हिन्दी का स्थान लेती जा रही है हिंग्लिश !

सरकार ने नयी शिक्षा नीति के मसविदा यानि दस्तावेज़ को कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर लिया है। अब चारों ओर इस बात पर बहस हो रही है कि यह नयी नीति क्या हमारी बदहाल शिक्षा-व्यवस्था को सुधार पाएगी? शिक्षा-शास्त्रियों, समाज-शास्त्रियों और अन्य समीक्षकों का ज़ोर यह अनुमान लगाने पर है कि इस नयी नीति से स्कूलों के ढांचे में कैसे परिवर्तन होंगे, नयी शिक्षा संबंधी भाषा-नीति की प्रकृति क्या है? उच्च शिक्षा देने वाले कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का स्तर सुधर पाएगा या नहीं? नयी नीति शिक्षा में निजीकरण और बाज़ारीकरण की मात्रा बढ़ेगी या कम होगी, और शिक्षा में स्वायत्तता क्या नाममात्र की रह जाएगी? कहना न होगा कि ये सभी सवाल विचार करने योग्य हैं। लेकिन, इन सभी से ज़्यादा बड़ा एक और सवाल है जिस पर गौर करने से हर ‘समझदार’ और ‘संतुलित’ समीक्षक कतरा रहा है। इस सवाल के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया जा रहा है। इससे पहले कि इस स्तम्भ में इस प्रश्न पर चर्चा की जाए, इसकी पृष्ठ-भूमि पर प्रकाश डालना आवश्यक है। सुधिजनों को याद होगा कि जुलाई के मध्य में मीडिया मंचों पर एक बहस चली थी कि मातृभाषा होने के बावजूद हिन्दी में इतनी बड़ी संख्या में छात्रों के फेल होने की वजह क्या है? बहस का आधार था उत्तर प्रदेश बोर्ड इम्तिहानों का परिणाम। इसके अनुसार दसवीं कक्षा में 18.3 प्रतिशत परीक्षार्थी और बारहवीं कक्षा में 11.3 प्रतशित परीक्षार्थी हिंदी के पेपर में फेल हो गए। और, ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ। पिछले कई सालों से हिंदी की परीक्षा में छात्र-छात्राओं के नाकाम होने की संख्या बढ़ती जा रही है। मीडिया में आने वाली इस तरह की रपटों की एक सतही जांच भी की जाती है। इस जांच से एक तथ्य यह निकल कर आया कि हिंदी के छात्र अपनी उत्तर-पुस्तिकाओं में हिंदी के बजाय ‘हिंग्लिश’ के शब्दों का इस्तेमाल करते पाए गए और इस चक्कर में उनके नंबर कट गए। मसलन, बीमारी की जगह उन्होंने ‘डिज़ीज़’, आत्मविश्वास की जगह ‘कां़िफडेंस’, कानून की जगह ‘रूल’ और सुंदर की जगह ‘गुड’ लिखा। इससे क्या संकेत मिलता है? इससे पता यह चलता है कि रोज़मर्रा की साधारण बातचीत में हिंदी बोलते-बोलते अंग्रेज़ी के शब्दों के इस्तेमाल की साधारण सी लगने वाली आदत धीरे-धीरे उस मुकाम तक पहुंच गई है जब लिखाई-पढ़ाई के दायरों में भी सतर्कतापूर्वक हिंदी या अंग्रेज़ी अलग-अलग इस्तेमाल करने के बजाय नयी पीढ़ी हिंग्लिश का प्रयोग करने लगी है। अर्थात, हिंग्लिश ने एक साधारणत: बोली जाने वाली ‘क्रियोल’ या ‘पिडगिन’ (खिचड़ी भाषाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली संज्ञाएं) न हो कर बाकायदा एक लिखित भाषा बनने की तरफ अपने शुरुआती कदम बढ़ा दिये हैं। यह एक ऐसी भाषा होगी जिसमें वाक्य-रचना और व्याकरण हिंदी का होगा, लेकिन हिंदी के तकनीकी रूप से कठिन ही नहीं, बल्कि अति साधारण शब्दों की जगह भी अंग्रेज़ी के शब्दों का इस्तेमाल किया जाएगा। इसके क्या परिणाम हो सकते हैं—यह सोचने की बात है। इसका पहला परिणाम