आज़ादी का आख्यान सुनाती  ऐतिहासिक इमारतें

जंग-ए-आज़ादी की तमाम कहानियां महज किताबें, फिल्में या दूसरी कलाएं ही नहीं सुनातीं। आजादी के कई विशद आख्यान हमारी तमाम ऐतिहासिक इमारतें भी अपने सीने में छिपाये हुए हैं। ये इमारतें भी हमें आजादी की तमाम भावुक कहानियां वैसे ही सुनाती हैं, जैसे किताबें, फिल्में या दूसरी कलाएं सुनाती हैं। क्योंकि इमारतें महज ईंट गारे की नहीं होतीं। खासकर बात जब उन ऐतिहासिक इमारतों की हो जो हमारी जंग-ए-आजादी की सिर्फ  मूक गवाह भर नहीं हैं बल्कि उनका जीवंत दस्तावेज भी हैं। यह अकारण नहीं है कि लालकिला, जलियांवाला बाग, अंडमान निकोबार द्वीप स्थित सेल्यूलर जेल, मुंबई स्थित द गेट ऑफ  इंडिया, चेन्नई स्थित सेंट जॉर्ज फोर्ट, लखनऊ स्थित रेजिडेंसी और पुणे स्थित आगा खां पैलेस का नाम लेते ही स्वतंत्रता संग्राम की पूरी कहानी आंखाें के सामने किसी फिल्म की तरह घूम जाती हो। जंग-ए-आजादी की गवाह ये ऐतिहासिक इमारतें और स्मारक अलिखित इतिहास का एक ऐसा पवित्र दस्तावेज हैं जिनमें चाहकर भी उनका कोई विरोधी किसी किस्म का बदलाव नहीं कर सकता। इसलिए कई मायनों में आजादी की गवाह रहीं और आजादी की लड़ाई का केंद्र रहीं, ये इमारतें लिखित इतिहास से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इनका मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव भी लिखे हुए शब्दों से कहीं ज्यादा है। शायद यही वजह है कि लालकिले में फहरते हुए तिरंगे की तस्वीर को देखकर दिल में आजादी का गर्व ठांठें मारने लगता है। लालकिले में गर्व से  फहरते हुए भारत के झंडे को देखकर भारत की ताकत, उसकी शान और सम्प्रभुता का एहसास होता है। लालकिले को देखते ही भारत की संप्रभुता का ख्याल आता है। लालकिले को देखते ही दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र की जीवंतता का ख्याल आता है। यह सब इसलिए है क्योंकि आजादी की लड़ाई में लालकिले का सबसे ज्यादा प्रतीकात्मक महत्व है। वास्तव में तय समय से पूर्व 10 मई 1857 को जब मेरठ में कुछ तवायफों के उकसाने पर सेना के कुछ सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ  बगावत कर दी तो वे वहां अंग्रेजी हुकूमत को पस्त करके सीधे दिल्ली के लालकिले ही पहुंचे थे, जहां अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर रहते थे। लालकिला अगर भारत की आजादी की लड़ाई का सबसे बड़ा प्रतीक है तो इसी वजह से है, क्योंकि देश में अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध फूटी 1857 की पहली चिंगारी से वह इस जंग का हिंदुस्तानी केंद्र बन गया था। अंडमान निकोबार द्वीप में स्थित सेल्यूलर जेल जिसे एक जमाने में ‘काला पानी’ कहा जाता था, क्योंकि यहां जिस कैदी को भेजा जाता था, वह लौटकर वापस कभी अपने घर वालों से नहीं मिल सकता था। यह एक किस्म से मृत्यु की सजा का विकल्प था। अंडमान निकोबार द्वीप में स्थित यह जेल भारत की मुख्य भूमि से कई सौ किलोमीटर दूर है। इस जेल के अंदर 694 ऐसी कालकोठरियां बनायी गई थीं जहां कोई कैदी बमुश्किल सांस ले पाता था। इस जेल में इन कोठरियों के बनाने का उद्देश्य जेल में बंद कैदियों को आपस में मिलने-जुलने से रोकना था। अंग्रेजों ने इस जेल की निर्माण संरचना में भी आम हिंदुस्तानियों को मनोवैज्ञानिक रूप से डराने वाली सोच का सहारा लिया था। इसे ऑक्टोपस की जहरीली सात भुजाओं के आकार में बनाया गया था, जहां कैदियों को रखा जाता था। इन कोठरियो में सिर्फ  हवा के पहुंचने के लिए एक रोशनदान भर था और एक छोटा सा छेद जहां से कैदियों को खाना दिया जा सके। जब कोई सेल्यूलर जेल का नाम लेता है तो दिमाग में अंग्रेजी अत्याचार के खौफनाक दृश्य घूम जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे जलियांवाला बाग के नाम पर बदन में झुरझुरी होने लगती है। हालांकि जलियांवाला