यहां भक्तों की कामनाएं होती हैं पूरी मां मौलिक्षा 

पटना-हावड़ा रेल लाइन पर रामपुर हाट स्टेशन के करीब रामपुर-दुमका मार्ग पर सूरीचुआ नामक एक पड़ाव है। इसके समीप ही एक पहाड़ी नदी ‘द्वारिका’ बहती है जो आगे बढ़कर तारापीठ तक चली जाती है। सूरीचुआ दुमका जिला के शिकारी पाड़ा प्रखंड के अन्तर्गत पड़ता है। यहां पर पाषाणकालीन प्रस्तर औज़ार भी मिले हैं। सुरीचुआ से दक्षिण पक्की सड़क से जुड़ा पांच किलोमीटर दूरी पर द्वारिका नदी के निकट एक गांव है-मलूटी। प्राचीन काल में इस क्षेत्र को ‘कर मुक्त राज’ के नाम से जाना जाता था। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार मलूटी के राजा राय-वंश के थे। उन दिनों यह क्षेत्र गौड़ शासन के अन्तर्गत आता था। एक बार गौड़ के शासक अलाउद्दीन हुसैन शाह (सन् 1493-1511 ई.) उड़ीसा जाने के क्र म में सैंथिया के निकट शाही पड़ाव में रुके। उनकी बेगम ने बाज पक्षी पाल रखा था जिसे वह हमेशा अपने साथ ही रखती थी। एक दिन संयोग से वह बाज उड़कर कहीं चला गया। बाज के उड़ जाने की बात सुनकर शाही पड़ाव में खलबली मच गयी। नौकर-चाकर सहित अनेक सिपाहियों को बाज की खोज में दौड़ा दिया गया परंतु बाज नहीं मिला। एक गरीब चरवाहे ब्राह्मण ने उस बाज को एक पेड़ की डाली पर बैठे देखा और उसने बाज को पकड़ लिया। जब उसे यह बात मालूम पड़ी कि यह बाज पड़ाव में रुकी बेगम का है तो वह उसे लेकर पड़ाव पर चला गया। हुसैन शाह ने खुश होकर चरवाहे को ‘मलूटी राज’ बतौर इनाम देकर उसे ‘कर मुक्त राज’ घोषित कर दिया। बाद में वह चरवाहा राजा बसंत राय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।मलूटी एक छोटा-सा गांव है पर आज वह शोधकर्ताओं एवं पुरातत्वविदों के लिए एक आकर्षण का केंद्र बन गया है। मलूटी में प्रवेश करते ही समय के थपेड़ों को सहते हुए जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़े मंदिरों की एक अद्भुत श्रृंखला से साक्षात्कार होता है। कहा जाता है कि कभी इस स्थान पर एक सौ आठ मंदिर हुआ करते थे। फिलवक्त इस स्थान पर चौहत्तर मंदिर बचे हुए हैं। इनमें से 59 भगवान शिव के हैं। शेष काली, दुर्गा, विष्णु एवं ग्रामदेवी मौलिक्षा के मंदिर हैं। एक छोटे-से गांव में इतने सारे मंदिरों का होना अपने-आप में जिज्ञासा का विषय बन गया है। यहां के मंदिरों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन मंदिरों की दीवारों पर ‘टेराकोटा’ की उत्कृष्ट कलाकृतियां अंकित हैं। पकी हुई लाल मिट्टी और प्रस्तर से निर्मित विभिन्न चैनलों में जड़ी ये कृतियां आज भी सजीव लगती हैं।मलूटी के निवासी श्री गोपाल मुखर्जी के अनुसार मलूटी मात्र एक गांव ही नहीं है बल्कि यह भारत के पुरातात्विक अवशेषों की बड़ी धरोहर है तथा एक प्राचीन देवभूमि है। यहां के ध्वस्त-प्राय मंदिरों की एक-एक ईंट पर प्राचीन भारत की स्थापत्य कला के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।मलूटी का पहला शिव मंदिर राजा राखार चन्द्र द्वारा सन् 1680 ई. के आसपास निर्मित है। शिव मंदिर के साथ ही मौलिक्षा मां के मंदिर का भी निर्माण हुआ था। मौलिक्षा मां को शक्ति का अवतार माना जाता है। भक्तगण इन्हें मां तारा की बड़ी बहन कहकर पुकारते हैं। कहा जाता है कि तारा-पीठ के सिद्ध योगी बामा खेपा ने अपनी सिद्धि मलूटी में ही प्राप्त की थी। आज भी मलूटी में योगी का त्रिशूल मौजूद है।स्थापत्य शैली के आधार पर विशेषज्ञों ने मलूटी के मंदिरों को चार श्रेणियों में बांटा है। पहली कोटि शिखर मंदिरों की है जो बंगला की चाला मंदिर शैली की तरह है। इन मंदिरों की ऊंचाई 15 फुट से लेकर 60 फुट तक की है जिनमें से अधिकांश के पार्श्व भाग में तरह-तरह की नक्काशियां की गई हैं। मंदिर के मुख्य चैनल में अधिकतर राम-रावण के युद्ध के दृश्य अंकित हैं। इनमें से एक मंदिर में महिषासुर मर्दिनी का अंकन मध्ययुगीन स्थापत्य कला के विरल नमूने को दर्शाता है।पार्श्व चैनल में रामलीला तथा कृष्णलीला विषयक चित्र बने हुए हैं। मुख्य हिस्से के ऊपरी भाग में दशावतार अथवा दश महाविद्या की आकर्षक नक्काशी तथा निचले हिस्से में विभिन्न क्रि याकलापों के दृश्य अपनी ओर खींचते हैं। मंदिर के दूसरे हिस्से में काली, दुर्गा एवं विष्णु के मंदिर हैं। मलूटी में रहने वालों का मानना है कि मां मौलिक्षा की शरण में जो भी व्यक्ति जिस कामना को लेकर आता है, उसकी कामना अवश्य ही पूरी हो जाती है। आश्विन एवं चैत्र माह में नवरात्र के अवसर पर इस स्थान पर पहुंचकर भक्त मां मौलिक्षा से अपनी कामनानुसार वरदान की प्रार्थना करते हैं। मां मौलिक्षा के चमत्कारों को इस स्थान पर पहुंचने के बाद ही जाना जा सकता है।आज ‘मंदिरों के गांव’ के नाम से जाना-जाने वाला मलूटी गांव अत्यन्त दयनीय स्थिति में है। कई मंदिरों के तो अब सिर्फ भग्नावशेष ही बचे हैं जिनमें चमगादड़ों एवं चूहों ने अपना डेरा बना लिया है। उपेक्षा के शिकार इस पावन तीर्थ स्थल में पर्यटकों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यहां के अलंकृत पाषाण फलक मात्र सौंदर्य को ही नहीं दर्शाते वरन् सहज रूप से धार्मिक जीवन की झांकी भी प्रस्तुत करते हैं।

(उर्वशी)