शहीद-ए-आज़म की कहानी रणबीर सिंह की ज़ुबानी

रणबीर सिंह (1925-1988) शहीद भगत सिंह के छोटे भाई थे। वह भगत सिंह की शहादत के समय सिर्फ पांच वर्ष के थे। अपने भाई से इतने प्रभावित थे कि वह भगत सिंह के जीवन पर चरित्र के बारे कुछ कागज़ों पर टिप्पणियां लिखते रहते थे। लोकगीत प्रकाशन वाले हरीश जैन को किसी ढंग रणबीर सिंह के ग्रेटर नोएडा निवासी पुत्र सेवा-मुक्त मेजर जनरल शियोनोन सिंह से उर्दू भाषा में लिखा पुलिंदा मिल गया, जिसे जैन ने पंजाबी में अनुवाद करवाने के बाद श्रंखलाबद्ध जोड़ कर पुस्तक का रूप दे दिया है, रणबीर सिंह द्वारा ही दिये ‘सरदार भगत सिंह की जीवनी’ शीर्षक के अन्तर्गत। वह अपने पूर्वजों पर आर्य समाज लहर का पूरा प्रभाव बताते हैं परन्तु जहां कहीं भी परिवार के किसी सदस्य के बारे लिखते हैं तो उसके नाम के साथ सरदार जोड़ना नहीं भूलते। वैसे उनके मेजर जनरल बेटे के लिखने के अनुसार उन्होंने ्अपने परिवार के विरोध के बावजूद विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करने के लिए जिस महिला के साथ विवाह करवाया, वह केवल विधवा ही नहीं बल्कि दूसरी जाति की भी थी। बेटे के लिखने के अनुसार 1988 में भी उन्होंने श्रीलंका में भारत के हस्तक्षेप  के समय अपने मेजर जनरल बेटे की इनवैस्टीचर रस्म में शिरकत नहीं की थी, क्योंकि वह सैद्धांतिक तौर पर भारत के हस्तक्षेप को अनावश्यक तथा बेमायना समझते थे। वह श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहलियां द्वारा तमिलों पर किये जा रहे ज़ुल्मों के खिलाफ थे और जीत के जश्न को अनैतिक समझते थे। पांच वर्ष की आयु में रणबीर सिंह के कानों में दोषियों पर पुलिस का लाठीचार्ज, इंकलाब ज़िन्दाबाद के नारे, हथकड़ियों के खटकने की आवाज़ें, अदालतों का उठ जाना तथा अन्य शोर-शराबा ही होता रहा था। उनके आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के समय उनके बड़े भाई कुलबीर सिंह मुल्तान (अब पाकिस्तान) में किसान कांफ्रैंस की अध्यक्षता पर भाषण देने के आरोप में अढ़ाई वर्ष की सज़ा काट रहे थे। उनसे छोटा कुलतार भी 1940 में नज़रबंद कर दिया गया था। उनके विधायक पिता किशन सिंह को अधरंग हो चुका था नहीं तो उनके साथ भी कम नहीं होना था। घर संभालने की पूरी ज़िम्मेदारी रणबीर सिंह पर थी परन्तु उनके पांचवीं कक्षा में पढ़ते समय से ही उनका नाम भी सी.आई.डी. रजिस्टर में डब्ल स्टार वाला संदिग्ध होने के रूप में दर्ज था। यहां तक कि 1943 में ब्रैडला हाल वाले कांग्रेस के कार्यालय से उनको भी गिरफ्तार कर लिया गया। हरीश जैन को मिले पुलिंदे में कुछ कागज़ों की कई चिप्परें ऐसी भी मिलीं, जिन पर एक या दो पंक्तियां ही लिखी हुई थीं। जैसे कालू शाह की दुकान पर दूध में पिस्तौल फैंक दिया...मुज़फ्फर अहमद ने बंगाली में लिखे लेख में उसने भगत सिंह के साथ अपने मुखत्सर संबंध लिखे हैं...