बाग आजादी की लड़ाई की गवाह कोई इमारत नहीं हैं मगर यह एक ऐसा स्थल है, जो हमें याद दिलाता है कि हमारे पुरखों ने आजादी पाने के लिए क्या-क्या नहीं सहा। जलियांवाला बाग आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े गोलीकांड का मूक गवाह है। यहां कोई इमारत नहीं थी, तीन तरफ  से बस्तियों से घिरा एक पार्क था, जिसमें एक तरफ  से ही घुसने का रास्ता था और पार्क के बीचों-बीच एक कुआं था। अंग्रेजों ने अपनी बर्बरता से इस बस्तियों से घिरे छोटे से पार्क को आजादी की लड़ाई का सबसे बड़ा कुर्बानी स्थल बना दिया। जनरल डायर ने यहीं पर निहत्थे हिंदुस्तानियों पर सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया था और अलग-अलग दस्तावेजों व गणनाओं के मुताबिक इस गोलीकांड में 2000 से ज्यादा भारतीयाें को मार दिया गया था। जब भी कभी हिंदुस्तान की आजादी का इतिहास लिखा जायेगा उसमें जलियांवाला गोलीकांड का जिक्र नहीं होगा तो वह अधूरा होगा।देश की वित्तीय राजधानी मुंबई का सबसे बड़ा प्रतीक गेटवे ऑफ इंडिया, आजादी की लड़ाई के भी सबसे बड़े प्रतीकों में से एक है। इसे 2 दिसंबर 1911 में इंग्लैंड के राजा जॉर्ज पंचम और रानी मैरी के भारत आगमन पर उनके स्वागत सम्मान के रूप में बनाया गया था। हालांकि इस स्मारक का निर्माण तो अंग्रेजों की शान को दर्शाने के लिए किया गया था, लेकिन बाद में यह आजादी की लड़ाई के प्रतीकों में एक बन गया। जब मुंबई में नौसेना बगावत की घटना हुई तब यह स्मारक अंग्रेजों के विरूद्ध गोलबंदी का केंद्र था। महाराष्ट्र में ही पुणे स्थित आगा खां पैलेस का भी आजादी की लड़ाई में बहुत दस्तावेजी महत्व है। पुणे के यरवदा इलाके में स्थित इस भव्य महल को सुल्तान मुहम्मद शाह आगा खां ने 1892 में बनवाया था, लेकिन यह महल इससे ज्यादा इसलिए जाना जाता है कि इस महल में महात्मा गांधी को उनके सहयोगियों के साथ गिरफ्तार करके कई बार कैद में रखा गया। 1942 के क्विट इंडिया मूवमेंट के पहले भी सन 1940 में जब गांधीजी को बंदी बनाया गया था, तब उन्हें यहीं रखा गया था। इसी भवन में कस्तूरबा गांधी का निधन हुआ था और यहीं पर उन्हें दफनाया गया था। आगा खां पैलेस आज़ादी की लंबी लड़ाई का मूक गवाह ही नहीं उसका एक जीवंत संग्रहालय भी है। आजादी का दस्तावेज बन गई इमारतों का जिक्र हो और उसमें लखनऊ स्थित रेजिडेंसी और चेन्नई स्थित सेंट जॉर्ज फोर्ट का नाम न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। लखनऊ रेजिडेंसी का निर्माण नवाब आसफ-उद-दौला ने 1775 में कराया था। हिंदुस्तान की आजादी के लिए जब पहली जंग अंग्रेजों के विरूद्ध छिड़ी, उस समय इस भव्य महल में मौजूद अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध हिंदुस्तानी विद्रोहियों ने जो धावा बोला और जमकर लड़ाई हुई उस लड़ाई के चलते यह इमारत नष्ट हो गई थी। अंग्रेजों ने विद्रोहियों पर गोले बरसाने के लिए इस इमारत पर खूब गोले बरसाये थे। आज भी रेजिडेंसी की टूटी-फूटी दीवारों में तोप के गोलों के जो टुकड़े धंसे हुए हैं, वह सिर्फ  धातु के टुकड़े भर नहीं हैं, वे क्रांतिकारियों का हाड़-मांस हैं। इस ऐतिहासिक इमारत का महत्व उससे भी समझा जा सकता है कि इसमें 2000 से ज्यादा अंग्रेज सैनिकों और उनके परिजनों को दफनाया गया है, इनमें से ज्यादातर 1857 की लड़ाई में विद्रोहियों के हाथों मारे गये थे। सेट जॉर्ज फोर्ट जो कि भारत में अंग्रेजों का बनवाया पहला गिरिजाघर है और यही पर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की नींव रखने वाला राबर्ट क्लाइव रहता था। आजादी की लड़ाई में इस किले का भी खूब महत्व है; क्योंकि अंग्रेजों ने इसे बचाने में और हिंदुस्तानियों ने इसे पाने में खूब खून बहाया था। जो इतिहास की रक्त रंजित कहानी का एक अध्याय है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर