अद्वितीय है बैजनाथ का पवित्र शिवलिंग

प्राचीन ऐतिहासिक शिवलिंग मंदिर बैजनाथ कांगड़ा जनपद में स्थित है। कुछ लोग इसे बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक मानते हैं और बैजनाथ, वैद्यनाथ की संज्ञा देते हैं। कैलाश शिवधाम से लंकापति रावण कठोर तप के पश्चात्  भगवान शिव से  लंका पूजा हेतु प्राप्त शिवलिंग विग्रह को लंका लेकर जा रहा था।  भगवान शिव के कथनानुसार  इसे मार्ग में कहीं नहीं रखना था अन्यथा विग्रह वहीं स्थापित हो जाता। किंवदंतियों के अनुसार जब लंकापति रावण पुष्पकयान से जा रहे थे। बैजनाथ के समीप जहां पूर्व समय जंगल था, वहां उसे लघुशंका की इच्छा जगी। लंकापति ने यान से नीचे उतर कर एक ग्वाले को देखा।  उसे कहा, मैं लघुशंका  कर लेता हूं। इसे अपने हाथ में पकड़े रखना। दैव कृपा से ग्वाले के हाथ में विग्रह का भार अधिक होने लगा। उसने भूमि पर रख दिया। लंकापति के वापिस आने  पर विग्रह उठाया नहीं गया और शिवलिंग जंगल में स्थापित हो गया। पुराणों  में बारह ज्योतिर्लिंगों में ज्योतिर्लिंग  वैद्यनाथ में एक है।  बैजनाथ उपनगर  सदा बहने वाली बिनवाखड्ड के पास  एक ऊंचे शिखर पर है। मंदिर देखने में  प्राचीन लगता है और शिखरशैली का है। मंदिर की दीवारों पर कई मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। वर्तमान में मंदिर पुरातत्व विभाग की देखरेख में आने से काफी सुधार और विकास हो चुका है। आज मंदिर के अस्तित्व को खतरा बना  है। नीचे तीव्रगति से बिनवानदी बह रही है। उस  कारण मंदिर की पहाड़ी का क्षरण हो रहा है। प्रशासन और पुरातत्व विभाग की अनदेखी लगती है। वातावरण और धूप एवं वर्षा कारण क्षति पहुंच रही है। मूर्तियां कुछ खण्डित हो चुकी हैं। वानर सेना द्वारा नुकशान पहुंचाया जाता है।  मंदिर की चारों दीवारों पर अनेक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। वर्षों से वैसी हैं। जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क आदि मंदिरों को समुद्री हवाओं से काफी क्षति हुई है। मंदिर निर्माण के सम्बन्ध में कई धारणाएं प्रसिद्ध है। वास्तविकता का  पता नहीं है। इस का निर्माण आठवीं शताब्दी  का  है। शिलालेख मंदिर के भीतरी दीवारों पर शारदा या ब्रह्मी लिपि के हैं। लक्ष्मणचंद्र और उनके पूर्वजों ने आठ पीढ़ियों तक अपना अधिकार रखा। वे त्रिगर्त राजाओं के अधीन थे। मंदिर वाले विस्तृत भूभाग पर महलों आदि के खण्डहरात स्थित हैं। बिनवाखड में स्नान के लिए जाने हेतु सुन्दर सीढ़ियां अच्छी अवस्था में हैं। उत्तर भारत हिमाचली ऐतिहासिक शिवलिंग  दर्शनीय है। इसे रावण द्वारा स्थापित मानते हैं।इस उपनगर की अदभुत बात यह है कि यहां  कभी विजय दशमी उत्सव पर रावण नहीं जलाया जाता।  मकर संक्रांति को शिवलिंग पर मक्खन या देसी घी चढ़ाये जाने की प्रथा है।  शिवरात्रि का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। एक अन्य रहस्य की बात है। यहां आज तक कोई सुनार अपनी दुकान  नहीं खोल पाया है। एक किमी की दूरी पर पपरोला में सुनारों की दुकानें हैं। वानरों का यहां पर बहुत आतंक है। मंदिर परिसर में  कई छोटे  अन्य मंदिर  नंदीबैल, हनुमान, गणेश दर्शनीय हैं। मंदिर की चारों दीवारों पर सैंकड़ों प्राचीन देवी- देवताओं की मूर्तियां अर्थात धर्मराज, कार्तिक, यमराज, गणेश, हनुमान, लक्ष्मी नारायण, नीलकंठ महादेव, अर्धनारीश्वर आदि  हैं। परिसर वहुत सुंदर है। मध्य में सरकारी विद्यालय  है। नीचे तीन किमी पर चौवूचवीन सड़क के पास महाकाल मंदिर देखने वाला है। उसका विकास कांगड़ा में सब से अधिक हुआ है। वहां शनि सिंगनापुर जैसी मूर्तियों को स्थापित किया गया है। पुराने सभी भांति भांति के कुण्डों का जीर्णोद्धार सुंदर हुआ है। परिसर स्वच्छ एवं  सुन्दर है। हनुमान की मूर्ति  देखने वाली है। प्राचीन महाकालेश्वर शिवलिंग ठीक अवस्था में  है। प्रत्येक शनिवार और विशेषकर श्रावण, भादों मास में हज़ारों की संख्या में लोग कष्ट निवारण हेतु आते हैं। भण्डारे का आयोजन  शनिवार को किया जाता है। पास अन्य कई स्थान हैं जैसे शीतल माता मंदिर, काठ मंदिर, क्षीरगंगा, मुकुटनाथ मंदिर आदि देखने वाले हैं।