जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने हेतु कदम उठाए जाएं

जम्मू-कश्मीर में विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को हटाने और राज्य को दो केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों में विभाजित किए जाने को एक वर्ष व्यतीत हो गया है। गत वर्ष 5 अगस्त को भारतीय जनता पार्टी ने संसद में अपने बहुमत का लाभ उठाते हुए ये कदम उठाये थे। उस समय जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू था और विधानसभा को भी निलम्बित किया हुआ था। धारा 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की पृष्ठ भूमि यह थी कि देश के विभाजन के समय महाराजा हरी सिंह से उस समय की केन्द्र सरकार द्वारा किए गए एक समझौते के अधीन 70 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाला यह राज्य भारत का हिस्सा बना था। इस समझौते की भावना के तहत ही जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के अधीन विशेष दर्जा दिया गया था।परन्तु समय का ज्वलंत मुद्दा यह है कि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने और राज्य को दो केन्द्र शासित राज्यों में विभाजित किए जाने के बाद इस राज्य के लोगों को क्या प्राप्त हुआ है? उनकी इस समय की स्थिति क्या है? इस पक्ष से देखते हैं तो बहुत ही चिंताजनक बातें सामने आती हैं। राज्य से धारा 370 हटाये जाने के बाद 40 हज़ार से अधिक सैनिक और अर्द्ध-सैनिक सुरक्षा सेनाओं के जवान तैनात करके एक तरह से राज्य को खुली जेल में तबदील कर दिया गया था। महीनों तक कर्फ्यू और धारा 144 लागू करके हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधियां बंद कर दी गई थीं। तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती  सहित सैकड़ों राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को पब्लिक सेफ्टी और अन्य कड़े कानूनों के तहत राज्य में और राज्य से बाहर नज़रबंद कर दिया गया था। लम्बे समय तक टैलीफोन और इंटरनेट सेवाएं ठप्प रखी गईं। समाचार पत्रों, वैबसाइटों और अन्य सूचना हासिल करने वाले साधनों पर पाबंदियां लगाई गईं। देश में तो तालाबन्दी कोरोना वायरस के कारण 24 मार्च को लगी थी परन्तु जम्मू-कश्मीर में तालाबन्दी एक तरह से 5 अगस्त, 2019 को ही लागू हो गई थी। इसका परिणाम यह निकला कि राज्य में राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ ही सभी औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियां भी ठप्प हो कर रह गईं। क्योंकि औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियों को चलाने के लिए आज के युग में इंटरनेट, टैलीफोन और संचार की अन्य सुविधाओं की बहुत ज़रूरत होती है। इनके न होने से में व्यापार और औद्योगिक गतिविधियों को जारी रखना लगभग असम्भव होता है। इस कारण राज्य के औद्योगिक और व्यापारिक क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर के व्यापार और औद्योगिक चैम्बर के अनुसार 40 हज़ार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ। 4 लाख 96 हज़ार नौकरियां समाप्त हो गईं। इनमें 50 हज़ार के लगभग नौकरियां  हस्तशिल्प से संबंधित थीं। 30 हज़ार के लगभग नौकरियां ढाबों से संबंधित थीं। इंटरनेट और संचार के साधनों को ठप्प किये जाने से 10 हज़ार अन्य लोग, जो ये सेवाएं उपलब्ध करवाने से संबंधित थे, बेरोज़गार हो गए। राज्य के पर्यटन से संबंधित क्षेत्र में 86 प्रतिशत की गिरावट आई। इस अकेले क्षेत्र में ही 1 लाख 44 हज़ार 500 के लगभग नौकरियां खत्म हो गईं।