लोकतंत्र और विचारधारा

जब जुलाई 1991 में डा. मनमोहन सिंह ने नयी आर्थिक नीति को देश की प्रगति के लिए चुन लिया और भारत में निजीकरण, उदारीकरण और विनिवेशीकरण की धारायें उग्र होकर सामने आयीं, तब मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ लोकतंत्र भी प्रश्नांकित हुआ। जब वी.पी. सिंह की सरकार को बनाए रखने के लिए वामपंध और दक्षिणपंथ दोनों बाहर से अपना समर्थन देते हैं, तब लोगों को समझ आ गई कि विचारधारा का अंत घोषित हो गया है। लोकतंत्र का अर्थ केवल मतदान नहीं होता। मतदान पाने तक नेता जनता के आगे झुके रहते हैं। बाद में एक-एक काम के लिए जनता को झुकना पड़ता है जबकि मतदान पाने के लिए नेता जनता को आश्वासन दे चुके होते हैं। लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ तभी सामने आता है जब चुनी गई सरकार अपने कार्यों को व्यावहारिक रूप देती है। गठबंधन सरकारों का नियमन प्राय: सत्तारूढ़ दल की विचारधारा पर ही निर्भर करता है कि वह विभिन्न पार्टियों के अन्तर्विरोधों का हल कैसे करती हैं, कितना करती हैं। व्यवहार में कितना सम्मान दूसरे घटकों को मिलता है। 1971 से 1977 तक इंदिरा जी का नेतृत्व रहा है। वह सत्ता में गरीबी हटाओ का नारा लेकर आई थीं परन्तु अनेक कारणों से इसे साकार न कर पायीं। जो अन्तर्विरोध उभरे, उनसे जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण कार्य के तेवर लोगों ने देखे। बाज़ारवाद जब हावी होता चला गया, उसके वर्चस्व की आवाज़ विभिन्न विद्वानों के भावों में प्रगट हुई। लेखक, चिन्तक, आलोचक, विनोद शाही ने कहा, नस्लों, जातियों, धर्मों, सम्प्रदायों, लैंगिक विभेदों, व्यवसायों, क्षेत्रीय विविधताओं, कबीलों-मूलनिवासियों  के संरक्षण की ज़रूरतों आदि के रूप में सत्ता समीकरणों में अधिक भागीदारी करने और विकास को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने की जो नयी राजनीतिक ज़रूरतें पैदा हो रही हैं, उनका नियोजन-पुनर्योजन अब परम्परागत जनतंत्रों या समाजवादी सत्ता माडलों के बस की बात नहीं रह गई है। इन परम्परागत राजनीतिक सत्ता मॉडलों पर अब बाज़ार पहले से कहीं अधिक काबिज हुआ नज़र आता है। थोड़ा ध्यान से देखेंगे तो आपको राजनीतिक पार्टियों के शक्ति सम्पन्न नेताओं के बीच आगे आने, अधिक उभरने की ललक बनी रहती है। प्रतिद्वंद्वी नेताओं के बीच ईर्ष्या, जलन बनी ही रहती है। इस चक्कर में पार्टी के कार्यों में जोश इस लिए भी बना रहता है कि नये आने वाले ऊर्जावान, नया कुछ कर गुज़रने की इच्छा के साथ आने वालों के साथ काफी दिक्कतें रहती हैं।  वे सही योजना बना कर जनता के लिए ज़्यादा कुछ सार्थक कर सकते हैं, परन्तु चापलूस किस्म के लोग इतनी जगह घेरे रहते हैं कि उनको अपना सब कुछ निरर्थक लगने लगता है। इस तरह कार्यक्षमता और नयी योजना दोनों का दम घुटने लगता है, जो लोकतंत्र के लिए हर तरह से नुक्सानदेह है। सभी बड़े नेताओं को वफादार सदस्यों की ज़रूरत होती है। वफादारी की शर्त योग्यता नहीं है। योग्य लोग वफादारी निभाने में चूक जाते हैं। परन्तु ऐसे में योग्यता पीछे रह जाती है। वफादारी (आंख, नाक, मुंह बंद) हावी रहती है और सुविधाओं से भरपूर रहती है। लोकतंत्र में पावर का महत्व काफी रहता है। नितीश कुमार के जीवनी लेखक अरुण सिन्हा ने स़ाफगोई से कहा  है कि लालू प्रसाद यादव शुरू में ही समझ चुके थे कि अगर आप पावर में नहीं हैं तो आपको कोई नहीं पूछेगा। कई दशक गुज़र जाने पर नितीश कुमार को यह याद रहा। किसी भी तरह वह पावर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। पावर का मतलब लोगों ने साफ-साफ देखा है। लोकतंत्र सच्चा लोकतंत्र तभी रह पाता है, जब जनमानस की भावनाओं को समझा जाए और उनकी पीड़ा को हल करने का हर मुनासिब यत्न किया जाए। विचारधारा लोकतांत्रिक दलों की जान होती है परन्तु अक्सर विचारधारा को न तो ज्यादा खोला जाता है, न ही उस पर अमल किया जाता है। उस पर बहस की गुंजाइश तो होती ही नहीं। लोकतंत्र और विचारधारा के बीच जो सम्बंध होने चाहिएं वे नहीं होते या  नहीं रहते। सभी लागू करने वाले सुविधापूर्ण ढांचा खोजते हैं।