तो यह निकला है कि अंग्रेज़ी के प्रचार-प्रसार के विश्व-व्यापी तंत्र (जो ब्रिटिश कौंसिल और यूएस इंफॉर्मेशन सर्विस के नेतृत्व में पूरी दुनिया में अरबों-खरबों पाउंडों और डॉलरों के व्यय के दम पर लगातार चलता रहता है) ने एक सुचिंतित परियोजना के तौर पर हिंग्लिश को एक लिखित भाषा बनाने की बौद्धिक मुहिम शुरू कर दी है। इसके लिए पिछले कई सालों से सम्मेलन और सेमिनार वगैरह आयोजित किये जा रहे हैं। ज़ाहिर है कि अगर हिंग्लिश एक लिखित भाषा के तौर पर हिंदी-भाषी समाज में अपना हस्तक्षेप करती है तो वह केवल हिंदी की जगह ही लेगी। यानी देश में एक लम्बी प्रक्रिया के तौर पर दो तरह की अंग्रेज़ियां हो जाएंगी—एक अंग्रेज़ी और एक हिंग्लिश। नतीजे के तौर पर अंग्रेज़ी से जुड़े भारतीय समाज का आकार तेज़ी से बढ़ता चला जाएगा। आज मेरे जैसे लोग जो विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में भारतीय भाषा कार्यक्रम के तहत समाज-विज्ञान को हिंदी में लाने की कोशिशें कर रहे हैं, अपना महत्व खो देंगे। क्योंकि, तब इस तरह की संस्थाओं में हिंग्लिश कार्यक्रम चलाये जाने लगेंगे। पाठ्यक्रम के तौर पर हिंदी पढ़ने वालों की संख्या कम से कम होती चली जाएगी। कुछ हिंदी अ़खबारों में वैसे ही माता-पिता की जगह ‘पेरेंट’ लिखा जाने लगा है। दिल्ली से निकलने वाले एक अ़खबार में आज ही नौकरी की जगह ‘जॉब’, सक्रिय की जगह ‘एक्टिव’ और मुख्यमंत्री की जगह ‘सीएम’ का प्रयोग किया गया है। अब अगर कोई दसवीं-बारहवीं का छात्र इस अ़खबार को पढ़ेगा तो उसकी हिंदी बेहतर होगी या हिंग्लिश? जो हिंग्लिश यूं ही बेख्याली में बोली जाती थी, और जिसे लिखने में परहेज़ किया जाता था, वह अब सायास लिखी जा रही है। ज़ाहिर है कि इस नज़ारे के बनने में देर तो लग सकती है, लेकिन अगर जो चल रहा है, वही चलता रहा तो अंतिम परिणाम यही निकलेगा। हिंदी केवल तकनीकी तौर पर रह जाएगी। यहां स्पष्ट करना ज़रूरी है कि हिंदी में अंग्रेज़ी या किसी दूसरी भाषा के शब्दों के आने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। सभी भाषाएं इसी तरह से विकसित होती हैं। लेकिन, वे दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपने शब्दों को छोड़ कर नहीं अपनातीं। दूसरी भाषाओं के शब्दों को धीरे-धीरे आत्मसात कर लेती हैं, और फिर हम उन्हें अपनी ही भाषा के शब्दों की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं। मसलन, कुर्ता तुर्की शब्द है, पाजामा फारसी शब्द है, चर्चा भी फारसी शब्द है, कारतूस फ्रांसीसी से आया है, तौलिया और तंबाकू पुर्तगाली से मिला है, ह़फ्ता, हवा और कातिल जैसे शब्द तुर्की मूल के हैं। स्टेशन, बोर्ड, इंजीनियर, और न जाने कितने शब्द अंग्रेज़ी से लिये गए हैं। लेकिन हम इन सभी शब्दों को हिंदी का मान कर ही आराम से इस्तेमाल करते हैं। ये शब्द क्रियोलीकरण नहीं करते, बल्कि हिंदी को समृद्ध करते हैं। क्या नयी शिक्षा नीति इस समस्या पर विचार करती है? पहले छह साल हिंदी में या मातृ-भाषाओं में पढ़ाने का तब तक कोई लाभ नहीं होने वाला, जब तक इस समस्या का कोई न कोई समाधान न तलाश लिया जाए। लेकिन, इसके लिए कम से कम इस समस्या को समस्या तो मानना पड़ेगा।