इसके अलावा कोरोना वायरस के दौरान जबकि देश भर के विद्यार्थी स्कूलों से लेकर कालेज और यूनिवर्सिटी स्तर की शिक्षा इंटरनेट का इस्तेमाल करते हुए ऑनलाइन ग्रहण कर रहे थे और इस उद्देश्य के लिए 4 जी जैसे तेज़ स्पीड इंटरनेट की ज़रूरत है तो जम्मू-कश्मीर के लाखों ही स्कूली और उच्च शिक्षा हासिल कर रहे विद्यार्थी तेज़ इंटरनेट की सुविधाओं से वंचित हैं। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद कुछ महीने पूर्व ही राज्य में सिर्फ 2 जी इंटरनेट की सुविधा ही उपलब्ध करवाई गई है, जिस कारण विद्यार्थियों को इंटरनेट द्वारा वेबसाइटों से  शिक्षा सामग्री डाऊनलोड करने और देश-विदेश की यूनिवर्सिटियों से अपना सम्पर्क रखने में बड़ी परेशानी हो रही है। यहां तक उनको यूनिवर्सिर्टियों और कालेजों में दाखिले हेतु फार्म भरने में भी कठिनाई पेश आ रही है। दूसरी  केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह पक्ष पेश कर रही है कि सुरक्षा के पक्ष को मुख्य रखते हुए जम्मू-कश्मीर में अभी और समय के लिए 4 जी इंटरनेट बहाल नहीं किया जा सकता। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आने वाले कुछ  महीनों में भी जम्मू-कश्मीर के विद्यार्थियों को 4 जी इंटरनेट की सेवाएं नहीं मिलेंगी, जबकि इस वर्तमान वर्ष का भी 8वां महीना शुरू हो गया है और आगामी महीनों में केन्द्र और राज्य सरकारें स्कूल, कालेज और यूनिवर्सिटियां खोलने की सम्भावनाएं तलाश रही हैं और विद्यार्थियों की परीक्षा लेने की भी कोई न कोई व्यवस्था बनाने संबंधी विचार कर रही हैं। ऐसी परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर के विद्यार्थियों का भविष्य क्या होगा, इस को आसानी से समझा जा सकता है।इस समय चाहे नैशनल कांफ्रैंस के वरिष्ठ नेता फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और कुछ अन्य राजनीतिक नेताओं को रिहा किया जा चुका है परन्तु महबूबा मुफ्ती सहित सैकड़ों ही राजनीतिक और सामाजिक नेता जिनमें बड़ी संख्या  नवयुवकों की है, को अभी भी नज़रबंद रखा गया है। कई प्रसिद्ध नेताओं को उनके घरों में ही नज़रबंद किया हुआ है, जिनमें महबूबा मुफ्ती के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स़ैफुद्दीन सोज़ भी शामिल हैं। सोज़ की रिहाई के लिए उनकी पत्नी ने सुप्रीम कोर्ट तक सम्पर्क किया था परन्तु सुप्रीम कोर्ट में जम्मू-कश्मीर की सरकार स्पष्ट तौर पर मुकर गई  उसने स़ैफुद्दीन सोज़ को घर में नज़रबंद किया हुआ है, जबकि स़ैफूद्दीन सोज़ जम्मू-कश्मीर के मीडिया के समक्ष अपने घर की दीवार से ज़ोर-ज़ोर से कह रहे हैं कि वह अब भी हिरासत में हैं। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के बयान को सही मान कर स़ैफुद्दीन सोज़ की पत्नी की याचिका को रद्द कर दिया।सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मैदान बी लोकोर भी अदालत के ऐसे व्यवहार पर प्रश्न-चिन्ह लगा चुके हैं। और भी बहुत से प्रसिद्ध कानूनविद और शहरी स्वतंत्रता हेतु कार्य करने वाले नेता इस बात पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में और सुप्रीम कोर्ट में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हिरासत संबंधी अनेक ही केस विचाराधीन पड़े हैं, जिन पर न तो जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट और न ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्राथमिक तौर पर सुनवाई की जा रही है, जबकि लोगों के मानवाधिकारों की सुरक्षा करना किसी भी लोकतंत्र और स्वतंत्र देश की न्यायपालिका का प्रथम कर्त्तव्य होता है।