नई शिक्षा नीति के सरोकार

गत दिनों घोषित की गई नई शिक्षा नीति को लागू करने  के लिए केन्द्र सरकार की ओर से तैयारियां आरम्भ कर दी गई हैं। इस संबंधी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शिक्षा के क्षेत्र से संबंधित संस्थानों के वरिष्ठ अधिकारियों तथा शिक्षा शास्त्रियों के साथ विचार-विमर्श की बाकायदा शुरूआत कर दी गई है। इस विचार-विमर्श का प्रबंध केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय (जिसका पहला नाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय था) तथा यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन द्वारा किया गया था। इस अवसर पर यह भी बताया गया है कि ऐसे विचार-विमर्श आगामी महीनों में राज्य स्तर पर भी किये जाएंगे ताकि नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जा सकें। उक्त विचार-विमर्श को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ अहम बातें कही हैं, जो ध्यान तथा विश्लेषण की मांग करती हैं। उन्होंने कहा है कि लम्बी अवधि तक देश में शिक्षा नीति में कोई बदलाव न किए जाने के कारण इस क्षेत्र में भेड़चाल जैसी स्थिति पैदा हो गई थी। पिछली शिक्षा नीति ‘क्या सोचना है’ पर आधारित थी और नई शिक्षा नीति ‘कैसे सोचना है’ पर आधारित है। उन्होंने यह भी कहा है कि नई शिक्षा नीति 21वीं सदी के नये भारत की बुनियाद बनेगी। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि नई शिक्षा नीति विद्यार्थियों में रट्टे के रूझान को समाप्त करके उनमें सृजनात्मक तथा आलोचनात्मक रुचियां पैदा करेगी। इस अवसर पर उन्होंने एक बार फिर इस बात पर ज़ोर दिया कि प्राथमिक शिक्षा विद्यार्थियों को उनकी मातृ-भाषा या क्षेत्रीय भाषा में दी जानी चाहिए। उन्होंने इस बात की भी प्रशंसा की कि देश भर में नई शिक्षा नीति संबंधी जो विचार-विमर्श चल रहे हैं, उनसे नई शिक्षा नीति को बेहतर तरीके से लागू करने में मदद मिलेगी। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नई शिक्षा नीति पर जो उम्मीदें लगाई गई हैं, उनको पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर और राज्य स्तर पर नये बने केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय और राज्यों के शिक्षा मंत्रालयों को आपसी सहयोग से सख्त मेहनत करनी पड़ेगी। इस संबंध में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिए भी आपसी विचार-विमर्श से लचकदार और व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होगी। इसके अलावा पहले से अधिक वित्तीय साधनों की भी ज़रूरत होगी। चाहे नई शिक्षा नीति में यह कहा गया है कि शिक्षा का बजट जिसका इस समय कुल सकल उत्पाद का 4.23 प्रतिशत है, को बढ़ा कर 6 प्रतिशत कर दिया जाएगा, परन्तु फिर भी नई शिक्षा नीति में इस बात का ठोस प्रकटावा नहीं किया गया कि नई नीति के लागू करने हेतु राज्यों को अगर वित्तीय साधनों की अधिक आवश्यकता होगी, तो उनकी पूर्ति कहां से होगी। खास तौर पर अगर स्कूलों के स्तर पर होने वाले बदलाव को देखें तो सरकारी स्कूलों में बच्चे अब 3 वर्ष की उम्र से दाखिल किये जाएंगे और पहले 5 वर्ष वह आंगनवाड़ियों या अन्य प्री-प्राइमरी संस्थाओं में पढ़ेंगे और 5 वर्ष से 3 वर्षों तक