अप-संस्कृति, विलासिता और फूहड़पन

समाज जब विलासतापूर्ण होता जाता है तब ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की वह मान्यता गुम होने लगती है जो कभी भारतीय समाज में काफी प्रचलित रही है। कहानीकार शंकर ने एक लेख में हमारा ध्यान इस तरफ लगाया है कि सामाजिक जीवन में उपयोग के सर्वप्रमुख बन जाने की स्थिति में सोच को सामूहिक की बजाय व्यक्तिक बनना ही था। वृहत्तर मूल्यो और सरोकारों से ध्यान हटाना ही था। बहु-संख्यक समुदाय के एक बहुत बड़े हिस्से में सिर्फ अपने गौरव तक सोचने का उन्माद आना ही था। दूसरों के प्रति उदासीनता पनपनी ही थी। पर पीड़ा में सुख-अनुभव के बोध को जमना ही था और एक उच्छृखल दृष्टिहीन पीढ़ी और एक अनावश्यक उत्साह और आक्रामकता  को उभरना ही था। रॉस एथल की किताब है ‘द डार्कडेंट सोसायटी’ यह प्रसिद्ध अखबार न्यूयार्क टाइम्ज़ के स्तंभकार भी हैं। इस नाम के साथ जोड़ते हैं-हाउ दी बीकेम द विक्टिर्स आफ आवर ओन सक्सेस। जाहिर है कि किताब वर्तमान काल में सम्पन्न समाजों की अवरति के बारे में गहन विवेचना पेश कर रही है। वे कहते हैं कि सम्पन्नता से उत्पन्न द्वास व्यक्ति में अलगाव पैदा कर देता है और वह अपने तथा किसी और के भी दृश्य को भावनात्मक दूरी बना कर देखने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह सुन्न हो जाता है। आज हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो समाज में घटती घटनाओं से तटस्थ होते चले जा रहे हैं। अपने-आप में जी रहे हैं परहित की चिंता किए बगैर। यही अलगाव है, जिसकी साहित्य और कला के क्षेत्र में बार-बार चर्चा हुई है। शंकर अपने लेख में रामनारायण शुक्ल की कहानी का उल्लेख करते हैं, जो सिगरेट कम्पनी के प्रचार के लिए मनुष्य के इस्तेमाल पर केन्द्रित है। वह कम्पनी एक मज़दूर को लाती है जिसे सिगरेट की डिब्बी की शक्ल एक लोहे की डिब्बी में बंद कर दिया जाता है। उसके सिर्फ हाथ पांव खुले हैं ताकि चलना-फिरना संभव होता रहे और प्रचार का काम चलता रहे। एक समय मज़दूर को प्यास लगती है परन्तु डिग्गी में डिब्बी में बंद रहकर वह पानी नहीं पी सकता। वह गिरकर तड़पता है। आसपास के लोग उसे पानी पिलाना चाहते हैं परन्तु डिब्बी से निकालना नामुमकिन, क्योंकि चाबी प्रबंधकों के पास है। पूंजीपति वर्ग के अमानवीय शोषण की कहानी तो है ही, उपभोक्तावाद का असर भी है। वह व्यवस्था जो अपने कामगार के प्रति इतनी निर्मम है, वह अमानवीय व्यवहार करेगी ही। कहानी दर्दनाक है परन्तु दर्द का असर प्रबंधक पर या व्यवस्था पर नहीं है। आज के समाज में जोड़-तोड़, जुगाड़, तिकड़म, आत्म केन्द्रन का प्रचलन ही अधिक है, जबकि मानवीय विश्वास पर हित की भावना कम होती चली जा रही है। सम्पन्नता की चादर में छिपी पतन की अनेक कहानियां रोज़ हमारे सामने आती हैं। इतिहास भी प्रलोभन और हिंसा की कई कहानियां बता सकता है परन्तु आज तकनीक के प्रभाव ने और विस्तार ने चीजो को और घातक बनाने में मदद की है। टैक्नालोजी के अभूतपूर्व जाल में हम एक तरह से जकड़ते जा रहे हैं। कुछ ही समय में एक आभासी संसार हमारे सामने खुलता चला गया है। आज के हृसवाद की समस्या पहले से विकट और जटिल इसलिए भी है कि हम अभी तक सोच नहीं पा रहे कि हम क्या? क्यों हैं? निकलने की राह कहां है? राजनीति तक का सामाजिकरण गायब हो रहा है। स्वप्रदर्शन तक सीमित हो रहा है। आज गांधी नमक सत्यागृह के लिए प्रकट नहीं हो सकते। सम्पन्न सभ्यता की विलासता ने मध्य वर्ग को पहले अचम्भित किया फिर घेर कर असमर्थ कारने का प्रयास किया, जिसमें उसे भरपूर सफलता भी मिली। वाक्-पटुता, स्वप्रदर्शन, आभासी संसार में डूबे रहने ने हमारी परिवर्तनकारी हृदय को अपने काले साय में घेर लिया है, जिससे मुक्ति के आदमी को स्वयं करने हैं।