आत्म-निर्भरता का दायरा बढ़ा सकता है खिलौना उद्योग

खिलौना शब्द स्मरण में आते ही अनेक आकार-प्रकार के खिलौने स्मृति में स्वरूप ग्रहण करने लगते हैं। खिलौनों को बच्चों के खेलने की वस्तु भले ही माना जाता हो, लेकिन ये आकर्षित सभी आयु वर्ग के लोगों को करते हैं। खिलौने जहां बाल मन में जिज्ञासा, रहस्य और रोमांच जगाते हैं, वहीं मन के चित्त को प्रसन्न भी रखते हैं। बच्चे या किशोर एकाकीपन की गिरफ्त में आकर अवसाद के घेरे में आ रहे हों, तो इस अवसाद को समाप्त करने के खिलौने प्रमुख उपकरण हैं। मूक, बधर व मंदबुद्धि बच्चों को खिलौनों से ही शिक्षा दी जाती है। स्वस्थ छोटे बच्चों के लिए तो समूचे देश में खेल-विद्यालय अर्थात ‘प्ले-स्कूल’ खुल गए हैं। ये पाठशालाएं लाखों लोगों को रोजगार देने का काम कर रही हैं। कामकाजी दम्पतियों के बच्चों का लालन-पालन इन्हीं शालाओं में हो रहा है। साफ  है, बच्चों के शैशव से किशोर होने तक खिलौने उनकी परवरिश के साथ, उनके रचनात्मक विकास में भी सहायक  होते हैं। खिलौनों की यही महिमा, इन्हें सार्वभौमिक व सर्वदेशीय बनाती है। अलबत्ता खिलौनों का भारत के परिप्रेक्ष्य में कमजोर पहलू यह है कि हम खिलौना का बड़ी मात्रा में आयात चीन से करते हैं। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खिलौनों के क्षेत्र में देश को आत्म-निर्भर बनने का आह्वान किया है। इस दिशा में यदि हम आगे बढ़ते हैं तो करोड़ों लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही, हमारे बच्चे अपनी सांस्कृतिक विरासत से भी खेलते-खेलते परिचित होंगे और बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा बचेगी। भारत में खिलौना निर्माण का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में अनेक प्रकार के खिलौने मिले हैं। ये मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, धातू, चमका, कपड़े, वन्य जीवों की हड्डियों व सींगों और बहुमूल्य रत्नों से निर्मित हैं। जानवरों की असंख्य प्रतिकृतियां भी खिलौनों के रूप में मिली हैं। रामायण, महाभारत और उप-निषदों में भी खिलौनों से विद्यार्थियों को शिक्षित करने के प्रसंग हैं। भगवान कृष्ण की बाल लीलाएं तो इतनी अनूठी हैं कि ये बाल मनोविज्ञान का पूरा शास्त्र हैं। कृष्ण ने यमुना नदी में कालिया नाग का मर्दन नदी में गेंद के डूब जाने पर ही किया था। भक्ति-कालीन कवि सूरदास ने कृष्ण की लीलाओं पर जो पद लिखे हैं, बालकों के अंतर्मन को समझने के इनसे श्रेष्ठ उदाहरण दुनिया में लिखी गई बाल-मनोविज्ञान की किताबों में नहीं हैं। पंचतंत्र, हितोपदेश और जातक कथाएं भी वन्य-प्राणियों को मानवीकरण कर लिखी ऐसी बाल-सुलभ कहानियां हैं, जो राजनीति, मनोविज्ञान और बहादुरी से बच्चों को परिचित कराती हैं।  संकट में प्रति उत्पन्नमति (आईक्यू) क्या हो, इनसे उत्तम व रोचक वर्णन विश्व-साहित्य में ढूंढना मुश्किल है।  इसके बावजूद हम हैं कि बाल-मनोविज्ञान को जानने के उपाय विदेशी साहित्य में तलाशते हैं और उसे ही पढ़ते-पढ़ाते हैं। इस दृष्टि से अकबर-बीररबल, तेनालीराम और कठ-पुतलियों का खेल भी ज्ञानवर्द्धक खिलौनों का हिस्सा हैं।  ‘मन की बात’ की 68वीं कड़ी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वैश्विक खिलौना उद्योग सात लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा का है, लेकिन इसमें भारत की हिस्सेदारी न्यूनतम है। यदि खिलौनों के निर्माण में हमारे युवा लग जाएं तो ग्रामीण व कस्बाई स्तर पर हम ज्ञान-परंपरा से विकसित हुए खिलौनों के व्यवसाय को पुनर्जीवित कर सकते हैं। ये खिलौने हमारे लोक-जीवन, संस्कृति-पर्व और रीति-रिवाजों से जुड़े होंगे। इससे हमारे बच्चे खेल-खेल में भारतीय लोक में उपलब्ध ज्ञान और संस्कृति के महत्व से परिचित होंगे। दूसरी तरफ रबड़, प्लास्टिक व डिजीटल तकनीक से जुड़े खिलौनों का निर्माण स्टार्टअप के माध्यम से इंजीनियर व प्रबंधन से जुड़े युवा कर सकते हैं। खिलौना उद्योग से जुड़े परम्परागत उद्योगपति अत्यंत प्रतिभाशाली व अनुभवी होतो हैं, इसलिए वे इस विशाल व्यवसाय में कुछ नवाचार भी कर सकते हैं। इस व्यापार में अनंत संभावनाएं हैं। दरअसल भारत में संगठित खिलौना बाजार शुरुआती चरण में है, लेकिन इसमें बहुत तेजी से विकास हो रहा है। इसमें प्रतिवर्ष 10 से 12 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की जा रही है। फन स्कूल इंडिया कंपनी की इस बाजार में प्रमुख भागीदारी है। यह कंपनी विदेशी खिलौनों का वितरण भी भारत में करती है।  इधर प्रधानमंत्री ने घरेलू खिलौना उद्योग को बढ़ावा देने के लिए खिलौनों का उत्पादन स्वदेश में ही बढ़ाने का आह्वान करके चीन को बड़ा झटका दिया है। लेकिन सरकार यदि वाकई चीनी उद्योग और उद्योगपतियों को पछाड़ना चाहती है और देसी उद्योगपतियों व नवाचारियों को प्रोत्साहित करना चाहती है तो नीतियों को उदार बनाने के साथ प्रशासन की जो बाधाएं पैदा करने की मानसिकता है, उस पर भी अंकुश लगाना होगा। तभी उद्यमिता विकसित होगी। दरअसल प्रोत्साहन और आत्मविश्वास ही आत्मनिर्भरता के द्वार खोलने की कुंजी है।  

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