पार्टियों का लोकतांत्रिक होना ज़रूरी

जब इब्राहिम लिंकन ने कहा था लोकतंत्र का अर्थ ’जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता का’ है, तब अनेक देशों की जनता ने राजनीति की मनमानी से संबंधित परेशानियों से राहत की सांस ली परन्तु सच्चे लोकतंत्र को व्यवहार में लाने की दिक्कतें लगातार बढ़ती चली गईं और आज इतने समय के बाद भी अवाम को लगता है कि सच्चे लोकतंत्र के नाम पर कहीं न कहीं ठगे जाते हैं।  जब महामारी (कोरोना) के चलते लगभग दो करोड़ नौकरियां चली गईं हों, छोटे से बड़े दुकानदार भुखमरी से जूझ रहे हों। साधारण घरों के खर्च बड़े हों और आय कम हो तब लोग अवश्य समझना चाहेंगे कि कुछ औद्योगिक घरानों की दौलत में आश्चर्यजनक इजाफा कैसे हो गया? वर्ल्ड वैल्यू सर्वे के नये अध्ययन से पता चला है कि लोगों में लोकतंत्र के प्रति अविश्वास पहले से ज़्यादा हुआ है। कुछ लोग तो सैनिक शासन पद्धति को बेहतर मानने लगे हैं।देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के भीतर लोकतंत्र पर प्रश्न फिर से उठ गये हैं। लोग परिवारवाद से परेशान हो उठे हैं, पार्टी को ‘परिवार संचालित प्राईवेट लिमिटेड’ कहा जा रहा है। कुछ युवा कहे जाने वाले नेता सफल या असफल विरोध कर इसका एहसास भी करवा चुके हैं। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन करवाया था। बाद के लगभग पचास सालों में मुख्य नियंत्रण नेहरू-गांधी परिवार का ही रहा है। अगर कांग्रेस के भीतर प्रश्न उठाने, प्रश्न करने की बात दबी रहती है तो कम्युनिस्ट पार्टियां (जिन्हें अधिक उदार होना चाहिए था) सहित भारतीय जनता पार्टी में भी वर्चस्ववाद को बोलबाला नज़र आता रहा। 2014 में राजनाथ सिंह का कार्यकाल समाप्त हुआ तो अमित शाह को इसलिए श्रेय  मिल गया क्योंकि वह नरेन्द्र मोदी के अधिक निकट थे। 2019 में जे.पी. नड्डा अपनी लोकप्रियता के कारण नहीं चुने गए थे। 
न्यायालय का चैप्टर खुले तो प्रशांत भूषण मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश पैरा 67 में आपातकाल को लोकतंत्र का काला अध्याय बताया गया है। अढ़ाई वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय के जजों ने प्रेस कान्फ्रैंस करके लोकतंत्र के खतरे की बात कही थी। न्याय व्यवस्था में माफिया तंत्र के प्रैशर का शोर मचा कर तत्कालीन चीफ जस्टिस गगोई ने छुट्टी वाले दिन सुनवाई करके जस्टिस पटनायक को जांच का जिम्मा सौंपा। अवमानना के नाम पर कितने ही सवाल बिना पूछे चुप करवा दिये जाते हैं। भारत में गत तीन दशकों के आंकड़े बखूबी जाहिर कर रहे हैं कि अमीर-गरीब के बीच फासला लगातार बढ़ता ही चला गया है। अमीर निरंतर अमीर हुआ है और गरीब लगातार गरीब। महंगाई लगातार बढ़ी है। गरीब की क्रय शक्ति में भारी कमी आयी है। आंकड़ों के मुताबिक जहां देश में एक प्रतिशत लोग सन् 2000 में 37 प्रतिशत सम्पत्ति पर काबिज थे, वहीं 2019 में यह वर्ग 67 प्रतिशत सम्पत्ति का मालिक है। क्या दौलतमंद भाग्यशाली होने के नात ही और दौलतमंद होता चला गया? राजनीतिज्ञ तो ‘एक्ट ऑफ गॉड’ कह कर बहानों में गुम हो सकता है परन्तु साधारण वर्ग जिस पर बीतती है, वह क्या करे?  भारत में आज जो राजनीतिक पार्टियों के भीतर वाद-विवाद, संवाद की कमी नज़र आ रही है, लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। जनता के मूल प्रश्नों को लेकर कार्यनीति कैसे बन सकती है जब जनतंत्र के लिए माहौल अनुकूल ही नहीं है। लोग दुखी हैं और उनके दुखों का निवारण बहुत ज़रूरी है, जो सच्चे लोकतंत्र में ही सम्भव है।