सिर छुपाने के लिए छत को तरसता आम आदमी

कुछ दिन पूर्व ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह आदेश दिया गया कि दिल्ली और एनसीआर में रेलवे लाइनों के पास बनी 48 हज़ार झुग्गी-झोपड़ियों को चार सप्ताह के भीतर गिरा दिया जाए या वहां से झुग्गी झोंपड़ी समाप्त कर दी जाए। हम सब यह आदेश सुनते ही दुखद आश्चर्य में भी पड़े और आंखों के आगे यह दृश्य आया कि अगर पांच व्यक्ति भी एक झोपड़ी में रहते होंगे तो लगभग अढ़ाई लाख बच्चे, बूढ़े, युवक-युवतियां नीली छत के नीचे आ जाएंगे और कहीं फिर वैसा ही दृश्य पैदा न हो जाए जैसा पिछले लॉकडाउन के दिनों में देखा कि लोग सिर पर सामान उठाए नंगे पैर, भूखे पेट अपने गांवों की ओर चल पड़े थे। न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी प्रकार का राजनीति का प्रभाव उनके आदेश पर नहीं पड़ना चाहिए। यहां तक तो सही था पर बहुत अच्छा होता अगर न्यायालय यह भी पूछ लेता कि किस-किस राजनेता ने सबसे पहले दो-चार नहीं, लाखों लोगों को वहां घर बनाने और बसने की आज्ञा दी। 
एक सरकारी झूठ और भी सामने आ गया कि यह पंजाब व हरियाणा समेत सभी क्षेत्र खुले में शौच मुक्त हो गए हैं। प्रांत के बाकी हिस्सों को तो देखना ही क्या। जरा सोचिए कि क्या इन बेचारे दो लाख लोगों के लिए वहां कोई शौचालय है या रात के अंधेरे में रेलवे की पटरियां ही इनका आसरा हैं। सीधी बात यह है कि जहां कहीं भी लोग अवैध रूप से बसते हैं या बसाए जाते हैं, उनमें किसी न किसी वोट पाने वाले नेता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आसरा मिलता है। रेलवे से भी एक सवाल है कि क्या ये 48 हजार झुग्गियां एक ही दिन में बन गईं? संभवत: 48 वर्ष लगे होंगे इतने लोगों को वहां घर बनाने में। आखिर इन्सान को जीने के लिए जमीन का एक टुकड़ा और सिर पर छत तो चाहिए-वह टीन की हो या टाट की। 
भारत की जनता को विशेषकर जो जागरूक नागरिक हैं, यह समझ लेना चाहिए कि दो दिन पूर्व फरीदाबाद में बेरहमी से सरकारी आदेश पर बुलडोज़र चला। वह बुलडोज़र नहीं था, अपितु सैकड़ों परिवारों की मेहनत की कमाई का खून था और परिवारों को उजाड़ने का गैरकानूनी न सही, गैर-इन्सानी ढंग था। कोई सत्तापति सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर ले, प्लॉट बेच दे या फ्लैट बना-बनाकर खुद नोट कमा ले और जब सरकारी तंत्र हरकत में आए तो उनके मकान तोड़े जाएं, जिन्होंने मेहनत की कमाई से खरीदा है। क्या यह नहीं होना चाहिए कि पहले उन्हें जेल में बंद किया जाए जिन्होंने इन ज़मीनों को बेचा और मकान बनाए या बनवाए। 
पंजाब के चमकौर साहिब में भी ऐसा ही बुलडोज़र चलता दिखाई दिया। हो सकता है, खाली पड़ी पंचायत की ज़मीन पर मकान बना लिए गए हों, पर पंच-सरपंच, क्षेत्र के विधायक उस समय क्यों आंखें बंद रखते हैं जब ये मकान बनते हैं। वोटों के लिए मौन आज्ञा दी जाती है और फिर सरकारी आज्ञा से नहीं बल्कि किसी जागरूक नागरिक अथवा आरटीआई कार्यकर्ता की अदालत में दी याचिका के बाद अपनी नाक बचाने के लिए या अदालतों के दंड से बचने के लिए उनकी मेहनत से बने घरौंदे गिरा दिए जाते हैं।  