श्रमिकों के पलायन का मूल कारण गरीबी

चीनी कोरोना वायरस से उत्पन्न कोविड 19 महामारी से प्रभावित भारत के राज्यों से बड़ी संख्या में श्रमिकों का पलायन हुआ और वे अपने बच्चों के साथ अपने घर जैसे तैसे वापस आए। ऐसे श्रमिकों को प्रवासी कहा जा रहा है जबकि श्रमिक तो श्रमिक है चाहे वह अपने गृह राज्य में काम करे अथवा किसी अन्य राज्य में जाकर उत्पादन कार्य में सहयोग दे। एक भारतीय नागरिक भारत के किसी भी भाग में जाकर काम कर सकता है। एक श्रमिक अपने पैतृक गांव से अन्यत्र काम करने के लिए तभी जाता है, जब उसके पास गुजारा करने लायक साधन उपलब्ध नहीं होते। भारत में यह देखा गया है कि जिन राज्यों में बेरोजगारी अधिक होती है, उन्हीं राज्यों से पलायन भी अधिक होता है। उनके पास न तो पहले काम था और अब वे जब वापस आये हैं तो भी काम नहीं है। सरकार के सामने उनको रोजगार उपलब्ध कराना बहुत कठिन कार्य है। भारत में कुल अंतर्राज्यीय प्रवासियों में से 23 प्रतिशत उत्तरप्रदेश तथा 14 प्रतिशत बिहार से हैं। उत्तरप्रदेश में ग्रामीण बेरोजगारी भी 15 प्रतिशत है जबकि बिहार में 1० प्रतिशत है। उत्तरप्रदेश व बिहार के गांवों में अन्य राज्यों की तुलना में गरीबी अधिक देखा जा रही है। देश की 37 प्रतिशत गरीब जनसंख्या उत्तरप्रदेश व बिहार में रहती है।2017-18 में ग्रामीण जनसंख्या का 36 प्रतिशत रोजगार के लिए उपलब्ध था। उनका 5.8 प्रतिशत युवा लम्बे समय से बेरोजगार थे तथा मात्र 4.6 प्रतिशत जनसंख्या को ही नियमित वेतन प्राप्त हो पा रहा था। देश में 64.15 प्रतिशत अर्थात 48.7 करोड़ जनसंख्या को आश्रित जनसंख्या मानी जाती है तथा 33.77 प्रतिशत अर्थात 25.66 करोड़ जनसंख्या को ही रोजगार उपलब्ध हो रहा था। देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान 48 प्रतिशत है जो 70 प्रतिशत जनसंख्या का जीवन निर्वाह करती है अर्थात कम संसाधनों पर अधिक लोग निर्भर हैं। इसको छद्म रोजगार की स्थिति भी माना जा सकता है। तभी यह निरन्तर मांग उठती रहती है कि कृषि में लगी गैर ज़रूरी जनसंख्या को अन्य क्षेत्रों में जोड़ा जाना चाहिए। अप्रैल-मई 2020 के कोरोना वायरस के काल में जो जनसंख्या शहर से वापस गांवों में चली गई है, वह जनसंख्या भी कृषि से ही जुड़ेगी जिससे बेरोजगारी की समस्या और विकट हो सकती है।अब शहरों से वापस आये श्रमिकों को अपने वेतन की याद आ रही है परन्तु उन्हें यह विश्वास भी है कि अपने पैतृक गांव में वे भूखे नहीं मरेंगे। प्रवासी मजदूरों व कामगारों के इघर व उघर राज्यों में आने जाने का कोई आंकड़ा नहीं है परन्तु अब यह समस्या भयावह जरूर हो गयी है। गांवों में वापस आये कुल श्रमिकों की संख्या का अनुमान 2.30 करोड़ लगाया जा रहा है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार शहरों में काम की तलाश में लगभग 1.78 करोड़ श्रमिक पहुंचे थे। वर्ष 2001 से वर्ष 2011 तक शहरों को पहुंचने वाले श्रमिकों की संख्या में 2.8 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष होती है जिस पर आधारित होकर कोरोना काल में लगभग 2.3 करोड़ लोग गांवों में पहुंचे।कोशिश यह की जानी चाहिए तथा यह पता लगाया जाना चाहिए कि कोई भी श्रमिक अपने गांव व अपने राज्य तथा शहर से क्यों पलायन कर रहा है। सरकार के द्वारा गठित माइग्रेशन कमीशन में पंजीकरण अनिवार्य होना चाहिए तथा गांव में रहने वाले बेरोजगारों का रजिस्टर तैयार किया जाना चाहिए। यह कमीशन यह भी देखे कि जहां श्रमिक आजीविका के लिए गए हैं, वहां पूर्ण रूप से सुरक्षा है तथा उन्हें आजीविका प्राप्त हो रही है या नहीं। जिस राज्य में वे श्रमिक काम कर रहे हैं, उस राज्य की भी जिम्मेदारी निश्चित की जानी चाहिए तथा गृह राज्य को भी निरन्तर अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। एक सुझाव यह दिया जा सकता है कि यदि एक राज्य में प्रवास पर गए श्रमिक को वहां काम करते हुए 5 वर्ष अथवा अधिक समय हो जाता है तो वह जिस राज्य में काम कर रहा है, उसको उसी राज्य की डोमिसाइल दे दी जानी चाहिए तथा उसके गृह राज्य की उस श्रमिक के प्रति जिम्मेदारी समाप्त होनी चाहिए। यह जानकर बहुत आश्चर्य होता है कि काम करते हुए 5-1० वर्षों के उपरान्त भी महाराष्ट्र के मराठा लोग व गुजरात में गुजराती लोग उत्तरप्रदेश व बिहार के श्रमिकों को प्रताड़ित करने में कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। डोमिसाइल मिलने से वे रोजगार देने वाले राज्य में गौरव व सम्मान से अपना जीवन व्यतीत कर सकेंगे तथा उस राज्य में अपना वोटर कार्ड़ बनवा कर अपने बच्चों को शिक्षा व अन्य सुविधा भी दिलवा सकेंगे।कोई भी श्रमिक जब स्थानीय स्तर पर रोजगार नहीं खोज पाता तथा इन स्थानीय कौशल धारकों का कहीं भी पंजीकरण भी नहीं होता तो स्थानीय उद्योग में कार्य के लिए उद्योगपति व व्यापारी अन्य राज्यों से श्रमिकों को बुला लेते है। यदि स्थानीय श्रमिकाें का पंजीकरण होता तो वे उद्योगपति उस पंजीकरण कार्यालय से सम्पर्क करके वांछित कुशलता के श्रमिकों को रोजगार दे सकते थे। यदि उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को यह अनिवार्य किया जा सके कि उन्हें पहले स्थानीय प्रतिभाओं व कुशल श्रमिकों को रोजगार देना होगा और स्थानीय श्रमिकों के उपलब्घ न होने के बाद ही जिले व प्रान्त के बाहर के लोगों को रोजगार दिया जा सकेगा तो इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार बढ़ सकेगा और फिर श्रमिक अन्य स्थानों पर जाने के लिए आकर्षित भी नहीं होंगे।  ज़िला प्रशासन की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि जिले भर में स्थानीय आधार पर गांव के कौशल का पता करें तथा उनका पंजीकरण सुनिश्चित करें। यह कार्य नवगठित माइग्रेशन कमीशन को भी दिया जा सकता है।

(युवराज)