पंजाबी से वितकरा

जम्मू-कश्मीर में सरकारी काम-काज और इस केन्द्र-शासित प्रदेश में पढ़ाई जाने वाली भाषाओं में पंजाबी भाषा को शुमार न किये जाने का मुद्दा संसद के मौजूदा मौनसून अधिवेशन में अब तक कई बार गूंजा है जब दोनों सदनों के सदस्यों ने बार-बार इस मामले को उठाते हुये पंजाबी के पक्ष में ‘हाअ का नारा’ लगाया और पुरज़ोर शब्दों एवं लहज़े में मांग की कि पूर्व की भांति पंजाबी को जम्मू-कश्मीर में सरकारी भाषा के तौर पर मान्यता देकर इसे शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। इस उपलक्ष्य में सर्वाधिक मुखर आवाज़ जम्मू-कश्मीर नैशनल कान्फ्रैंस के प्रधान फारूक अब्दुल्ला की रही जिन्होंने लोकसभा में दावा किया कि पंजाबी पहले भी प्रदेश की सरकारी भाषा रही है। पंजाब में अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी पंजाबी को जम्मू-कश्मीर में पुन: सरकारी भाषा बनाए जाने की पुरज़ोर मांग की।इससे पूर्व एक सरकारी आदेश में इस केन्द्र शासित प्रदेश में कश्मीरी एवं डोगरी के साथ उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी को सरकारी भाषाएं घोषित किया गया था। यह भी यहां एक अजीब तथ्य है कि पूर्ण प्रदेश को विभाजित कर केन्द्र-शासित प्रदेश बने जम्मू-कश्मीर में पांच-पांच सरकारी भाषाएं तो बनीं परन्तु प्रदेश में बड़ी संख्या में एक जन-भाषा एवं सामान्य बोली के तौर पर समझी और बोली जाने वाली भाषा पंजाबी को इससे पूर्णतया अलग रखा गया। स्वाभाविक रूप से इसका विरोध होना था, और विरोध का यह स्वर राष्ट्र-व्यापी तौर पर गूंजा। पूरे देश और खास तौर पर उत्तर भारत के राज्यों एवं पंजाब में इस के विरुद्ध ज़ोरदार ढंग से आवाज़ उठाई गई है, और विभिन्न संगठनों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस मामले के प्रति अपना समर्थन जुटाया है। अब संसद के मौनसून अधिवेशन में पहले ही दिन से इस मुद्दे पर बार-बार  आवाज़ उठना और पंजाबी के प्रति समर्थन की मांग किया जाना इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि इस पर तत्काल रूप से सार्थक विचार किये जाने की बड़ी आवश्यकता है।विगत वर्ष जम्मू-कश्मीर संबंधी विशेष धारा 370 को हटाकर इसका पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म किया जाना जहां एक विवादास्पद फैसला था, वहीं केन्द्र सरकार द्वारा केन्द्र शासित बने इस प्रदेश में पांच-पांच सरकारी भाषाओं की घोषणा और फिर वहां बहुतायत में बोली और समझी जाने वाली भाषा पंजाबी को इस दायरे से बाहर रखा जाना जहां पंजाबी भाषा के साथ अन्याय है, वहीं पंजाबी समुदाय के प्रति भी दुर्भावनापूर्ण प्रदर्शन जैसा है। जम्मू-कश्मीर के जम्मू संभाग में पंजाबी और खास तौर पर सिख बहुतायत में रहते हैं, और ये सिख एवं समूह पंजाबी लोग पंजाबी भाषा ही बोलते हैं। ऐसी स्थिति में पंजाबी भाषा के साथ ऐेसा अन्याय सम्पूर्ण पंजाबी भाईचारे के साथ अत्याचार जैसा है। संसद में इस मामले को गुंजायमान कर पंजाब और पंजाबी के शुभ-चिन्तकों ने यह जता दिया है कि वे इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने वाले नहीं हैं। केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने बेशक इसे मंत्रिमंडल का सामूहिक फैसला करार देकर संविधान की धारा 47 के तहत संसद के चालू अधिवेशन में ही विधेयक पेश करने की बात कही है, परन्तु जिस ढंग से इस मामले को लेकर राष्ट्र-व्यापी और फिर राष्ट्र की सीमाओं से बाहर भी विरोध के स्वर मुखर होने लगे हैं, उससे सरकार का अपने इस उद्देश्य में कामयाब हो पाना सहल प्रतीत नहीं होता।