चेहरे बदल कर देखो, बन्धु!

बदलते हुए समाज विज्ञान की शोध में नये आंगन खुलते रहते हैं। नई शोध का विषय पिछले दिनों एक यह भी रहा है कि कार्टून बनाने वाले क्यों यह सच बांचते नज़र आते हैं, जब वे देश के महाभ्रष्ट लोगों और सब कुछ समेट कर अपनी जेब में डाल लेने वाले लोगों को भारी भरकम और तोंदियल बताते हैं तो जंचता है। महामारी के इस प्रकोप में मुफ्त  लंगर और राशन बांटने वाले की कतारों में जो लोग अन्तहीन नुक्कड़ तक खड़े नज़र आते हैं, वे तो लगता है, अभी गिरे कि गिरे क्योंकि सब सींकिया बदन और फटेहाल हैं। होने भी चाहिएं।
आजकल बेकारी, बीमारी और निकम्मेपन के दिनों में भिक्षा पात्र लेकर भिक्षा देहि के नारों के साथ द्वार-द्वार भटकना  एक ऐसा आमफहम सत्य हो जाता है कि लगता है कि अगर इसे देश का नया घरेलू उद्योग घोषित कर दिया जाये, तो अतिकथन न होगा। सरकारी स्तर पर आम जनता के इन कठिन दिनों में मुफ्तखोरी को दया धर्म कह कर दुरूह समस्याओं का एक सरल समाधान मान लिया गया है।  वैसे अभी विकट महामारी के इन दिनों में जान से पहले  अपने-अपने जहान की रक्षा के लिए जो अपूर्णबंदी के एक के बाद एक चरण की घोषणा हो रही है, अभी उसका तीसरा चरण चल रहा है। चौथा तैयारी पकड़ रहा है लेकिन जनाब, राहतों की सांस फूलने लगी। समस्या तो एक भी हल होती नज़र नहीं आयी बल्कि महामारी से पहले ही बेकारी माशा अल्लाह छ: प्रतिशत से ऊपर थी। अब तो बेकारों की कतार इतनी लम्बी होती नज़र आ रही है कि विद्वान बताते हैं कि पिछले पैंतालिस बरस में इतनी महंगाई नहीं देखी। बात न कीजिये बढ़ती महंगाई की। वर्तमान सुशासन युग शुरू हुआ था तो घोषणा की गई थी कि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी अर्थात न रहेगी महंगाई और न करेगा कोई चोर बाज़ारी लेकिन ये कैसे दिन आये बन्धु, चोर बाज़ारी तो इस देश के लोगों की स्वाभाविक वृत्ति बन गयी है। अब देखो न कोरोना वायरस का संक्रमण भय मौत का डंडा सिर पर बजा रहा है और चार लोग दवाओं की बात छोड़ो, उनके माकूल होने की अफवाहों पर भी चोर बाज़ारी कर रहे हैं।  दस्तानों और मास्कों से मुंह ढंकने को कहा गया था तो बजाय लोगों ने शर्मिन्दगी बना यह नकाब ओढ़ने के उन्हें भी बाज़ार से गायब कर दिया और लगे उस की चोर बाज़ारी करने।
कीमतों की भली पूछिये। सरकार कहती है कि महामारी के इन दिनों में आर्थिक गतिविधियां मृत प्राय: हो गईं। सरकारी खज़ाना खाली है। कर्मचारियों का वेतन लेटलतीफ हो रहा है लेकिन ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आतिशबाज़ी हो कर आकाश की ओर उड़ रही हैं। ऐसीं ऐसी बातें होती हैं कि असल सच किसी के पल्ले नहीं पड़ता। अब भला पूछिये मेहरबानों से कि दुनिया भर में पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें गिरकर धरती चूम रही हैं और अपने देश में पैट्रोल और डीज़ल की कीमतों का कनकौआ आसमान की ओर क्यों उड़ाया जा रहा है? पहले कहा, सरकारी खज़ाना भरना है इसलिए कीमत स्तर को काठ मार जाने दो, इसे गिरने नहीं देना है। और अब जब अर्थतंत्र खोलने का मौसम आया, वाहन सड़कों पर भागने लगे, तो पैट्रोलियम कम्पनियों को घाटे की बीमारी की चिन्ता सताने लगी। देखते ही देखते पैट्रोल और डीज़ल की कीमतें कुलांचें भरने लगीं और वाहन चालक उदास होकर सोचते हैं कि भैय्या यह कैसी गतिशीलता? ‘यह तो जाते थे जापान पहुंच गए चीन, समझ गए न।’ अब गाने में तो कहा गया है, ‘मन्नू तेरा हुआ अब मेरा क्या होगा?’ अब वाहन चालक क्या अपने अच्छे दिनों की इसी तरह उम्मीद करें? जी नहीं, उससे पहले राज्य सरकारों को भी तो अपनी गरीबी दूर करनी है। उन्हें भी तो अपना वैट बढ़ा कर अपनी स्थानीय आर्थिक दुर्दशा की मरहम पट्टी करनी है। हां, चुनावी मजबूरी आ गई तो उन्हीं स्थानीय करों को घटा कर वाहवाही लूटी जा सकती है। बन्धु, यह काम थोड़ा छिप-छिप कर भी करना पड़ता है। अब देखो न पहले गैस का ईंधन सिलेंडर दो दामों पर मिलता था। एक थोड़ा सस्ता अनुदान सहायता प्राप्त और दूसरा सामान्य बिना सहायता के। अब पैट्रोलियम उत्पादों की घटती कीमतों का यह प्रभाव हुआ कि मिज़र्ा नौशा भी कह उठे, ‘बर्फ गिरती है तो बेचारे मुसलमीनों पर’ अर्थात सामान्य सिलेंडर की कीमत ही कम होकर कटौती वाले सिलेंडर के बराबर हो गई। अब चाहे अनुदान प्राप्त सिलेंडर खरीद कर मुसलमीन कहलाओ। जब कटौती है ही नहीं तो पैसा तुम्हारे खाते में जाएगा कैसे?
इसलिए हे दुनिया के कार्टूनिस्टो, तनिक सावधान! पहले भ्रष्ट की पहचान करनी हो तो तोंदियल और मोटा बनाते थे और मरभुक्खे को सींकिया बदन दुबला पतला दिखाते थे। लीजिये अब तो पहचान के पैमाने ही बदल गये। अब पता ही नहीं चलता कि भिखारी कौन है, चौराहे पर खड़ा किया सींकिया बदन फटेहाल या हवाई जहाज़ से उतर कर महाशक्तियों को अपनी बन्दरगाहों से लेकर व्यापार मार्ग तक बेच गया वह जनूनी, जिसे महाशक्ति ने जी भर कर अनुदान दिया और इसे खैरात भी नहीं कहा। 
तो बन्धु, आओ क्यों न हम भी हर पुराने सच को झूठ बना दें। कहीं महाभ्रष्ट लोगों को थुलथुल की जगह सींकिया बदन दिखा दें और सींकिया बदन को थुलथुल बना भ्रष्टाचार का महाविरोधी दिखाएं। सत्य कथन, तब तो भ्रष्टाचार के चेहरे पर सज्जनता की कलाई और इनके विरोधियों पर फर्द जुर्म लगते किसी को देर नहीं लगेगी।