एक वर्ष का समय बीत जाने के बाद भी जम्मू-कश्मीर के लोगों की शहरी स्वतंत्रता पर पाबंदी लगी हुई है और राज्य में राजनीतिक गतिविधियों भी पहले की तरह ठप्प हैं। 5 अगस्त को राज्य का विशेष दर्जा खत्म किए जाने की वर्षगांठ को मुख्य रखते हुए आगामी तौर पर राज्य में कई तरह की पाबंदियां पुन: लगाई गई हैं, जिनमें श्रीनगर में 4 व 5 अगस्त को कर्फ्यू लगाना भी शामिल था। परन्तु बाद में सरकार ने श्रीनगर में कर्फ्यू तो वापिस ले लिया परन्तु धारा 144 अभी भी लागू रखी गई है। इस संदर्भ में हम यह कहना चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को खत्म करते हुए राज्य के विकास और राज्य में अमन-शांति कायम करने तथा राजनीतिक प्रक्रिया द्वारा लोगों को विश्वास में लिए जाने के जो वायदे और दावे किए गए थे, वे अभी तक पूर्ण नहीं हुए, अपितु केन्द्र सरकार और राज्य के लोगों में दूरियां और अधिक बढ़ गई हैं, चाहे कि सुरक्षा बलों की अधिक सतर्कता के कारण लोग रोष प्रकट करने हेतु सड़कों पर नहीं आ रहे परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि लोक केन्द्र सरकार की नीतियों को स्वीकार कर रहे हैं।  राज्य में एक बड़ा राजनीतिक बिखराव पैदा हो गया है, जिसे समेटने हेतु केन्द्र सरकार को पहलकदमी करके सभी राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को रिहा करना चाहिए। जम्मू-कश्मीर की आर्थिकता को पुन: पटरी पर लाने के लिए और राज्य के लाखों विद्यार्थियों के शैक्षणिक भविष्य को मुख्य रखते हुए 4 जी इंटरनेट की सुविधा तुरंत शुरू करनी चाहिए और राज्य के राजनीतिक नेताओं के साथ जम्मू-कश्मीर के भविष्य संबंधी खुले मन से विचार-विमर्श शुरू करना चाहिए, ताकि जम्मू-कश्मीर के लोगों का भारत की मुख्यधारा में विश्वास पुन: से कायम हो सके और इसके साथ ही पाकिस्तान की धरती से आतंकवादी और कट्टरपंथी संगठनों द्वारा, जो अभी भी आतंकवाद फैलाने के यत्न किए जा रहे हैं, उनको राज्य के लोगों के सहयोग से असफल बनाया जा सके। यह सही है कि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के बाद और सुरक्षा बलों की सतर्कता से सीमा पार से आतंकवाद में काफी सीमा तक कमी आई है परन्तु इस पक्ष से पैदा हुई सुखद स्थिति से लाभ लेते हुए अब केन्द्र सरकार को बिना देरी राज्य में राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पुन: बहाल करने के लिए राजनीतिक पहलकदमी आरम्भ करनी चाहिए और राज्य में व्यापारिक तथा औद्योगिक गतिविधियों को रोकने के कारण जो राज्य की आर्थिकता को नुकसान पहुंचा है, उसकी पूर्ति हेतु भी उचित पैकेज की घोषणा करनी चाहिए। अगर जम्मू-कश्मीर को देश के साथ जोड़ कर रखना है तो जम्मू-कश्मीर के लोगों का दिल जीतना बहुत आवश्यक है। धारा 370 हटाने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि वहां अब लोगों की कोई समस्याएं नहीं रहीं। हमारी यह राय है कि जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक रुतबे संबंधी भी राज्य के राजनीतिक नेताओं के साथ विचार-विमर्श करके ही कोई अंतिम फैसला लिया जाना चाहिए। इस संबंधी केन्द्र सरकार द्वारा जो अपने तौर पर कदम उठाए गए हैं, उन पर पुन: विचार करने हेतु भी उसको अपना मन खुला रखना चाहिए।