भानू दत्त रात को हीरा मंडी जा कर बांसुरी बजाता है और पैसा ला कर पार्टी को दे देता... दास ने कहा मेरी अर्थी ‘राम नाम सत्य’ कह कर नहीं  ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ कह कर ले जाई जाए, आदि। इस पुलिंदे में कई अधूरे पृष्ठ ़गदर लहर के बारे भी हैं, जिनमें वुड स्ट्रीट, सान्फ्रांसिस्को के छापाखाने, लाला हरिदयाल, श्री राम चन्द्र पिशौरी, रूसी एवं अमरीकी विद्रोहियों तथा कम्युनिस्टों के आपसी संबंधों, भाई भगवान सिंह तथा मौलवी बरकतुल्ला के जापान तथा अमरीका चले जाने पर हिन्दी एसोसिएशनों द्वारा 1913 में सैक्रामैंटो में किये गये जलसे के अतिरिक्त श्री चन्द्र शेखर आज़ाद की गतिविधियों का विस्तृत ज़िक्र है। निम्नलिखित शेअर सहित : 
‘कलेजे से लगी गोली तों होठों पर हंसी आई
बहारों ने चमन में बैठ कर जो ली हो अंगड़ाई
यह किस अंदाज़ से चूमा है तुम ने मौत का दामन
कि जिस को देख कर ज़िन्दगी को शर्म आई,
सन् सैंतालीस तक भगत सिंह का यह छोटा भाई जेलें काटता और पारिवारिक ज़िम्मेदारियां निभाता हुआ 22 वर्ष की आयु तक बड़े भाई के आदर्शों को दामन से बांध कर प्रसन्न होता रहा चाहे उसे अंग्रेज़ी शासकों ने भगौड़ा करार देकर, एक पड़ाव पर, उसके सिर पर बीस हज़ार रुपये ईनाम भी रखा। याद रहे कि उस समय के बीस हज़ार रुपये वर्तमान में लाखों-करोड़ों के बराबर थे। 
लोकगीत प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में और भी बहुत कुछ है। पढ़ो तो जानो!
भाई मन्ना सिंह बनाम गुरशरन सिंह भाजी
प्रसिद्ध नाटककार स्व. गुरशरन सिंह को उक्त दो नामों से अधिक जाना जाता है। उनके पीछे पत्नी कैलाश कौर तथा दो बेटियां नवशरण कौर एवं अरीत हैं। बेटियां अपने-अपने घर क्रमश: नई दिल्ली एवं महरौली रहती हैं और पत्नी कभी पहली के पास होती है और कभी दूसरी के पास। परिवार ने गुरशरन सिंह की मुहिमों तथा उपलब्धियों को समक्ष रखते हुए उनके 43 सैक्टर, चंडीगढ़, वाले घर को आर्ट गैलरी का रूप दे रखा है। उन्होंने इसकी संभाल तथा देख-रेख की ज़िम्मेदारी पंजाबी रंगमंच के प्रसिद्ध हस्ताक्षरों शबदीश तथा अनिता शबदीश को दे रखी है, जहां गाहे-बगाहे गुरशरन सिंह के समर्थक, मित्र तथा साथी चक्कर लगाते रहते हैं। शबदीश जोड़ी आने-जाने वालों का स्वागत भी करती है। प्यार तथा प्रसन्नता से मुझे गत दिवस उनके निधन के दिन उनके बारे प्रिंट मीडिया में उनके अनन्य भक्त केवल धालीवाल का अर्थ भरपूर लेख भी पढ़ने को मिला और मैंने चंडीगढ़ स्थित आर्ट गैलरी भी देखी। बहुत अच्छा लगा, यह सोच कर और भी कि अब पंजाब के लोग भी अपने नायकों को बाहरी देशों के लोगों की तरह अपनी यादों में बसाने लग पड़े हैं। बहुत खूब!

अंतिका
(डा. रविन्द्र की ‘चेहरा चेहरा मैं’ में से)
किरत कीती जदों करतार ने करतारपुर आ के
हनेरा चीरिया सूरज ने फिर असमान ’ते छा के 
कोई तलवार न खंजर, न कोई दूसरा हथियार
उहने सोधी लोकाई शब्द का नश्तर चला के 
ओहदे मत्थे ’च सगली सृष्ट सी, पैरां ’च ऊचा सी
उस आलम फतेह कीता, गोष्टी संवाद रचा के।