भारत की रणनीतिक शतरंज पर मात खाता चीन 

भा रत से लद्दाख सीमा पर पंगा लेने के बाद से भारत की रणनीतिक और वैदेशिक नीतियों के चलते चीन विश्व में अकेला पड़ता जा रहा है। आज स्थिति यह हो चुकी है कि उसके साथ पूरी तरह से जुड़े पाकिस्तान, जो अपनी गलत नीतियों और अपनी चीन-भक्ति के कारण स्वयं विश्व में अलग-थलग पड़ चुका है, को छोड़ कर कोई देश समर्पित भाव से चीन के साथ नहीं खड़ा है।  चीन की इस गर्वोक्ति के बाद कि चीन से भारत को एक नहीं, तीन मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा और हाल के नेपाली प्रधानमंत्री ओली के कुछ कार्यों और वक्तव्यों के चलते किसी हद तक नेपाल को भी चीन का समर्थक होना मान लिया गया था किन्तु भारत की धैर्यपूर्ण रणनीति और सदियों से चले आ रहे भारत-नेपाल सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य के चलते और नेपाली प्रधानमंत्री ओली की हास्यास्पद गर्वोक्तियों और अनर्गल चालों से उत्पन्न प्रखर नेपाली जनअसंतोष के चलते मोदी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं देकर राह पर आ जाने के कारण चीन की भारत को उसके पड़ोसियों के माध्यम से घेरने की रणनीति को एक करारा झटका लगा है। चीन द्वारा नेपाल की सैंकड़ों एकड़ ज़मीन और दो ग्रामों को अपने क्षेत्र में मिला लेने और इसकी सूचना नेपाली पत्रकार बलराम बानिया द्वारा कान्तिपुर मेल में प्रकाशित करने पर हुई उनकी हत्या से उपजे जनाक्र ोश के चलते नेपाली नेतृत्व समझ चुका है कि चीन की वास्तविक रणनीति क्या है। चीन भी समझ गया है कि नेपाल अगर पूरी तरह से नहीं तो आंशिक रूप से तो उसके हाथ से निकल ही चुका है, और अगर वह भारत से युद्ध छेड़ता भी है तो उसका साथ नेपाल की जनता और सेना किसी भी हालत में नहीं देंगी। दशकों से भारत को घेरने के लिए भारत के पड़ोसी देशों को येन केन प्रकारेण अपने पक्ष में करने की चली आ रही चीन की रणनीतिक चालों को पहला झटका मालदीव में हुए आम चुनावों के नतीजों से तब लगा जब मालदीव की जनता ने चीन की गोद में बैठे तत्कालीन राष्ट्रपति को सर्वसम्मति से बाहर कर दिया और मालदीव में भारत समर्थक सरकार को चुन कर दिखा दिया कि उसके हित भारत के साथ जुड़े हैं और वह किसी भी दशा में अपने देश को भारत के विरुद्ध प्रयुक्त नहीं होने देगी। यह चीन की मालदीव में विभिन्न योजनाओं में अरबों रुपया लगा कर मालदीव की जनता को भारतीय प्रभाव क्षेत्र से विमुख करने की रणनीति पर पलीता लगने के समान था।  जिस तरह पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा को सऊदी अरब से बेइज्ज़त होकर खाली हाथ वापस आना पड़ा, उससे चीन स्वयं को विश्व पटल पर अकेला पाकर अभी हतप्रभ ही था कि उसे जोर का झटका धीरे से तब लगा जब श्रीलंका की नवनिर्वाचित सरकार ने स्पष्ट घोषणा की कि वह चीन को हमबनटोटा बंदरगाह को भारत के विरुद्ध किसी भी दशा में सैन्य कार्यों के लिए प्रयोग करने की अनुमति नहीं देगा। उसने यह भी कहा कि हमारे हित भारत के साथ हैं और हम भारत के हितों की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं। यह घोषणा भी भारत की एक बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता है और इसके दूरगामी परिणामों में सबसे पहला परिणाम यह होगा कि बांग्लादेश की भारत से चीनी कूटनीति के कारण थोड़ा विमुख हो रही बांग्ला सरकार अपनी सोच पर पुनर्विचार करने को विवश हो रही है और उसकी विदेश नीति में कल्पनातीत परिवर्तन हो रहे हैं। इसका प्रमाण अभी कुछ दिनों पूर्व बांग्ला देश के प्रवक्ताओं के बयानों से सामने आया है। जहां तक अफगानिस्तान का प्रश्न है, उससे तो भारत के पूर्व से ही अच्छे सम्बन्ध चल रहे हैं। भारत से चीन के सीमा विवादों के चलते म्यांमार भी सतर्क हो गया है और वह भी समझ गया है कि चीन कभी भी उससे लगते सीमा क्षेत्रों को विवादग्रस्त घोषित कर उन्हें हड़प सकता है। हिन्द महासागर में अवस्थित भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों से किसी न किसी बात पर चीन का सीमा विवाद द्वीपों को लेकर या फिर जलमार्गों को लेकर चल ही रहा है और वे अमरीका के झंडे के नीचे एकजुट होकर चीन को सबक सिखाने पर आमादा हो चुके हैं। आज विश्व में स्वयं विकसित मिसाइलों और संसार भर के अच्छे हथियारों को अपने देश में बनाने की नीति के कारण भारत एक शक्तिशाली देश के रूप में स्वयं को प्रतिस्थापित करके इस स्थिति में आ चुका है कि वह चीन से आँखों में आँखें डाल कर बात कर सके जिसका प्रमाण भारत ने गलवान घाटी में दे भी दिया है। भारत के ऐसे जवाब की कल्पना चीन ने कभी की ही नहीं थी। वह तो यह सोच कर आगे बढ़ रहा था कि वह भारत पर दबाव बना कर इस बार फिर उस बिंदु पर बैठ जाएगा जहां से वह भारत की दौलतबेग ओल्डी सड़क और विश्व में सबसे ऊंचे भारत के सैनिक हवाई अड्डे पर नज़र रख सके ताकि चीन अपनी महत्त्वाकांक्षी सड़क योजना (सीपीईसी) की सुरक्षा सुनिश्चित कर सके किन्तु भारत ने अपनी साहसिक कार्यवाहियों से उसके इस सपने को चूर-चूर कर दिया है।  स्थिति यह हो चुकी है कि चीन अब अपने हितों और सम्मान को सुरक्षित रखते हुए किसी ऐसे समझौते की तलाश में है जो विश्व में उसकी छीछालेदर और जग-हंसाई से उसे निजात दिला सके किन्तु भारत किसी भी दशा में एलएसी पर कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं है। ऊपर से भारत अपनी सीमा पर लद्दाख में अपनी सैन्यशक्ति उसी मात्रा में बढ़ाता जा रहा है जितना भारत पर दबाव बढ़ाने के लिए चीन अपनी सैन्य शक्ति में तिब्बत और लद्दाख में वृद्धि कर रहा है। कुल मिला कर आज स्थिति यह है कि चीन के साथ कोई भी बड़ा देश खड़ा नहीं है। भारत की इससे अधिक कूटनीतिक सफलता और क्या होगी कि उसका साम्यवादी मित्र देश रूस भी उसके साथ न होकर भारत के पक्ष में अपने धुरविरोधी अमरीका के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़ा हो गया है। उसने भी स्पष्ट घोषणा कर दी है कि सीमा विवाद के मामले में वह चीन के साथ नहीं, भारत के साथ खड़ा है। (युवराज)