...जब डरती हैं पुरानी धारणाएं

हमारे पढ़े लिखे मित्र अपने ज्ञानवर्द्धन के लिए वैज्ञानिक लेखों की तरफ कम ध्यान देते हैं, जबकि विज्ञान ने केवल चमत्कार नहीं किए, चमत्कार के वास्तविक आधार और तथ्यपरकता से बार-बार अवगत करवा कर हमारी आंखों से पर्दा हटाया है। जिस किताब की बात आज की जा रही है वह है ‘महा अभियान की गाथा 78 डिग्री’। इसके रचनाकार हैं अरुण कुमार असफल। अरुण कुमार हिन्दी साहित्य में एक जाने-माने कथाकार का दर्जा रखते हैं। देहरादून में रहते हैं। ‘पो फटने से पहले’, ‘पांच का सिक्का’ उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं। क्या मैं अन्दर आ सकता हूं। एक उपन्यास ही उनके नाम है। साहित्य के रचनाकार और कला में गहरी रुचि रखने वाले इस लेखक की वैज्ञानिक सूझ-बूझ काबिले तारीफ है। लगभग सवा दो सौ साल पहले इस देश में पृथ्वी का आकार ज्ञात करने का बहुत वैज्ञानिक अभियान सम्पन्न हुआ था, जिसमें लगभग आधी सदी लग गई थी। यह उस सदी का सबसे बड़ा वैज्ञानिक अभियान था। यह पुस्तक उसी कथा को व्यक्त करती है। 
‘कहानी में न्यूटन’ अध्याय में कही गया है कि चालीस हज़ार साल पहले से ही मनुष्य ग्रहों और नक्षत्रों के बारे में जानकारियां जुटाने में दिलचस्पी रखता था। ज्यों-ज्यों उसकी जानकारियां समृद्ध और अद्यतन होती रहीं, वह और अधिक जिज्ञासु होता गया था। एक दिन उसकी जिज्ञासा उस ग्रह का सही-सही आकार जानने की हुई, जिस पर वह रहता था। शुरुआत में अवश्य मनुष्य ने किसी बड़े मैदान से या खेतों से जहां तक नज़र जाती थी, देखा होगा तो उसका अनुमान रख होगा कि धरती एक समतल मैदान है। दूर क्षितिज की तरफ देख सोचा होगा कि वह आकाश को छू रही है। पृथ्वी के आकार के संबंध में आरंभिक अवधारणा इसके समतल होने की ही थी। युग बदला विभिन्न राज्यों में रह रहे लोगों की जिज्ञासा बनी होगी कि जहां वे रहते हैं, वह देश कहां स्थित होगा? सभ्यता के विकास में वह क्रम बहुत बाद में आया जब मनुष्य ने नक्शा बनाने की कला विकसित की। पहले केवल अनुमान का ही सहारा रहा होगा। लेखक के अनुसार सभी में अपने-अपने देश को धरती के केन्द्र में रखने की होड़ लगी थी। भू-मध्य रेखा या विषुवत रेखा के करीब पड़ने के कारण ही प्राचीन हिन्दू साहित्य में भारतीय भू-भाग को पृथ्वी के केन्द्र में बताया गया तो इंग्लैंड तथा स्केडियन देश जैसे फिनलैंड, नार्वे आदि के धर्माचार्य भी अपने-अपने देश को पृथ्वी के केन्द्र में समझते थे। चीनी तो अपने पूरे साम्राज्य को ही पृथ्वी के केन्द्र में मानते थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ग्रीक के एक दार्शनिक एनाक्सिमेंडर ने पृथ्वी को बेलन कार बताया था और यह पृथ्वी ब्रह्मांड में मुक्त रूप से तैरती है। बाद में जब मनुष्य समुद्र में नावों पर घूमने लगा... तब उसे अनुभव हुआ कि पृथ्वी का को सिरा ही नहीं अर्थात् गोल है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ही दार्शनिकों पाइथागोरस तथा थेल्स ने जोरदार तरीके से पृथ्वी के गोल होने की बात कह दी। चाल्देयिन लोग, जिन्होंने मेसोपोटामिया में दसवीं से छठी ईसा पूर्व तक शासन किया था, पृथ्वी को गोल मानते थे। यह पूरा कार्य कितना कठिन रहा होगा परन्तु लगातार पुरानी धारणाएं टूटती रहीं और नयी धारणाएं बनती रहीं। किताब प्रत्येक विवरण का उल्लेख करती है और वैज्ञानिक आधार स्पष्ट करती जाती है, पठनीय तो है ही।