संसद के शून्य काल में इस मुद्दे को उठाते हुए पंजाब के आनन्दपुर साहिब से सांसद मनीष तिवाड़ी ने इस पग को सम्पूर्ण सिख समाज, पंजाबी समुदाय और पंजाबी भाषा का हित-चिन्तन करने वालों के प्रति वितकरा और अन्याय करार दिया है। उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह और जम्मू के तत्कालीन राजा गुलाब सिंह के  समय का ज़िक्र करते हुए संसद में सिद्ध किया कि विगत दो सौ से अधिक वर्षों से जम्मू-कश्मीर में पंजाबी भाषा का वर्चस्व रहा है। राज्यसभा में पंजाब से सांसद प्रताप सिंह बाजवा ने पंजाबी का मुद्दा उठाते हुए इसे जम्मू-कश्मीर में समुचित स्थान दिये जाने की मांग की। उन्होंने इस संबंध में प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा है। हम समझते हैं कि कलम की एक नोक अथवा जिह्वा से बोले गये एक वाक्य से पंजाबी भाषा को समाप्त-प्राय: नहीं किया जा सकता। पंजाबी भाषा का महत्त्व इस प्रदेश में यह भी है कि यहां आज सिर्फ पंजाबी ही बड़े स्तर पर पढ़ी, बोली और समझी नहीं जाती, अपितु पंजाबी की अनेक सहायक एवं उप-बोलियां भी व्यापक रूप से बोली और समझी जाती हैं। वैसे भी 1947 में देश के विभाजन के समय से ही अविभाजित पंजाब से आए लाखों पंजाबी दशकों से यहां रहते/बसते आ रहे हैं, और उनकी मूल भाषा और बोली पंजाबी है। संसद में मनीष तिवाड़ी की इस मांग का प्राय: सभी पंजाबी सांसदों ने समर्थन किया है कि विगत 2 सितम्बर को जारी की गई तत्संबंधी अधिसूचना को रद्द किया जाए अथवा संशोधन कर इसमें पंजाबी भाषा को एक अहम भाषा के तौर पर अधिसूचित किया जाए।  यहां तक कि पंजाब भाजपा के अध्यक्ष अश्विनी शर्मा द्वारा भी केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को पत्र लिख कर पंजाबी को प्रदेश की आधिकारिक भाषा घोषित किये जाने की मांग करना यह दर्शाता है कि केन्द्र सरकार, भारतीय जनता पार्टी और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में भी पंजाबी भाषा के प्रति समर्थन जताने वाले मौजूद हैं। राजनीतिक धरातल पर पंजाब और पंजाबी के प्रतिनिधि संगठन अकाली दल और शिरोमणि अकाली दल डैमोक्रेटिक के प्रधान एवं राज्यसभा सदस्य सुखदेव सिंह ढींडसा ने भी इस अधिसूचना के विरोध और पंजाबी भाषा के समर्थन में ‘हाअ का नारा’ गुंजायमान किया है।हम समझते हैं कि केन्द्र सरकार को तत्काल रूप से दो सितम्बर वाली अपनी इस अधिसूचना को वापिस लेकर पंजाब और पंजाबी के शुभ-चिन्तकों के साथ होने जा रहे इस अन्यायपूर्ण भेदभाव को समाप्त करना चाहिए। यह भी, कि अधिसूचना में संशोधन करके इसमें पंजाबी को भी जम्मू-कश्मीर की एक मान्यता-प्राप्त आधिकारिक भाषा के रूप में तसलीम किया जाना चाहिए। हम यह भी समझते हैं कि यदि ऐसा नहीं होता, तो न केवल यह देश-विदेश के पंजाबी समुदाय की भावनाओं के प्रति अत्याचारपूर्ण अन्याय होगा, अपितु भविष्य में भी पंजाबी समुदाय के मनों में यह मामला अग्नि-शिखा बन कर सुलगता रहेगा।