किसान आन्दोलन को लेकर गंभीर नहीं केन्द्र सरकार

खतरे के निशानात अभी दूर हैं लेकिन,
सैलाब किनारों पे मचलने तो लगे हैं।
पंजाब का किसान आन्दोलन जिस तरह चल रहा है और जिस तरह इससे निपटने के लिए केन्द्र सरकार आश्चर्यजनक  तौर पर ‘ठंडा’ रवैया अपना रही है, उससे पंजाब की स्थिति निदा फाज़ली के उक्त शेअर जैसी लग रही है। यह लड़ाई विशुद्ध आर्थिक लड़ाई नहीं है। यह केन्द्र और प्रांतों के अधिकारों की लड़ाई भी बनती जा रही है। इस तरह लगता है कि केन्द्र सरकार का रवैया किसानों को थका कर आन्दोलन के खत्म करने का है। अंग्रेज़ी की एक प्रसिद्ध कहावत है ‘गिव हिम एनफ रोप एंड ही विल हैंग हिमसैल्फ’ जिसके शाब्दिक अर्थ हैं कि उसे काफी लम्बी रस्सी दे दें और वह स्वयं फांसी लगा लेगा अर्थात् ‘अपनी मौत आप मर जाएगा।’ हालांकि पंजाब का प्रत्येक वर्ग इस आन्दोलन का समर्थन कर रहा है। किसानों ने दो सप्ताह से गाड़ियां रोकी हुई हैं परन्तु केन्द्र सरकार नि:सन्देह इस प्रति ‘चिंतित’ होने का दिखावा कर रही है परन्तु वास्तव में उसका पूरा ज़ोर यह समझाने पर लगा हुआ है कि कृषि बारे नये बनाए कानून किसानों के पक्ष में हैं। अभी तक केन्द्र सरकार के रवैये से नहीं लगता कि वह इस मामले में पीछे हटने को तैयार है परन्तु सच्चाई यह है कि किसान विशेषकर पंजाब के किसान इन तीनों कानूनों को अपनी बर्बादी के फरमान समझ रहे हैं। इस लिए वे आर-पार की लड़ाई लड़ने की तैयारी में हैं। हम समझते हैं कि केन्द्र सरकार जब बार-बार यह कह रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) पर सरकारी खरीद जारी रहेगी तो इस बात को मंडियों वाले कानून में एक लाइन डाल कर किसानों को सन्तुष्ट क्यों नहीं कर देती? सरकार को हठ और अहम शोभा नहीं देता। लोगों की संतुष्टि कराना सरकारों का फज़र् है। 
‘एक आंसू भी हकूमत के लिए खतरा है, 
तुम ने देखा नहीं आंखों का समंदर होना।’
किसान संघर्ष : सुचेत होने की आवश्यकता
नये बने तीन कानूनों के खिलाफ लोगों में स्वत:-स्फूर्त रोष है। किसान इस संघर्ष को आर-पार की लड़ाई के तौर पर देख रहे हैं परन्तु यह संघर्ष कर रहे संगठनों के सचेत होने तथा अनुशासित रहने की आवश्यकता है। जब 29 किसान संगठनों ने बातचीत करने हेतु 7 व्यक्तियों की टीम चुन ही ली, तो बातचीत में  शेष व्यक्तियों को नहीं बोलना चाहिए था। हमारी जानकारी के अनुसार कल दिल्ली में बातचीत करने हेतु जाते समय इन 7 प्रतिनिधियों के साथ सलाह करने के लिए अन्य संगठनों के कुछ प्रमुख नेताओं का जाना तो उचित है परन्तु कई संगठनों द्वारा सात-सात, आठ-आठ नेता लेकर जाना तथा मीटिंग हाल में शामिल होना कोई अनुशासन का दिखावा नहीं था। सफलता से बातचीत पूरी तैयारी करके गए कुछ व्यक्तियों की टीम ही कर सकती होती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि पंजाब में अधिकतर किसान सिख हैं परन्तु यह लड़ाई कोई सिख मामला नहीं है। इन कानूनों से नुक्सान भी सिर्फ सिखों का ही नहीं, बल्कि समूचे पंजाबियों का होना है। इसका पहला नुक्सान आढ़तियों को होगा, दूसरा नुक्सान ट्रांसपोर्टरों को होगा। मज़दूरों के खिलाफ भी कानून बन रहे हैं। इसलिए भविष्य की चिन्ता करते हुए किसान संगठनों से निवेदन है कि वे आढ़तियों, ट्रांसपोर्टरों  और समाज के अन्य वर्गों में से संजीदा, समझदार और ईमानदार माने जाते कुछ गैर-सिख व्यक्तियों को भी इस संघर्ष के नेताओं की टीम में शामिल करें, ताकि यह लड़ाई किसी भी हालत में ‘सिख बनाम केन्द्र सरकार’ न बनाई जा सके। फिर किसान नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल किसानों के पक्ष में बोलने वाली राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों को भी मिले। उनके अलग-अलग कार्यक्रम देने के स्थान पर संयुक्त संघर्ष में शामिल होने के लिए मनाने के यत्न करे। 
