स्वास्थ्य का दुश्मन है शोर 

आज के मशीनी युग में जब कि जेट की गति से जीवन भाग रहा है, हर तरफ शोर ही शोर है। आज की पीढ़ी शोर ही पसंद करती है। शोर उनके लिए जीवन सूचक है।यह विज्ञान का ही चमत्कार है कि आवाज भी नापी जा सकती है। इसे डेसिबल में नापा जा सकता है। एक व्यक्ति पच्चासी डेसिबल तक की आवाज बिना अपने को क्षति पहुंचाए सहन कर सकता है। बड़े शहरों के ट्रैफिक से होने वाली आवाजें करीब साठ से अस्सी डेसिबल तक होती हैं जो झेले जा सकने की श्रेणी मे आती हैं लेकिन कारखानों की भारी मशीनों से होने वाला शोर जो एक सौ बीस डेसिबल या कुछ ज्यादा ही होता है, मानव शरीर और मन दोनों के लिए घातक है जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में असर होता है। अत्यधिक शोर मानव की सोचने-समझने की शक्ति खत्म कर देता है। दिमाग पर लगातार शोर के बरसते हथौड़े खोपड़ी में गूंज कर दबाव बढ़ा देते हैं जिससे जी मिचलाना, चक्कर आना, रातों में नींद न आना जैसे लक्षण प्रकट होते हैं। इसी प्रकार दिल, पाचन क्रि या, दृष्टि आदि पर भी शोर प्रदूषण के दुष्प्रभाव पड़ते हैं। शोर प्रदूषण की समस्या की गंभीरता को देखते हुए कई राज्यों ने शोर नियंत्रण कानून जरूरी कर दिया है। इसके अलावा कारखाने के मालिकों को भी इसे मद्दे नजर रखते हुए शोर करने वाली मशीनों पर शोर कम करने वाले उपकरण लगवाने  चाहिए। मशीन पर काम करने वाले कारीगरों को शोर से राहत के लिए ईयर प्लग और ईयर मफ मुहैय्या कराने चाहिए।  इसके अलावा ऐसी जगह पर कार्यरत लोगों की जगह बदलते रहना चाहिए यानी इनसे लगातार अधिक शोर वाली जगह पर काम नहीं लेना चाहिए।  टी. वी., रेडियो कई लोग बहुत-बहुत जोर से लगाते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं कि इतनी तेज आवाज को सुनने वालों पर और उन पर कितना प्रतिकूल असर होता है।  टी. वी., रेडियो की आवाज हमेशा उतनी ही सही है कि जो कह रहा है उसकी आवाज आपको आराम से सुनाई दे। घटिया किस्म के थिएटरों में आवाज पर ध्यान नहीं दिया जाता।  सरकार के साथ-साथ जन मानस में भी अनचाहे शोर के प्रति जागरूकता होनी चाहिए और इसके दुष्प्रभावों से बचने और उसे दूर करने के लिए सजग प्रयत्नशील होना चाहिए। (स्वास्थ्य दर्पण)