सत्संग की महिमा

श्रीमद् भागवत में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, सत्संग के समान संसार में मुझे वश में करने का अन्य कोई उपाय नहीं है। यहां तक कि योग, तप, तपस्या, व्रत, यज्ञ, तीर्थ, यम-नियम भी सत्संग के समान वश में करने में असमर्थ हैं। यह बात एक युग की नहीं, बल्कि सभी युगों की है।
सत्संग के प्रभाव से ही बलि, बाणासुर, जाम्बवान, गजेंद्र, वृत्तासुर, ब्रज की गोपियां मुझे प्राप्त कर सके हैं। इन लोगों ने न तो वेदों का स्वाध्याय किया था और न ही तपस्या, केवल सत्संग के प्रभाव से ही मुझे प्राप्त हो गये थे। यहां तक कि ब्रज के पशु, गायें, कपिला, नाग, यमलाजरुन वृक्ष आदि मूढ़़ थे किंतु सत्संग के कारण इनका भी कल्याण हुआ और वे कृत्य-कृत्य हो गए।भगवान श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि बड़़े-बड़़े साधनों, योग, संध्या पूजा-पाठ-दान, स्वाध्याय, संन्यास आदि द्वारा जो मुझे प्राप्त नहीं कर सकते, उन्हें मैं सत्संग द्वारा सुलभ हो जाता हूं। गोपियां जो सब प्रकार से साधनहीन थीं, सत्संग के प्रभाव से ही उन्होंने मुक्त होकर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया। इसलिए हे उद्धव, तुम श्रुति-स्मृति, प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि का परित्याग कर सर्वत्र मेरी ही भावना से ओत-प्रोत होते हुए आत्मस्वरूप एक मेरी ही शरण में आ जाओ। इससे तुम्हारा कल्याण होगा। जीवन का कौन-सा समय सार्थक है? जितना समय सत्संग सुनने में बिताया, उतना समय सार्थक हुआ। एक उदाहरण है: एक व्यक्ति एक गांव में जा रहा था तो रास्ते में श्मसान भूमि से गुज़रते वक्त उसने एक विचित्र बात देखी कि वहां पत्थर के शिलालेख पर मृतक की आयु लिखी थी। आश्चर्य यह था कि किसी पर आयु आठ माह तो किसी पर सात वर्ष, किसी पर पंद्रह साल तो किसी पर इक्कीस। इससे ज्यादा आयुवाला मृतक कोई नहीं था। उसने सोचा कि इस गांव में लोग अल्पायु में ही मर गये होंगे। सबकी अकाल मृत्यु ही होती होगी। जब वह गांव के भीतर गया तो लोगों ने खूब सेवा सत्कार आदर किया और वह वहीं रहने लगा लेकिन उसके भीतर यह भय सताने लगा कि वहां रहने पर उसकी भी जल्दी ही मौत हो सकती है। इसलिए उसने वह गांव छोड़ने का निश्चय किया। वापिस चलने लगा तो गांव वालों ने पूछा-क्या हमसे कोई गलती हुई या परेशानी है। इतनी जल्दी क्यों, अभी चार रोज़ ही हुए कि आप गांव छोड़़कर क्यों जा रहे हैं ?तब उस व्यक्ति ने अपने मन की आशंका बतायी कि यहां के लोग ज्यादा नहीं जीवित रहते इसलिए मुझे यह भय सता रहा है कि मैं भी कहीं जल्दी ही मृत्यु को प्राप्त हो जाऊं। श्मशान भूमि पर देखे शिलालेख का भी ज़िक्र किया। तब सभी हंस पड़़ और लोगों ने बताया कि हमारे गांव में एक नियम है कि जब कोई व्यक्ति सोने के लिए बिस्तर पर जाता है तो सबसे पहले वह यह हिसाब लगाता है कि उसने कितना समय सत्संग में बिताया, कितना समय अच्छे कार्यों में सेवा की और प्रतिदिन एक डायरी में लिख लेते हैं। मृत्यु होने पर वह डायरी निकाली जाती है और फिर उसके जीवन के उन सभी घंटों को जोड़़ा जाता है और उसके आधार पर ही उसकी आयु निकाली जाती है। यही आयु सही मायने में है और उसे शिलालेख पर लिख दिया जाता है।अर्थात व्यक्ति का जितना समय सत्संग में बीता, सेवा-भजन में बीता, वही तो उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ सार्थक समय है और वही उसकी उम्र है। सत्संग की महिमा है ही निराली। इसीलिए संत कबीर कहते हैं, ‘जो सुख साधु-संग में, वह वैकुण्ठ न होय।’ साधु भी सच्चा होना चाहिए, तभी तो सत्संग का प्रभाव जीवन में पड़़़ता है अन्यथा ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़़ा’ वाले ढोंगी-पाखंडी साधुओं से भला क्या लाभ? जिसका तन-मन-वस्त्र प्रभु-प्रेम, प्रभु-स्वरूप व आनंद के रंग में रंग गया है वही, साधु है। उनकी वाणी सीधे हृदय-द्वार पर दस्तक देती है और हृदय गद्-गद् होकर झूमने लगता है, आनंद-विभोर हो जाता है। ऐसे सच्चे साधु-महात्मा संत सद्गुरु का मिलना बहुत बड़़े सौभाग्य का विषय है।‘भेष देख मत भूलिए, पूछ लीजिए ज्ञान’ अक्सर हम लोग भेष देखकर झूठे साधुओं के चक्कर में पड़़कर अपना सब कुछ गंवा देते हैं। विवेक की आंखें खोलो, ज्ञान द्वारा सच्चे साधु-संत-गुरु की पहचान करनी चाहिए। आपका अंत: करण यह पहचान बताएगा, मन-बुद्धि की क्षमता नहीं है सच्चे साधु को पहचानने की। सत्संग की महिमा है कि आपको कोई कर्मकांड करने की ज़रूरत नहीं और न ही भक्ति के उन साधनों का उपयोग करना है जिन्हें हम आज कर रहे हैं, बल्कि हृदय के द्वारों को खोलना है जहां प्रभु विराजमान हैं और सहज में, सरलता से दर्शन प्राप्त होते हैं। हमारे अंदर आनंद का सागर है। उसमें गोता लगाना है और यह मात्र सत्संग के प्रभाव से संभव है। ‘बिना सत्संग मैं मिलता नहीं’ श्री कृष्ण का यह कथन आज भी अर्थपूर्ण व सार्थक है।

(सुमन सागर)