ज़िन्दगी की धड़कन

देश की सर्वोच्च अदालत की ओर से एक और अच्छा राहत देने वाला फैसला आया है। इसमें महिलाओं के अधिकारों को बहाल करने संबंधी तस्वीर को स्पष्ट किया गया है। यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि विश्व भर में  शताब्दियों से कुछ प्रतिशत को छोड़ कर नारी पुरुष के दबाव तले ज़िन्दगी व्यतीत करती आई है। चाहे वह विश्व की जननी है परन्तु आम तौर पर उसे भोग-विलास की वस्तु ही समझा जाता रहा है। इसके अनेकानेक उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। महिला को सदैव दया की पात्र बनाया जाता रहा है तथा बड़ी सीमा तक वह समाज की चक्की में पिसते जाती रही है। शताब्दियों के स़फर के बाद नारी जाति ने अंगड़ाई भरी।विश्व भर में स्थान-स्थान पर उसने संघर्ष किया। आज जितनी भी उसकी स्थिति बेहतर हुई है, वह ऐसे संघर्षों का ही परिणाम है। आज उसने ज़िन्दगी के प्रत्येक क्षेत्र में भारी उपलब्धियां हासिल की हैं तथा अपनी धाक जमाई है। अधिकतर क्षेत्रों में तो वह पुरुषों से भी कहीं आगे बढ़ चुकी है। भारत में भी महिला ने अपने संघर्ष की लम्बी कहानी स्वयं लिखी है। दो शताब्दी पूर्व तक उसे सती भी किया जाता रहा तथा पति के देहावसान के बाद वह नर्क भी भोगती रही। आज भी चाहे समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में उसे बेचारगी वाला जीवन जीना पड़ता है, परन्तु इसके साथ-साथ उसकी उड़ान भी दर्शनीय बनती जा रही है। देश की स्वतंत्रता में महिलाओं की ओर से डाले गए योगदान को दृष्टिविगत नहीं किया जा सकता। देश के संविधान में नारी को पुरुष के समान स्थान दिया गया है। उसे स्वतंत्रता के साथ विचरण करने का अधिकार भी प्राप्त हुआ है। इसी के दृष्टिगत बड़ी सीमा तक उसकी प्रतिभा उजागर हुई है। आर्थिक तौर पर भी  प्रत्येक क्षेत्र में उसने आत्म-विश्वास के साथ विचरण करने का यत्न किया है। पारिवारिक धरातल पर भी यदि उसके साथ उचित व्यवहार नहीं होता, तो उसने इसके विरुद्ध बोलने का अधिकार प्राप्त कर लिया है। पैतृक सम्पत्ति के मामले में भी सदैव उसके साथ अन्याय होता रहा है जिसके संबंध में देश की संसद ने 1956 में हिन्दू उत्तराधिकार कानून बना कर बड़ी सीमा तक स्थिति स्पष्ट कर दी थी। इस कानून के अनुसार लड़की का पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार माना गया था। इस कानून में वर्ष 2005 में संशोधन भी किया गया था, जिसके अनुसार बेटियों को बेटों की भांति पैतृक सम्पत्ति में से अधिकार दिया गया था, परन्तु इसके बाद कई तकनीकी पक्षों से बड़े स्तर पर परिवारों में अदालती विवाद शुरू हो गए थे। अधिकतर स्थानों पर इन तकनीकी मुद्दों को लेकर लड़कियों को इस अधिकार से वंचित करने का यत्न किया गया था। इन झगड़ों को आधार बना कर सर्वोच्च अदालत के नये फैसले में यह स्पष्ट किया गया है कि चाहे नया संशोधन 9 अगस्त, 2005 को हुआ था परन्तु लड़की का इस संबंध में अधिकार वर्ष 2005 में यह कानून लागू होने के समय पिता के जीवित होने अथवा न होने से जुड़ा हुआ नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने इस संबंध में जो टिप्पणी की है, वह भी बेहद प्रभावपूर्ण है जिसे हम यहां पुन: कौमा’ज़ में दोहराना चाहेंगे : ‘बेटियां सदैव प्यारी बेटियां रहती हैं, बेटे तो बस विवाह तक ही बेटे रहते हैं। बेटियां पूरी ज़िन्दगी माता-पिता को प्यार देती हैं जबकि बेटों की नीयत एवं व्यवहार विवाह के बाद बदल जाते हैं, बेटियां कभी नहीं बदलतीं।’ सर्वोच्च अदालत के इन शब्दों से चाहे हर कोई सहमत नहीं हो सकता। इसे धरातल की पूरी सच्चाई भी नहीं कहा जा सकता तथा इस पर विवाद भी उठाया जा सकता है, परन्तु इन शब्दों की उत्तम भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह एक ऐसी भावना है जो सदैव ज़िन्दगी को धड़काती रही है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द