घरौंदा

कई दिनों से रीटा डाक्टर के पास जाने की सोच रही थी। वैसे कुछ विशेष समस्या तो नहीं लगती थी। अनायास ही सिर में ज़ोर से पीड़ा होती थी तथा कुछ पल बाद ही उसे सब कुछ घूमता हुआ-सा दिखाई देने लगता था। वह प्राय: सोचती रहती कि अगर डाक्टर के पास जाती हैं तो चार-पांच सौ तो डाक्टर की फीस ही है तथा दवाई की कीमत अलग से देनी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त कई प्रकार के टैस्ट करवाने को भी डाक्टर प्राय: कह देता है। इसलिए वह डाक्टर से चैकअप करवाने से संकोच कर रही थी। मगर आज तो असहनीय दर्द होने लगा था। सारा घर ही उसे जैसे घूमता हुआ दिखाई देने लगा था। अपनी समस्या जब उसने पति को बताई तो उसने थोड़ा गुस्से में जवाब दिया था -‘मुझे काहे को बतलाती है, मैं कोई डाक्टर हूं? तुझे कोई तकलीफ है तो डाक्टर से चैकअप करवा ले।’आखिरकार रीटा डाक्टर की क्लीनिक पर जा पहुंची।डाक्टर ने पहले उसकी नब्ज़ देखी और फिर ब्लड प्रैशर जांचा। ब्लड प्रैशर की रीडिंग पढ़ते हुए डाक्टर ने तुरंत रीटा से पूछ लिया था- ‘ऐसा कब से हो रहा है?’‘ऐसा तो कई दिनों से हो रहा है।’‘अपने पर तरस खाओ मैडम। आपका ब्लड प्रैशर तो बहुत ज्यादा है। लगता है आपको बहुत टैंशन है।’‘नहीं तो’.... रीटा के मुंह से मुश्किल से इतने ही शब्द निकल पाये थे।‘मैं दवाई दे देता हूं। घर जाकर दवाई लेकर आराम करो... यूं ही बेवजह टैंशन मत लो। ... थोड़ा अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखो। इतने ज्यादा बी.पी. से तो दिमाग की नाड़ी भी फट सकती है।’...और रीटा दवाई लेकर घर लौट आई थी। वह अनायास ही सोचने लगी थी कि डाक्टर ने तो झट से कह दिया कि टैंशन मत करो। लेकिन मेरी जगह अगर डाक्टर स्वयं होता, तब उसे पता चल पाता कि कैसे अपने-आप ही टैंशन हो जाती है।रीटा को अपने पति मुकेश पर भी क्रोध आ रहा था। न जाने किस मिट्टी का बना है। एक तो यूं ही गुमसुम रहता है, बोलता भी बहुत कम है... और अगर कभी कुछ कहेगा भी तो जली-सड़ी बात ही करेगा। समस्या का समाधान ढूंढने की अपेक्षा अब नया जुमला पकड़ लिया है- ‘तुम्हारी मां यह कहती है’... जैसे मेरी मां इनकी कुछ नहीं लगती। न जाने हंसते खेलते परिवार को किसकी नज़र लग गई है। आज तक तो कभी भी मेरी मां अथवा मेरी मां का ज़िक्र नहीं हुआ था। घर में इस प्रकार शांतमय वातावरण था कि घर स्वर्ग से कम नहीं लगता था तथा अब तो इस घर में एक भी पल रहने को मन नहीं करता। बारह वर्ष हो चले हैं शादी हुए। इतने लम्बे अर्से में कभी भी इस घर में इस प्रकार की तकरार नहीं हुई थी और न ही आस-पड़ोस में रहने वाली वृद्धा रीटा की मां है अथवा मुकेश की। मुकेश के कुछ सहयोगियों तथा रीटा के स्कूल में पढ़ाने वाली दो-तीन अध्यापिकाओं के अतिरिक्त बाकी सभी उसे मुकेश की मां ही समझते थे। ... और फिर इतनी लम्बी अवधि से एक ही घर में रहना कोई आसान काम न था। फिर हमारे समाज की दकियानूसी सोच अनुसार एक मां बेटी के घर में कैसे रह सकती थी।पहले बच्चे के जन्म के समय किसी बुजुर्ग महिला का घर में होना आवश्यक था। मुकेश के मां-बाप तो न जाने किस मिट्टी के बने हुए थे। बार-बार संदेश भिजवाने के बावजूद भी मुकेश की मां नहीं आई थी। हर बार एक ही रटा-रटाया जवाब होता था- ‘तुम्हारे बाऊ जी को अकेला कैसे छोड़ सकती हूं। उनको तो शुगर भी है... दिल के मरीज़ हैं... हर पल ध्यान रखना पड़ता है।’और कोई सगा संबंधी भी नहीं था जो रीटा के प्रसव के दिनों में कुछ दिनों के लिए उनके यहां चला आता। अपनी मां के यहां रीटा जाना नहीं चाहती थी। वहां भी मां के सिवाय और कोई न था। पिता जी का निधन तो तभी हो गया था, जब वे तीनों बहनें अभी स्कूल में ही पढ़ती थीं। पिता जी की मृत्यु के पश्चात् बहुत भागदौड़ करने पर उनके स्थान पर मां को नौकरी मिल गई थी... और उसी नौकरी के बल पर ही मां ने उन तीनों बहनों को पढ़ाया-लिखाया था फिर उनकी शादी भी कर दी थी। दोनों बहनों में से भी किसी का आना-जाना सम्भव न था। दोनों बहुत दूर रहती थीं। एक कलकता में तो दूसरी बेंगलुरू में।.... और मां अकेले रहते हुए दिन काट रही थी। आखिर मुकेश से विचार-विमर्श करके रीटा ने अपनी मां को अपने पास बुला लिया था तथा थोड़ा झिझकते हुए मां भी उनके यहां चली आई थी। बस एक बार आ तो गई, फिर किसी ने उन्हें वापिस नहीं जाने दिया था। मां के वहां रहने से उन्हें घर परिवार की रत्तीभर भी चिंता न रहती थी। समय के साथ परिवार भी बढ़ता गया था। रीटा अब दो बच्चों की मां बन चुकी थी।

(क्रमश:)