भारत-चीन-अमरीका त्रिभुज राजनीति 

हमारे मित्र विन्नी मदान की बेटी तनवी मदान ब्रुक्लिन इंस्टीच्यूट यूएसए के इंडिया प्रोजैक्ट की डायरैक्टर है उसकी नवीनतम पुस्तक निर्णायक त्रिभुज (फेटफुल ट्राइएंगल) चीनी राजनीति के प्रसंग में भारत और अमरीका के बीच राजनीतिक संबंधों का विश्लेषण करती है। इससे स्पष्ट होता है कि अमरीका (संयुक्त राज्य अमरीका) को राजनीतिक स्तर पर वैश्विक संतुलन बनाए रखने के लिए भारत के सहयोग की कितनी आवश्यकता है यह भी है कि इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अमरीका कहां तक जाने के लिए तैयार है।तनवी अपनी धारणा चीन की धक्कड़शाह विस्तारवाद की नीति के साथ शुरू करती है चीन की यह नीति केवल भारत या नेपाल तक ही सीमित नहीं बल्कि जापान, ताइवान, आस्ट्रेलिया और कनाडा के प्रसंग में चीन की हांककांग की बीच गतिविधियां और दक्षिण में चीन का भ्रमण इसकी उक्त नीति का प्रमुख परिणाम है। तनवी की रचना भारत को एक ओर से सुचेत रहने का निमंत्रण देती है। वह बताती है कि इसके प्रति चेतन रहना ही काफी नहीं। भारत को अपने दावों के ऊपर दृढ़ता के साथ डट कर पहरा देने की आवश्यकता है। तनवी की ओर से अपनी पुस्तक में प्रस्तुत खोज पर विश्वेषण चीन की विस्तारवादी धारणा को वैश्विक चिन्ता की जड़ दर्शाते हैं। अमरीका का भारतीय राजनीति के प्रति ताज़ा व्यवहार इसकी पुष्टि करता है। लेखिका का मत है कि अधिकतर सभी शोधकर्ता भारत-अमरीका संबंधों को पाकिस्तान और सोवियत देश के प्रसंग में देखते हैं जबकि इन संबंधों की थाह पाने के लिए चीनी प्रसंग सबसे अधिक महत्व रखते हैं। भारत की चीन के प्रति मामूली सी बेरुखी भी अमरीका को भारत की ओर खींचती है इसीलिए जब कभी वाशिंगटन को बीजिंग के प्रति भारत का झुकाव ज़रा सी ही बढ़ता नज़र आता है तो अमरीका-भारत संबंधों में दरार आ जाती है। जहां तक भारत का संबंध है चीन की विस्तारवादी नीति से निपटने के लिए भारत 1962-63 से ही अमरीका के  सहयोग की अपेक्षा करता रहा है। भारत के ऐसा सहयोग अन्य देशों से भी ज़रूरी चाहिए था जोकि सोवियत संघ की ओर से 1971 के बाद प्राप्त होना आरंभ हुआ। जहां तक ब्रिटेन का संबंध है उन्होंने भी भारत-चीन संबंधों की बढ़ती-कम होती सांझ को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया।तनवी मदान की ओर से दिए उक्त हवालों के बिना पर चीन के भारत के प्रति 15 जून, 2020 वाले व्यवहार को एक चेतावनी के तौर पर लेना आवश्यक है तथा भारत को किसी भी संयुक्त सोच वाले देश से सहायता मांगते हुए शर्माने की आवश्यकता नहीं। साझी सोच अपनाए बिना विस्तारवादी धारणा वाले चीन को ठीक रास्ते पर लाना संभव नहीं। जहां तक अमरीका का संबंध है,लेखिका के अनुसार अमरीका ऐसी सहायता देने से पीछे नहीं हटेगा। लेखिका के मत के अनुसार 15 जून वाले भारत-चीन सीमा पर हुए व्यवहार ने चीन के दिमाग में एक बात तो डाल ही दी है कि चीन का  बहुत सारे मोर्चों पर खुल कर सफल होना संभव नहीं। चीन कौन से मोर्चो से पीछे हटता है, समय बताएगा। पुस्तक का मूल महत्व तनवी मदान की ओर से अपने पैतृक देश भारत को चीन की चालों से सचेत करना भी है और अमरीका की ओर से मिलने वाले संभावित सहयोग से परिचित करवना भी, इसका स्वागत होना चाहिए। 