सोम प्रकाश एवं पुरी की कोशिश और बातचीत
हमारी जानकरी के अनुसार केन्द्रीय राज्य मंत्री हरदीप सिंह पुरी तथा सोम प्रकाश किसानों तथा केन्द्र सरकार के मध्य बातचीत करवा कर संकट के समाधान हेतु गंभीर यत्न कर रहे हैं। कृषि सचिव संजय अग्रवाल का दूसरा पत्र भी उनकी कोशिश का ही परिणाम था। वह किसान नेताओं के अतिरिक्त कई बुद्धिजीवियों के साथ भी बातचीत कर रहे हैं। इस बातचीत में केन्द्रीय कृषि मंत्री के शामिल होने के संकेत भी दिये गये थे परन्तु पता चला है कि किसान एम.एस.पी. पर खरीद के बारे कानून संशोधन करके गारंटी लेने से कम कुछ भी मानने को तैयार नहीं दिखाई दिये, जबकि केन्द्रीय कृषि मंत्री को यह बात मानने के अधिकार प्रधानमंत्री द्वारा नहीं दिये गए थे। इसलिए ही स्थिति को भांपते हुए शायद वह बातचीत में  शामिल नहीं हुए थे। वैसे कृषि मंत्री द्वारा बातचीत में शामिल होने का कोई वादा भी नहीं किया गया था। किसान नेताओं ने बहिष्कार करते समय ठीक कहा कि कृषि सचिव तथा साथी तो कानून लागू करवाने की मशीनरी हैं। बातचीत तो कानून बनाने वालों के साथ ही सफल हो सकती है। 
विधानसभा का प्रस्ताव
अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने कृषि कानूनों के पंजाब में अप्रभावी बनाने तथा संघीय ढांचे को कमज़ोर करने से रोकने हेतु 19 अक्तूबर को पंजाब विधानसभा में प्रस्ताव पारित करने का फैसला कर लिया है। यह लगभग स्पष्ट है कि भाजपा के तीन विधायकों के अतिरिक्त सभी विधायक इस प्रस्ताव की प्रौढ़ता करेंगे। फिर भी मुख्यमंत्री को चाहिए कि पेश किये जाने वाले प्रस्ताव के बारे पहले ही विरोधी पार्टियों तथा किसान संगठनों के चुने गए 2-3 प्रतिनिधियों की राय भी अवश्य ले लें ताकि सहमति भी बन सके और पानी के समझैते रद्द करने के समय जैसी कोई गलती न हो जाए, जिसमें हम ने पहली बार विधानसभा की मुहर लगा कर कानूनी तौर पर अपना केस कमज़ोर कर लिया कि राजस्थान तथा अन्य राज्यों को जितना पानी जा रहा है, जाता रहेगा जबकि रायपेरियन कानून के अनुसार ये प्रांत पंजाब की मज़र्ी के बिना एक बूंद भी पानी लेने के हकदार नहीं। 
पंजाब कांग्रेस का आंतरिक संकट
नि:सन्देह कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की सरकार को कोई चुनौती नहीं, परन्तु पंजाब विधानसभा चुनावों में सवा साल ही रहने के कारण कांग्रेस हाईकमान पंजाब कांग्रेस की फूट से परेशान है। राहुल गांधी की उपस्थिति में नवजोत सिंह सिद्धू तथा सुखजिन्दर सिंह रंधावा में हुई नोक-झोक के बाद यह प्रभाव बन गया था कि अब सिद्धू के लिए कांग्रेस में कोई जगह नहीं रही परन्तु वास्तव में यह प्रभाव गलत है। अभी भी सिद्धू के राजनीतिक पुनर्वास की बात गंभीरता से चल रही है। सिद्धू को मंत्रिमंडल में वापस लेने पर सहमति बन रही है। मंत्रिमंडल में बड़ा फेरबदल होने की सम्भावना है और 2 या 3 मंत्रियों की छंटनी होने की भी चर्चा है, जबकि पंजाब कांग्रेस  के नये अध्यक्ष की तलाश संबंधी भी चर्चा हो रही है। इस दौड़ में 2 मंत्रियों सहित कुछ अन्य व्यक्ति भी शामिल बताए जा रहे हैं। 

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