वैसे सरकारें देखती नहीं, ऐसा नहीं माना जा सकता। देखकर भी न देखना उनकी आदत या राजनीतिक मजबूरी है। पंजाब के सैकड़ों गांवों में जो ग्रामीण जीवन के लिए आवश्यक छप्पड़ बने रहते थे, उनमें से भी बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया गया। यह कब्जा तस्करी की तरह अंधेरे में नहीं होता। हो सकता है, गृह प्रवेश पर क्षेत्र के जनप्रतिनिधि भी उनके साथ खड़े रहे हों, पर ये कब्जे एक बार हो जाएं तो फिर कोई इन्हें हटा भी नहीं सकता। 
सरकारों से एक ही सवाल है कि अवैध जिसे कहते हैं, सरकारी या पंचायती ज़मीन पर मकान खड़ा करना, उसे पहले ही रोकना किसकी जिम्मेवारी है? जो नहीं रोकता, असली दोषी वह है। मेरी पंजाब सरकार और देश की अन्य सरकारों को खुली चुनौती है कि वह एक-एक शहर चुन लें। पंजाब सरकार अमृतसर और लुधियाना ही चुन ले। हर रोज यह सुनने में आता है कि नगर निगम अवैध निर्माण तोड़ने जा रहा है। टूटते कम और बनते ज्यादा हैं। एक रस्म पूरी करके दो चार ईंटें गिराकर वापस आ जाते हैं और फिर जब ऊपर-नीचे से फोन आते हैं या जिन्होंने चुनावी चंदे लिए होते हैं, उनके आदेश से यह सब रुकता है। पर्यटन की दृष्टि से अमृतसर महत्वपूर्ण शहर हो गया। घर होटलों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। इनमें से कितने होटल, विश्रामघर या आरामघर नियम अनुसार बने, यह बताने की हिम्मत लोकल सेल्फ  गवर्नमेंट के किसी अधिकारी में नहीं, मंत्री में भी नहीं। क्षेत्र का विधायक तो कभी नहीं बताएगा। सरकारें देश के कुछ महत्वपूर्ण जिले चुनें और वहां सर्वेक्षण करवाएं। अवैध कब्ज़ों और अवैध निर्माण की सारी पोल खुल जाएगी। यह ठीक है कि झोंपड़ियां गरीब की ही टूटेंगी, पर गरीब क्या करें, उन्हें तो पिछले चुनाव में आश्वासन मिल गया था कि जहां झुग्गी, वहीं मकान। किसी ने यह नहीं सोचा था कि रेलवे लाइनों के आसपास इतने मकान कैसे बनेंगे।  अपने अमृतसर में ही सेना की ज़मीन पर पिछले पचास वर्षों में कितने मकान बन गए। सैकड़ों नहीं, शायद हज़ारों। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि हर चुनाव में दस बीस नए मकान बनते रहे। बसना तो आखिर गरीब को है, वोट दिए, मकान लिए। रेलवे की ज़मीन पर भी इसी तरह सरेआम कच्ची नहीं, पक्की झोंपड़ियां बन गई हैं। इसी सड़क से सारे अधिकारी, सारे नेता दिन में कई बार आते-जाते, दुआ-सलाम करते दिखाई देते हैं, पर जिस दिन सेना या रेलवे कोई आदेश लागू करने आएगी, उस दिन अवश्य ही ऐसे राजनीतिक समर्थक शहर से वैसे ही गायब हो जाएंगे जैसे बरसात के बाद मेंढक। 
 देश में जो नहीं होना चाहिए, वैसा हो रहा है, क्योंकि सत्ता सम्पन्न लोग सब्ज़बाग दिखाते हैं। कमजोर, बेसहारा उस लालच में फंसकर अंत में केवल रोने तड़पने को मजबूर होता है। वैसे एक अच्छा कार्य यह हुआ है कि दिल्ली और केंद्र सरकार ने अभी अढ़ाई लाख लोगों को बेघर, या कहिए कि बेझोंपड़ी होने से बचा लिया है। लोग नहीं बचे, सरकार भी बची है, यह याद रखना चाहिए।