नवां ज़माना तब और अब
मैं खालसा कालेज माहिलपुर (होशियारपुर) में पढ़ता था जब 1955 के मध्य क्षेत्र के अग्रणी साहित्य बिक्रेता अमर सिंह निडर ने नवां ज़माना के अस्तित्व में आने की खबर दी थी तब इसकी भाषा मिलीजुली उर्दू थी तथा नाम था ‘नया ज़माना’। अमर सिंह ने मेरे जैसे विद्यार्थिओं को प्रेरणा देने के लिए यह भी कहा था कि इसका सम्पादन ‘प्रीत लड़ी’ वाला गुरबख्श सिंह करता है। मैं उसके पास से प्रीत लड़ी लेता था और वह मुझे सोवियत देश आदि पढ़ने के लिए दे देता था जो कि  मैं पढ़ कर उनको वापस कर देता था। ‘नया ज़नाना’ भी इसी तरह देखता/पढ़ता और वापस करता रहा। हम इस समाचार पत्र के पक्के पाठक न होने का बावजूद के इसकी पहुंच और धारणा से अवगत थे। हम सें मेरा अभिप्राय मेरे जैसे अन्य भी जिनमें चन्दसूवाला दर्शन सिंह हीर भी शामिल था जो कि अब विदेशी हो चुका है। हमारे देखते-देखते ‘नया ज़माना’ की कमान गुरबख्श सिंह प्रीत लड़ी के हाथों से निकल कर सोहन सिंह जोश को हाथों में चली गई, जिन्होंने इसकी पहले वाली धारणा पर खूब पहरा दिया। जोश की कमान के तले ही यह समाचार पत्र 1956 में गुरमुखी लिपी में ‘नवां ज़माना’ नामकरण से छपना शुरू हुआ जो आज तक छप रहा है। बीए की परीक्षा देकर मैं दिल्ली चला गया। पता चला कि इस परीक्षा की कमान दिल्ली निवासी पंजाबी कवि प्रीतम सिंह सफीर के छोटे भाई जगजीत सिंह आनंद के पास चली गई है। यह भी कि बाबा गुरबख्श सिंह बन्नुआना इसकी रूह-ए-रवां हैं। अखबार पर तो कभी-कभार ही नज़र आता था लेकिन खबर मिलती रहती। जगजीत सिंह आनंद के साथ वास्ता बहुत बार अखबार के कारण तो नहीं लेकिन सोवियत रूस की प्रचार पोथियों के पंजाबी अनुवाद के कारण पढ़ता रहता। वह तेज़तर्रार और बहुपक्षीय हस्ती थे। उचित पंजाबी शब्दावली का माहिर एक समागम में कामरेड ए.के. गोपालन की ओर से कम्युनिस्ट पार्टी की उपलब्थियों के आरंभ किए गए संघर्ष से संबंधित जाद्दोजहद के लिए प्रयोग किए गए किसी अंग्रेज़ी भाषा के वाक्य को पंजाबी भाषा में समझाते समय उसकी ओर से प्रयोग किया गया वाक्य मुझे आज तक याद है। वह यह है कि इन शिखरों को छूने के लिए पार्टी ने बड़ा संघर्ष किया है लेकिन पैर के नीचे बटेर नहीं आया। मेरे दिल्ली से चंडीगढ़ आ जाने के बाद ‘नवां ज़माना’ का रविवारीय अंक मुझे लगातार मिल रहा है। समय लगे तो मैं जालन्धर वाले कार्यालय में भी दस्तक दे आता हूं। आनंद के जीवित रहते और उनके बाद जतिन्द्र पन्नू ने समाचार पत्र की दिशा और दृष्टिकोण को आंच नहीं आने दी। इस वर्ष के आरंभ में इसका सम्पादन चंद फतेहपुरी के हाथों में चले जाने तक। समाचार पत्र का सात दशकों का सफर ज़िन्दाबाद! 

अंतिका
(लोक बोली)
पिप्पल दिया पत्तिया वे, 
केही खड़-खड़ लाई आ
पत्त झड़े पुरणे वे, 
रुत नवयां दी आई आ।