रावण-मंदोदरी विवाह का प्रसंग

गोस्वामी तुलसीदास ने मंदोदरी के चरित्र-चित्रण में बड़ी निष्पक्ष एवं संतुलित दृष्टि का परिचय दिया है। यद्यपि मंदोदरी रावण की पत्नी थी, परंतु वह वैष्णव थी तथा उसकी गणना सन्नारियों में की गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि मानसकार ने शत्रु पक्ष की स्त्री पात्र मंदोदरी के साथ पूर्ण न्याय किया है।
यद्यपि मंदोदरी की चर्चा अनेक गं्रंथों में उपलब्ध है परंतु नाम मात्र की जिसका कारण है कि महाभारतकार तथा श्रीमद् भागवतकार का उद्देश्य रामकथा का व्यापक वर्णन करना नहीं था। इन ग्रंथों में मंदोदरी की चर्चा प्रसंगवश ही आई है। महाकवि तुलसी ने अपने मानस के बालकांड में ही (दोहा 177) रावणोत्पत्ति की चर्चा के साथ ही मंदोदरी का भी जिक्र  किया गया है।
मय तनुजा मंदोदरि नामा।
परम सुंदरी नारि ललामा।।
सोइ मय दीन्हि रावनहि आनी।
होइहि जातु धानपति जानी।
हरषित भयउ नारि भलि पाई।
पुनि दोउ बधु बिआहेसि जाई।।
मंदोदरी मयदानव की पुत्री थी, अत्यंत सुंदर तथा बुद्धिमान थी, सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व की धनी थी जिसका संकेत कवि ने अपने ‘ललाम’ शब्द के माध्यम से किया है। बौद्धिक प्रतिभा की धनी होने के कारण ही रावण ने उसे पटरानी बनाया था।
रावण-मंदोदरी विवाह : जब रावण पाताललोक पहुंचा तो उसकी भेंट मयदानव से हुई। उस समय उसने मयदानव को अपनी पुत्री के साथ एक वन में विचरण करते देखा। उन्हें देखकर रावण को उनके बारे में जानने की उत्सुकता हुई। उसने मय तथा उसकी पुत्री दोनों के बारे में सविस्तार जानकारी प्राप्त की। मयदानव ने रावण को बताया कि यह कन्या उसकी ‘हेमा’ नामक अप्सरा पत्नी से पैदा हुई है तथा इसका नाम मंदोदरी है। मयदानव ने अपने वंश तथा वंशजों से भी रावण को परिचित कराया। साथ ही अपने दोनों पुत्रों ‘मायावी’ तथा ‘दुन्दुभि’ के विषय में भी रावण को जानकारी दी जो उस समय दानववंशीय योद्धाओं में विश्व विख्यात हो चुके थे।
मयदानव की कन्या मंदोदरी अब पूर्ण वयस्का हो चुकी थी। मय को अब योग्य वर की प्राप्ति की चिंता सता रही थी। रावण से उसने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए किसी पिता की अभिशापित सी व्याकुलता को चित्रित किया तथा बताया कि किस प्रकार कोई पिता अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की खोज हित भटकता हुआ जिस किसी से भी अपनी व्यग्रता प्रकट करने में संकोच का अनुभव नहीं करता। इसके पश्चात मयदानव ने भी रावण के विषय में जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट की।
रावण ने अपना परिचय दिया तथा बताया कि वह पुलस्त्यकुलीन ऋषि विश्रवा का पुत्र तथा कुबेर का विमातृ भ्राता है। उसने यह भी कहा कि उसकी माता राक्षस कुलीय है तथा उसका नाम कैकसी है और वह राक्षस सुमाली की पुत्री है। इस प्रकार अपने पितृ तथा मातृ पक्ष का पूर्ण परिचय देते हुए यह भी बताया कि सम्प्रति वह लंकापुरी का अधिपति नियुक्त किया गया है और उसका नाम पौलस्त्य रावण है।
रावण का परिचय प्राप्त करते ही मयदानव अत्यधिक प्रभावित हुआ तथा उसने गंभीर विचारोपरांत रावण को अपनी पुत्री के लिए सर्वाधिक उपयुक्त वर पा लिया तथा साथ ही उसने रावण से ही इस संबंध की स्थापना का प्रस्ताव किया। मयदानव के प्रस्ताव को रावण ने बिना किसी दुविधा के तुरंत स्वीकार कर लिया। मयदानव ने अग्नि को साक्षी रखकर विवाह संस्कार संपन्न करा दिया। मयदानव ने सहर्ष स्वीकार करते हुए उसे अनेकानेक वस्तुएं उपहार तथा दहेज के रूप में प्रदान कीं। उन अनेकानेक वस्तुओं में मयदानव ने उसे ’महाशक्ति’ नामक एक अस्त्र भी प्रदान किया, जिसका प्रयोग उसने कालांतर में राम से युद्ध के समय किया।
अपनी यात्रा की वापसी पर रावण ने अपनी माता को एक ऐसी सुंदर पुत्रवधु दी जो अपनी सास की सेवा करके प्रसन्न कर सकने में सर्वथा कुशल थी जिसकी अभिलाषा कैकसी के मन में भी बहुत दिनों से थी। रावण की माता कैकसी ने जब अपनी पुत्र वधु को देखा, जो अतीव सुंदरी तथा गुण सम्पन्ना थी, तो बहुत प्रसन्न हुई। रावण ने इस प्रकार अनगिनत कन्याओं के साथ वैध, अवैध रूप से विवाह किया किंतु इन सबों में मयदानव की पुत्री मंदोदरी सर्वश्रष्ठ थी।
धन्यमालिनी नामक गंधर्व कन्या का द्वितीय स्थान था। धन्यमालिनी के साथ उसने उस समय विवाह किया जब वह सभी दिशाओं पर विजय प्राप्त करके अपनी सेना के साथ उस पर्वत पर ठहरा जिस पर धन्यमालिनी नृत्य-गान कर रही थी। उसके रूप यौवन, सौंदर्य को देखकर वह मुग्ध हो गया और उसका आलिंगन कर उसे अपनी पत्नी बना लिया। उसने अनेक नाग कन्याओं का भी अपहरण किया। (उर्वशी)