खत्म नहीं हो रही राजस्थान की राजनीतिक ड्रामेबाज़ी

पिछले कुछ सप्ताह से जिस प्रकार राजस्थान की अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार दुविधा में फंसी हुई है, तथा वहां जिस प्रकार की राजनीतिक ड्रामेबाज़ी चल रही है, उससे एक बार फिर आम लोगों का राजनीति से मोह भंग हुआ है। जिस प्रकार राजनीतिक पार्टियों में खरीदो-फरोख्त की बातें सुनी जा रही हैं, उससे भी मौजूदा राजनीति का कद छोटा हुआ है। लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व जब राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनी थी तो उसी समय इसकी आंतरिक जोड़-तोड़ सर्व-विदित हो गई थी। एक ओर वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत तथा दूसरी ओर युवा नेता सचिन पायलट के गुट आमने-सामने खड़े हो गये थे। पिछले विधानसभा चुनाव सचिन पायलट के प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष होते हुए लड़े गये थे। सचिन पायलट पिछले 7 वर्ष से राजस्थान कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष चले आ रहे हैं। जब ये परिणाम सामने आए तो उस समय जहां कांग्रेस की सरकार बनते हुए दिखाई दी, वहीं गहलोत और पायलट के गुट मुख्यमंत्री के पद को लेकर एक-दूसरे के समक्ष आ खड़े हुए थे। राजस्थान विधानसभा सदन के 200 सदस्य हैं। बहुमत के लिए 101 सदस्यों की आवश्यकता है। जहां कांग्रेस के 107 विधायकों को जीत प्राप्त हुई थी, वहीं भाजपा के 72 विधायक जीते थे। 13 निर्दलीय उम्मीदवार, 2 मार्क्सवादी पार्टी के तथा 3 अन्य छोटी पार्टियों के विधायक थे। 17 दिसम्बर, 2018 को शपथ ग्रहण समारोह से पूर्व इन दोनों गुटों में पूरी खींचतान चली थी तथा एक-दूसरे के खिलाफ नारेबाज़ी भी हुई थी परन्तु अंत में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री तथा उनके साथ सचिन पायलट को उप-मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करवाई गई थी। इसके साथ ही सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी बने रहे थे परन्तु विगत इस सम्पूर्ण काल के दौरान इन दोनों गुटों एवं इन दोनों नेताओं की आपस में सुलह नहीं हो सकी। जहां गहलोत को यह शिकायत रही कि सचिन पायलट भाजपा के साथ मिल कर सरकार के विरुद्ध  योजनाएं बनाते रहते हैं, वहीं पायलट को इस पूरे काल में यह शिकायत रही कि मुख्यमंत्री की ओर से उनको पूरी तरह से दृष्टि-विगत किया जाता है तथा उन्हें किसी भी महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल नहीं किया जाता। यहां तक कि दोनों नेताओं की कई महीने तक आपस में बोलचाल भी नहीं रही तथा न ही उनका किसी कार्य में कोई आपसी तालमेल ही देखा गया। पायलट ने अपनी इस बेरुखी का ज़िक्र कई बार हाईकमान के पास भी किया था, परन्तु कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी इसके बाद भी हरकत में नहीं आईं। चाहे पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र दे दिया था परन्तु अभी भी पार्टी के अहम फैसलों में उनका प्रभाव ही बना हुआ दिखाई देता है। यदि ऐसी बात है तो राहुल गांधी भी राजस्थान के मामले में कोई प्रभावशाली भूमिका निभाने में असमर्थ ही रहे प्रतीत होते हैं। खास तौर पर उस समय जब मध्य प्रदेश में ऐसे शिकवे-शिकायतों के होते हुये ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी से त्याग-पत्र देकर भाजपा में शामिल हो गए थे तथा इसके साथ ही कमल नाथ की कांग्रेस सरकार का भोग पड़ गया था। चाहे राजस्थान में भी वैसी ही स्थितियां पैदा हो चुकी हैं परन्तु सचिन पायलट को प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और उप-मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया गया है। सचिन पायलट ने बेशक भाजपा में शामिल होने से अभी तक इन्कार ही किया है हालांकि आज भी पायलट सहित ये 18 विधायक विद्रोही तेवर दिखा रहे हैं। पिछले दिनों विधानसभा अध्यक्ष की ओर से इन 18 असंतुष्ट विधायकों को अयोग्य ठहराने का नोटिस मिलने के बाद तथा पायलट गुट की ओर से इस संबंध में राजस्थान हाईकोर्ट में अपील दायर करने से कुछ दिनों तक चल रहा यह राजनीतिक नाटक ठहर गया प्रतीत होता है परन्तु जिस प्रकार की कड़ी शब्दावली मुख्यमंत्री गहलोत पायलट के संबंध में प्रयुक्त कर रहे हैं, तथा उन्हें नकारा और निकम्मा तक कह रहे हैं, उससे प्रदेश की कांग्रेस पार्टी की स्थिति और भी बिगड़ गई है। ऐसी स्थिति में सचिन पायलट के पार्टी में वापिस लौटने की सम्भावना लगभग खत्म हो गई है। चाहे वर्तमान में तो कांग्रेस की गहलोत सरकार को और कुछ देर जीवन-दान मिलते दिखाई देता है परन्तु इस समूचे घटनाक्रम ने कांग्रेस के प्रभाव को आघात पहुंचा कर इसके ग्राफ को और भी नीचे ला दिया है। कांग्रेस की इस फूट के कारण आने वाले समय में अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली सरकार के लिए अस्थिरता भी बनी ही रहेगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द