खुद अपने स्वप्न देखे युवा वर्ग

उप-निवेशवादी दौर में विशेष शासकीय दबाव के कारण गुरु-शिष्य परम्परा वाली भारतीय शिक्षा प्रणाली को अलविदा कह दिया गया। ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य था कि भारतीय बेशक अपने ढंग की पूजा पद्धति में विश्वास रखें, भारतीय लिबास पहनें परन्तु उनके सोचने का ढंग उनके अनुसार हो जाए। दिमाग ऐसे तैयार हो कि वे गोरों की तरह ही सोचें। यह बात अलग है कि धीरे-धीरे हमने अपनी पोशाक ही नहीं अपनी भाषा में भी ऩफरत करनी शुरू कर दी, जिसका खमियाज़ा आज तक भुगत रहे हैं। 1947 में उनको विवश कर विदा कर दिया परन्तु सोच आज भी पीछा नहीं छोड़ रही। न ही हम संघर्ष कर रहे हैं।आज कई एजुकेशन पॉलिसी पर खूब बात हो रही है। इस बात की अधिक प्रशंसा है कि पॉलिसी में वोकेशनल सब्जैक्ट भी बच्चों को सिखाए जाएंगे। 6वीं कक्षा से 8वीं कक्षा तक विद्यार्थी रात-दिन बिना किसी बैग का बोझ उठाये कक्षा में जा पाएंगे। उन दिनों उन्हें पेंटिंग, कारपेंटरी, गार्डिनिंग, जैसे काम सीखने को मिलेंगे।कागज़ी योजनाएं कई  बार व्यवहार की ज़मीन पर उतरते हुए असफल हो जाती हैं। एक मध्य वर्गीय परिवार जिसके घर में बच्चे के लिए दो ही रास्ते खुले हैं कि या तो वह इंजीनियर बने या डाक्टर, वहां पेंटिंग, कारपेंटरी जैसे कामों की तरफ जाने/भेजे जाने में परिवार को कोई तसल्ली मिल पाएगी? अपने आस-पास नज़र डालें तो कितने बच्चे अपने मनचाहे सब्जैक्ट लेकर पढ़ाई कर पाते हैं? विषय चुनने में उन पर कितना दबाव रहता है, कितना अपनी दिलचस्पी के विषय चुन पाते हैं, तो पूरी तस्वीर सामने आ जाएगी। कितने प्रतिशत हाथ के काम को वाइट कॉलर जॉब से बेहतर पाते हैं?वे लोग जो टी.वी. को थोड़ा-बहुत ही अटैंड करते हैं, जानते हैं कि शकुंतला देवी की जीवन गाथा का फिल्मीकरण किया जा रहा है, जो प्रसारित होने जा रहे की स्टेज पर है। वह मैथेमैटिक्स में विशेषज्ञ के तौर पर उभरीं। जब वह अभी मात्र पांच साल की ही थी उसके पिता को उसके अन्तनिर्हित के इस टैलेंट का पता चल गया। उन्होंने इसका भरपूर लाभ उठाना चाहा। वे जगह-जगह शकुंतला को साथ ले जाकर शो करवाते थे और लक्ष्मी देवी का प्रसाद ग्रहण करते जाते थे। शकुंतला के इस टेलेंट को, जहनी क्षमता का ‘ह्यूमन कम्प्यूटर’  का खिताब मिला। यहां यह सवाल है कि किस स्कूली शिक्षा ने शकुंतला को वहां तक पहुंचाया? स्कूल की शिक्षा क्या उसके कुदरती टेलेंट को पनपने में मदद कर सकती थी या उसकी इस प्रतिभा को अपनी व्यवस्था में ढाल कर असाधारण से साधारण कर देती। स्कूल-कालेज हमारे भीतरी गुणों को विकसित होने में कितनी मदद करते हैं, कितनी रुकावट बनते हैं, यह प्रश्न भी समीचीन है।शिक्षा के क्षेत्र पर विचार करते हुए इस बात से किसको इन्कार है कि हमारा भविष्य युवा पीढ़ी के हाथों में ही सुरक्षित है। उनकी ऊर्जा और प्रगतिशील सोच देश, समाज का ‘कल’ निर्धारित करने वाली है। समाज की रूढ़ धारणाओं को बदल कर वही बड़े बदलाव की तरफ ले जा सकते हैं परन्तु उनके मार्ग और मार्ग चुनाव में हमारा योगदान कितना है और क्या है? क्या हम उनकी आंखों में अपने अंधेरे सपनों की इबारत पढ़ना चाहते हैं? जो हम अपने जीवन में अनेक कारणों से अधूरी अकांक्षा लिये मजबूरन नौकरियों या कारोबार में दाखिल होते रहे हैं और ढोते रहे, उस खालीपन को भरने के लिए उन्हें सीढ़ी बनाना चाहते हैं या उन्हें अपना विकल्प खुद चुनने का अवसर देना चाहते हैं? तब डाक्टर, इंजीनियर के ही पेशे से अलग कुछ करने और सोचने की ज़रूरत होगी।