हैं, क्योंकि राजनीति सत्ता का खेल है और राजनीतिज्ञ हारते हुए खेमे में नहीं जाना चाहेंगे। जो अभी अशोक गहलोत के समर्थन में दिख रहे हैं, वे आगे भी उन्हीं के समर्थन में दिखाई देंगे, ऐसा दावे के साथ कोई नहीं कह सकता। भारतीय जनता पार्टी की आशावादिता इसी पर आधारित है कि अशोक खेमे को और भी कमजोर किया जा सकता है। इसलिए इस समय राजस्थान में राजनीतिक अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है। यह राजनीतिक अनिश्चितता विधानसभा में विश्वास मत हासिल करके ही अशोक गहलोत समाप्त कर सकते हैं। वह अपने बहुमत के प्रति आश्वस्त लग रहे हैं, तो उन्हें जल्द से जल्द विधानसभा के सदन का रुख करना चाहिए और सदन में विश्वास मत पेश करना चाहिए। विश्वास मत में न केवल उनकी सरकार की ताकत का परीक्षण होगा, बल्कि पायलट समर्थक विधायकों का भी परीक्षण हो जाएगा। सबसे पहले तो यह पता चलेगा कि पायलट के समर्थन में अंत तक कौन रहते हैं। यदि उन्होंने कांग्रेसी व्हिप का उल्लंघन किया, तो दलबदल विरोधी कानून के तहत उनकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी और फिर अशोक गहलोत के भविष्य को लेकर उठ रहा संशय कुछ समय के लिए समाप्त हो जाएगा। यदि गहलोत ने विधानसभा में शक्ति परीक्षण के समय तक अपने खेमे को सुरक्षित नहीं रखा, तो उनकी सरकार भी जा सकती है, हालांकि इसकी संभावना बहुत कम है। पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने के कारण पायलट समर्थकों की सदस्यता समाप्त हो जाएगी और फिर शेष बचे विधायकों में तब भी अशोक गहलोत के समर्थकों की संख्या ज्यादा हो सकती है। वैसी हालत में या तो अशोक गहलोत दुबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं या राज्यपाल विधानसभा को भंग कर दुबारा चुनाव करवा सकते हैं। जो भी स्थिति बने, वर्तमान अनिश्चितता को समाप्त करने के लिए सदन पर शक्ति परीक्षण से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। इस विकल्प का इस्तेमाल अशोक गहलोत को न केवल करना चाहिए, बल्कि जल्द से जल्द करना चाहिए। यदि अनिश्चितता लंबी खिंची, तो प्रदेश प्राशसनिक पंगुता का शिकार तो होगा ही, समय बीतने के साथ खुद अशोक गहलोत की राजनीतिक स्थिति कमजोर होती जाएगी। यह तो स्पष्ट है कि कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व बहुत कमजोर हो गया है। अब उसका अनुशासन कांग्रेसियों पर पहले की तरह नहीं चलता और कांग्रेस में सत्ता पिपासुओं की संख्या बहुत ज्यादा हो गई है। ऐसे सत्ता पिपासु किसी भी पार्टी में जा सकते हैं, जहां उन्हें सत्ता या दौलत हासिल हो।  ताज़ा जानकारी के अनुसार सचिन पायलट ने फिलहाल कांग्रेस पार्टी को छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में जाने से इन्कार कर दिया है। (संवाद)