प्राइमरी स्तर की शिक्षा प्राप्त करेंगे और आगामी 3 वर्षों में वह 8वीं तक की शिक्षा ग्रहण करेंगे और आगामी अन्य 4 वर्षों में वह सीनियर सैकेंडरी तक की शिक्षा प्राप्त करेंगे। इस तरह स्कूली शिक्षा हेतु 5+3+3+4 का ढांचा बनाया गया है। इस संबंध में प्रश्न यह उठता है कि राज्य स्तर पर आंगनवाड़ियों या प्राइमरी शैक्षणिक संस्थानों में 3 वर्ष के बच्चों को दाखिल करने और उनके लिए ज़रूरी अध्यापकों, कमरों और अन्य मूल सुविधाओं की व्यवस्था करने हेतु ज़रूरी साधन उपलब्ध हो सकेंगे? इस संबंध में गहनता से विचार करने की आवश्यकता होगी? दूसरा प्रश्न यह है कि क्या जिस प्रकार नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि विद्यार्थियों को प्राइमरी तक की शिक्षा उनकी मातृ-भाषा या क्षेत्रीय भाषा में दी जाएगी। नि:सन्देह यह बड़ा सकारात्मक कदम है और विश्व भर के शिक्षा विशेषज्ञ और यूनेस्को भी इसका समर्थन करती है। परन्तु यह देखना दिलचस्प होगा कि, क्या सरकार देश भर के गैर-सरकारी स्कूलों के अलावा व्यवस्था को लागू करवा सकेगी? एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 6वीं कक्षा से सभी विद्यार्थियों को रोज़गारन्मुखी शिक्षा देने का फैसला किया गया है। इसलिए भी सरकारी स्कूलों में आवश्यक वर्कशाप बनाने हेतु वित्तीय स्रोतों और शिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होगी। नई शिक्षा नीति का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि सीनियर सैकेंडरी की शिक्षा तक अब विषयों का चुनाव पहले की तरह साईंस, कामर्स, आर्ट्स, मैडीकल और नॉन-मैडीकल ग्रुपों के रूप में नहीं होगा, अपितु विद्यार्थी अपनी पसंद के अनुसार विषय ले सकेंगे। विद्यार्थियों को दी गई यह छूट देखने में तो बहुत अच्छी नज़र आती है, परन्तु क्रियात्मक रूप में इसको लागू करने के लिए सीनियर सैकेंडरी स्कूलों में अधिक अध्यापकों, अधिक कमरों के साथ-साथ विद्यार्थियों के पीरियडों को इस तरह निश्चित करने की आवश्यकता होगी कि वह अपनी इच्छा अनुसार चुने हुए विषयों की पढ़ाई कर सकें। इस उद्देश्य के लिए भी अधिक वित्तीय स्रोतों की आवश्यकता पड़ेगी। अगर नई शिक्षा नीति के अनुसार ग्रेजुएशन की शिक्षा संबंधी किए गए बदलावों को देखें तो यह फैसला बड़ा अहम है कि विद्यार्थियों को अलग-अलग वर्षों की शिक्षा हेतु बाकायदा प्रमाण-पत्र मिलेंगे, चाहे उनकी डिग्री तीन वर्ष में पूरी होगी और अनुसंधान करने वाले विद्यार्थियों को यह शिक्षा चार वर्ष में पूरी करनी पड़ेगी। पोस्ट ग्रेजुएशन की शिक्षा एक वर्ष की कर दी गई है और एम.फिल को खत्म करके सीधा पी.एच.डी. की व्यवस्था की गई है। इन बदलावों को भी काफी सार्थक कहा जा सकता है। नि:सन्देह नई शिक्षा नीति के अधिक सकारात्मक पहलू हैं परन्तु फिर भी इसको लागू करने में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने और इसको लागू करने के लिए बनने वाले संस्थानों में राज्यों की पूरी-पूरी भागीदारी होनी चाहिए। यह बेहतर होगा कि नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए शिक्षा विशेषज्ञों के अलावा संसद और राज्य विधानसभाओं में खुली विचार-चर्चा करवा ली जाए तभी इससे निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकेगी।