भारत की सांस्कृतिक भव्यता का नया युग

अयोध्या में भगवान राम की जन्म-स्थली पर भव्य मंदिर के निर्माण हेतु भूमि-पूजन के बाद कार्यक्रम का समापन 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों मंदिर की नींव में दोपहर 12 बजकर 15 मिनट और 15 सैकेंड के बाद पहले 32 सैकेंडों में चांदी की पहली ईंट रखने के बाद, दिन में करीब 2 बजे तक चलने वाले विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के साथ सम्पन्न हुआ। इस कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत 3 अगस्त को शुरू हुई थी। तीन दिनों तक चलने वाले इस अनुष्ठान की शुरुआत वैदिक मंत्रों के साथ हुई। इस प्रकार 5 अगस्त से भारत में सांस्कृतिक भव्यता के एक नये युग की शुरुआत हुई जब पिछले 492 सालों से, जब से अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण हुआ, राम मंदिर को लेकर जो विवाद चला आ रहा था, उसका समापन पिछले साल 9 नवम्बर, 2019 को सुबह 10 बजकर 30 मिनट पर तब हो गया था, जब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली पीठ ने, जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े, जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूण, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नज़ीर आदि शामिल थे, ने विवादित ज़मीन पर रामलाला विराजमान का हक माना था। यह फैसला सर्वसम्मति से आया था।सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद रामजन्म भूमि पर भव्य मंदिर बनाये जाने के लिए सदियों से चले आ रहे विवाद का अंत हो गया था। अब जबकि 5 अगस्त से भूमिपूजन के साथ ही मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हो, तो निश्चित रूप से इसे भारत की सांस्कृतिक भव्यता का रूप दिया जाना चाहिए। राम मंदिर को लेकर करीब डेढ़ सौ सालों तक चले सक्रिय विवाद और अयोध्या में 6 नवम्बर, 1992 को ढहाई गई बाबरी मस्जिद के बाद से लगातार इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि राम मंदिर का आंदोलन धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक आंदोलन है। इसलिए न केवल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बल्कि विश्व हिंदू परिषद् भी रह-रहकर देश के मुसलमानों का आह्वान करती रही है कि वे इसे अपने धर्म के विरुद्ध लेने की बजाय भारत की सांस्कृतिक विरासत के रूप में लें और खुद मंदिर में निर्माण में महती भूमिका निभाएं।वक्त आ गया है कि अब जबकि हिंदुओं की आस्थाओं को देश की सर्वोच्च अदालत ने मान्यता दी है और देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह मुस्लिमों ने इसका कोई तीव्र विरोध नहीं किया बल्कि सच तो यह है कि देश के 99 फीसदी मुसलमान कभी राम मंदिर निर्माण के विरोधी रहे ही नहीं। कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने सियासी कारोबार के लिए मुसलमानों को मंदिर विवाद में एक पार्टी बनाकर रखा था। खैर, अब गड़े मुर्दे उखाड़ने का न तो फायदा है, न कोई ज़रूरत। अब तो ज़रूरत है कि राम मंदिर के निर्माण में सचमुच बड़े पैमाने पर मुसलमान आगे आकर अपनी सक्रिय भूमिका निभायें और इस तरह दुनिया को संदेश जाए कि भारत अपनी सांस्कृतिक विरासतों के प्रति कितना संवेदनशील है, और यह भी कि भारत में तमाम धर्मों और आस्थाओं के लोग मिल कर-जुलकर किसी मजबूरी से नहीं रहते बल्कि अपनी धार्मिक लचक और सांस्कृतिक एकजुटता की वजह से रहते हैं।