इस भीषण समय में उभरते हुए कटु आर्थिक सत्य

वैसे तो कोरोना महामारी के भीषण प्रकोप के कारण पूरे विश्व के लिए ही यह समय बहुत भीषण और कठिन है लेकिन पिछड़े हुए देशों में जिनमें भारी जनसंख्या के कारण अपना भारत भी अधिक विकट स्थिति में लगता है, उसकी आर्थिक स्थिति दुश्चिन्ताओं का अन्त नहीं। बाईस मार्च को जब देश में इस महामारी से पैदा होने वाली आर्थिक उथल-पुथल का संज्ञान लेते हुए जनता क्फर्यू लगा था और उसके दो दिन बाद पूरे भारत में पूर्णबंदी और पंजाब में कर्फ्यू घोषित कर दिया गया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे मोदी सरकार का एक साहसिक निर्णय करार दिया। तब लोगों ने भी मोदी के इस संदेश ‘जान है तो जहान है’ का पूर्ण पालन करते हुए चार चरणों अर्थात एक जून तक इस पूर्णबंदी का निष्ठा से पालन किया, लेकिन पहली चून से ‘जान भी जहान भी’ के नये संदेश के साथ पूर्णबंदी हटा अनलॉक के क्रमश: चरणों की घोषणा की गयी। दो अनलॉक चरण गुज़र गये हैं। उनमें दैनिक जीवन और कार्य व्यवस्था एवं उत्पादन प्रक्रिया को निरंतर छूट और राहत दी गयी है ताकि ज़िन्दगी फिर अपनी लय पकड़ सके। दुर्भाग्य यह है कि पूर्णबंदी के उस काल में भय का वातावरण कुछ इस कद्र हावी हो गया, संक्रमण ग्रस्त हो जान खो देने का भय लोगों पर इस कद्र हावी हो गया कि आम ज़िन्दगी मृत-प्राय लगने लगी। देश में मंदी का वातावरण पहले से ही था। कल-कारखानों ने धुआं उगलना बंद कर दिया। घर में बंद लोगों का मांग ग्राफ एकदम गिरा। फैक्टरियों में अनबिका माल, बढ़ता घाटा, बुरे दिनों का संदेश दे रहा था। पौना सदी की इस आज़ादी में बदलती स्थिति यह बनी है कि भारत की आर्थिकता की रीढ़ की हड्डी कृषि बदहाल हो गई। इस कृषि प्रधान देश में वह अब देशवासियों के लिए जीने का एक ढंग बल्कि अलाभप्रद धंधा बन गई। इसके आंकड़े कुछ इस प्रकार ध्वस्त हो गये कि पहले भारत की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती थी, दो तिहाई खेतीबाड़ी करती थी और सकल घरेलू आय का आधा भाग खेती से आता था। अब बदलते युग का सच यह बना कि कृषि एक अलाभप्रद धंधा बन गई। इस युवा देश की बहुतेरी कार्यशील जनता गांवों में रहती थी। उन्हें अब अपना कोई भविष्य अपने इस पुश्तैनी धंधे खेतीबाड़ी में नज़र नहीं आता। कटु  सत्य यह है कि वे अब अपना यौवन इस पुश्तैनी अलाभप्रद धंधे में खपाने के लिए तैयार नहीं। वे अब वैकल्पिक जीवन चाहते हैं। मात्र जीवन निर्वाह के स्तर से ऊपर उठ कर ढंग की ज़िन्दगी जीना चाहते हैं। योजनाबद्ध आर्थिक विकास के नाम पर सरकार ने देश की कृषि के लिए जो स्वामीनाथन कमेटी की प्रेरणा से हरित क्रांति के जो नारे लगाये थे, और जिसकी शुरुआत पिछली सदी के छठे दशक में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना से शुरू हुई थी, वह चौपट हो गयी। इसके बाद कृषि क्रांतियों ने रंग बदले, कभी सफेद कभी पीला और अब नीला अर्थात घरेलू मछली पालन लेकिन सब टांय-टांय फिस्स। हालत यह हो गई कि देश के मुख्य धंधे कृषि में निवल निवेश शून्य और विकास दर दो प्रतिशत से भी नीचे चली गई। कृषि पर निर्भरता अब तीन चौथाई आबादी से दो तिहाई और फिर आधी आबादी की रह गई। सकल घरेलू आय में योगदान पचास प्रतिशत से कम होता हुआ उन्नीस प्रतिशत रह गया। फिर आई विश्वव्यापी कोरोना महामारी और भारत में पूर्ण बंदी के नाम पर शहरों की आर्थिक गतिविधियों पर फालिज गिर गया। विदेशों की मृत होती हुई अर्थव्यवस्थों में कामगार अयाचित आगन्तुक हो गये। श्रमिक तो वे पहले थे, अब प्रवासी कहला कर अजनबी हो गये। उनके काम धंधे पर फाजिल गिरा, बड़े पैमाने पर नौकरियां छूट गयीं। ठौर ठिकाने टूट गये। महामारी के इस भयाक्रान्त माहौल में अब एक और महा निष्क्रमण शुरू हुआ, विदेशों से भारत की ओर। भारत के महानगर तो आर्थिक पक्षाघात से ग्रस्त थे। यहां से भी प्रवासी श्रमिक ‘विदेश लौटो’ के साथ अपने गांव घरों की ओर चले। पहला अनुमान यह था कि ये लोग कम से कम तेरह करोड़ थे जिनमें से दस करोड़ अपने गांव घरों की ओर लौट रहे थे लेकिन घोषणाओं के बावजूद वहां किसी नये ग्रामीण कार्य संस्कृति ने उन्हें अपने दामन में नहीं समेटा। वहां कृषि व्यवस्था बेहाल थी, कृषि क्रांतियां ठुस्स। कृषि आधारित लघु और कुटीर उद्योगों के नारे अवश्य थे, परन्तु उनका सार्थक वजूद नहीं थी। भीषण युग की कटु सच्चाई यह थी कि मनरेगा भुगतान से लेकर पचास हज़ार करोड़ रुपये के रोज़गार निवेश की घोषणा उनके ज़रूरत के सामने बिन्ता भर भी नहीं थी। उधर अनलॉक का तीसरा चरण शुरू हो गया। धनी ज़मींदार अपने मुजारों और खुलती फैक्टरियां अपने कामगारों को वापस बुली रही थीं। लीजिये निराश लोगों के कारवां क्या अब फिर वापस लौटेंगे? आंकड़ों ने कहा उन्नीस प्रतिशत लौट गये, इकतालीस प्रतिशत लौटने की सोच रहे हैं लेकिन कटु सत्य है कि यह पुन: महाभिविष्क्रमण कोई समाधान नहीं। उखड़े हुए लोगों को फिर उखड़ने न दिया जाये।