राम मंदिर का निर्माण सालों पहले भी हो सकता था, लेकिन जिस तरह से कोर्ट में इसके लिए लम्बी लड़ाई चली, उसका संदेश यही है कि भारत में अल्पसंख्यकों के पास अपने मजबूत संवैधानिक हक हैं और उन्हें देश की अदालत और संविधान में अटूट भरोसा है। अगर यह भरोसा न होता तो फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुसलमानों के लिए मानना मुश्किल होता। लेकिन न सिर्फ  देश के मुसलमानों ने सुप्रीम कोर्ट से आये इस फैसले का स्वागत किया है बल्कि दूसरे देशों से जब इस फैसले को लेकर कुछ अप्रिय बातें सामने आयीं तो वे मुसलमान ही थे, जिन्होंने आगे बढ़कर कहा कि हम हिंदुस्तानी अपने विवादों को खुद ही बहुत अच्छी तरह से हल करने में सक्षम हैं। अत: हमें कोई सलाह देने की कोशिश न करे।जब तक अयोध्या में राम मंदिर बनने का रास्ता साफ  नहीं हुआ था, जब तक देश की सर्वोच्च अदालत से इसके लिए एक सर्वसम्मति से निर्णय नहीं आया था, तब तक इसको लेकर होने वाली राजनीति को समझा और स्वीकार किया जा सकता था लेकिन अब इस तरह की चीजें नहीं होनी चाहिएं। हालांकि भाजपा और संघ के शीर्ष नेतृत्व ने इस देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद से लगातार विनम्रता और सांस्कृतिक भाईचारे को बढ़ाये जाने पर बल दिया है लेकिन कुछ छिटपुट कार्यकर्ता भी अगर इसे एक धर्म विशेष की जीत के रूप में जश्न मनाएंगे तो यह भारत के एक और पुनर्जागरण की मौजूदा प्रक्रिया अर्थहीन हो जायेगी। इसलिए अब जिम्मेदार नेतृत्व को पूरी सजगता के साथ मंदिर निर्माण के कार्यक्रम को न तो राजनीतिक रंग देना चाहिए, और न ही इसमें धार्मिक उन्माद का मुलम्मा लगाया जाना चाहिए। अब इसे सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के एक नये दौर के रूप में लिया जाना चाहिए। मंदिर निर्माण के लिए भूमिपूजन कार्यक्त्रम में इस समझ की थोड़ी झलक दिखती भी है, जब भूमिपूजन के इस बेहद अनुष्ठानक कार्यक्रम में सबसे पहले निमंत्रण रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के मुस्लिम पक्षकार रहे हाजी महबूब इकबाल अंसारी और लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाले मोहम्मद शरीफ  को भेजे गये लेकिन हैरानी होती है कि इसी सदाशयता या कि राजनीतिक संवेदनशीलता का प्रदर्शन सोनिया गांधी और राहुल गांधी को निमंत्रण पत्र भेजकर क्यों नहीं दिखलाया गया जबकि ये दोनों शख्स भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के प्रमुख सदस्य हैं। कांग्रेस को कोई भी राजनीतिक पार्टी आधुनिक भारत के इतिहास से काट नहीं सकती।लेकिन हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारी सांस्कृतिक निष्ठाएं और आस्थाएं कभी भी औपचारिक निमंत्रण पत्रों की गुलाम नहीं होतीं। हिंदुस्तान के प्रत्येक नागरिक का हक है कि वह भव्य राम मंदिर निर्माण की औपचारिक शुरुआत के समारोह का खुद को हिस्सा माने। अगर इस समारोह के मौजूदा प्रबंधक हिंदुस्तान के हर नागरिक को इसके लिए औपचारिक रूप से नहीं बुलाते तो भी इस देश के आम नागरिकों का यह हक खत्म नहीं होता। सच तो यह है कि हिंदुस्तान का हर नागरिक चाहे वह जिस भी जाति या धर्म का हो, उसे राम मंदिर भूमिपूजन कार्यक्रम में जाने की किसी से इजाज़त नहीं लेनी। राम इस देश में ही नहीं, इस पूरी दुनिया में सबके हैं। राम इस देश की संस्कृति की थाती हैं। वह कण कण में व्याप्त हैं, इसलिए वह सबके हैं। वह किसी धर्म, जाति या राजनीतिक पार्टी के नहीं हैं।

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