गठबंधनों के इर्द-गिर्द घूमते हैं इस बार बिहार के चुनाव

‘बिहार में का बा’ सोशल मीडिया पर नेहा सिंह का गाया यह भोजपुरी गाना जैसे बिहार में उलझे राजनीतिक ताने-बाने  की ओर ही संकेत कर रहा हो। बिहार में इस बार राजनीतिक पार्टियां नहीं अपितु गठबंधन—उसमें भी गठबंधन के भीतरी गठबंधन तथा गठबंधन के बाहरी गठबंधन ही चुनाव मैदान में हैं। 
सभी राजनीतिक पार्टियों को पता है कि मतदाताओं का सामना अकेले करने की क्षमता किसी में नहीं है। न तो सत्ता पक्ष जद (यू) अपनी कार्यगुज़रियों के दम पर वापसी कर सकता है, न ही भाजपा बिना दलित चेहरे के प्रदेश में अपने-आप को सत्ता में ला सकती है और न ही विरोधी पक्ष पिछले 5 वर्षों में अपने-आप को सत्ता पक्ष के विकल्प के रूप में स्थापित कर सके हैं। अपनी कमज़ोरियों पर पार पाने के लिए ेएक-दूसरे की ओर ताक-झांक कर रहे हैं। 
17वें विधानसभा चुनावों के मुहाने पर खड़े बिहार प्रदेश में 6 गठबंधन चुनाव मैदान में हैं, जिनमें जनता दल (यू) तथा भाजपा, राजग गठबंधन का हिस्सा हैं। सीटों के वितरण के दौरान ही भाजपा उस समय मज़बूत होकर उभरी थी, जब गिनती-मिनती में वह जनता दल (यू) के बराबर की सीटें हासिल करने में सफल हो गई। बिहार में छोटे भाई के स्थान पर बराबरी का दर्जा हासिल करने वाली भाजपा के हिस्से प्रदेश की कुल 243 विधानसभा सीटों में से 121 सीटें आई। जबकि जनता दल (यू) के हिस्से 122 सीटें आईं। इस सौदेबाजी में दोनों पक्ष एक-दूसरे की कमज़ोर नब्ज़ पहचानते हैं। मुख्यमंत्री नितीश कुमार के 15 वर्ष के शासन के सत्ता विरोधी रुझान के अतिरिक्त हाल ही में आई बाढ़ तथा कोरोना महामारी के साथ निपटने संबंधी प्रदेश सरकार का व्यवहार निशाने पर है। साथ ही देश के भिन्न-भिन्न राज्यों से अपने पैतृग राज्य में पहुंचे प्रवासी मज़दूरों के मामले पर भी नितीश सरकार के खिलाफ भारी असंतोष देखा जा रहा है। 
भाजपा एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ रही है। बिहार चुनावों की पृष्ठभूमि में ही सरकार द्वारा चलाई जा रही गरीब कल्याण योजना का दायरा नवम्बर तक बढ़ाया गया, जिसकी घोषणा करते हुए भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने भाषण में तीन बार ‘छठ पूजा’ का विशेष ज़िक्र किया था। परन्तु मोदी की मकबूलियत के साथ-साथ भाजपा इस तथ्य से भी अवगत है कि फिलहाल उसे एक ‘स्थापित दलित चेहरे’ का आवश्यकता है। वैसे तो जातियों का समीकरण भारत के कुछ प्रदेशों के लिए विशेष महत्व रखता है, जिस कारण यह भी कहा जाता है कि %ङ्कशह्लद्गह्म् स्रशद्गह्यठ्ठ%ह्ल ष्ड्डह्यह्ल द्धद्बह्य 1शह्लद्ग ड्ढह्वह्ल द्धद्ग 1शह्लद्गह्य ह्लद्धद्ग ष्ड्डह्यह्ल% अर्थात ‘यहां मतदाता किसी उम्मीदवार को मत नहीं देता, अपितु जाति को मत देता है।’ 
बिहार में जातियों के समीकरण के अनुसार 15 प्रतिशत उच्च जाति को लोग हैं, जबकि 16 प्रतिशत दलित तथा महादलित, 26 प्रतिशत अति पिछड़ा वर्ग तथा 26 प्रतिशत अन्न पिछड़ा वर्ग, जिनमें 14 प्रतिशत यादव, 8 प्रतिशत कुशवाहा तथा 4 प्रतिशत कुरमी शामिल हैं और 17 प्रतिशत मुसलमान हैं। इनमें से दलितों सहित पिछड़े वर्ग तथा मुसलमान भाजपा का नीतियों से अधिक संतुष्ट नहीं हैं। 
दूसरा, हाल ही में शिव सेना तथा  शिरोमणि अकाली दल जैसे गठबंधन भागीदारों के राजग से अलग होने के बाद भाजपा पर भागीदारों को दृष्टिविगत करने का आरोप भी लगाया जा रहा है। 
हाल ही में केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन के बाद मोदी मंत्रिमंडल में गठबंधन भागीदारों का प्रतिनिधित्व बिल्कुल ही सिकुंड़ गया है। मौजूदा मंत्रिमंडल पर नज़र डालें तो रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के रामदास अठावले के अतिरिक्त गठबंधन के भागीदारों का कोई भी प्रतिनिधि मंत्रिमंडल में नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रभाव को खारिज करने के लिए भी भाजपा का जे.डी. (यू) को साथ लेकर चलना मायने रखता है।  हालांकि दोनों पक्ष साथ-साथ होते हुए भी शह-मात की अगली चालों के बारे में भी सोच रहे हैं जिसकी गवाही गठबंधनों के भीतर पनप रहे गठबंधन दे रहे हैं। जनता दल (यू) ने अपने हिस्से में से 7 सीटें हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (एच.ए.एम.) को तथा भाजपा ने अपनी सीटों में से कुछ सीटें विकासशील इंसास पार्टी (वी.आई.पी.) को दी हैं। 
दूसरी तरफ लोक जनशक्ति पार्टी (एल.जे.पी.) के चिराग पासवान अलग झंडा उठाए नज़र आ रहे हैं, जिन्होंने नारा ही यह दिया है : 
‘मोदी से बैर नहीं,
नितीश तेरी खैर नहीं।’
‘मोदी के हनुमान’ होने का दावा करने के चिराग के इन दावों को भाजपा द्वारा बार-बार खारिज किया जा रहा है। परन्तु एल.जे.पी. ने 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें से जनता दल (यू) के उम्मीदवार के खिलाफ लगभग हर सीट पर उम्मीदवारों की घोषणा की गई है, जबकि कुछऐसी सीटों पर भी उम्मीदवार खड़े किए गए हैं जहां भाजपा के साथ सीधा मुकाबला है। 
हालांकि पिछले विधानसभा चुनावों में एल.जे.पी. की कार्यगुज़ारी कोई खास नहीं थी। फरवरी 2005 में विधानसभा चुनावों में 29 सीटें जीत कर राम विलास पासवान बिहार की राजनीति में शासक सृजक ‘किंग मेकर’ के रूप में उभरे थे। परन्तु पासवान की ओर से रखी गईं सख्त शर्तों के कारण 6 महीने के असमंजस के बाद बिहार विधानसभा भंग करनी पड़ी, जिसके बाद एल.जे.पी. का आधार लगातार कम होता गया। अक्तूबर 2005 में हुए चुनावों में एल.जे.पी. को सिर्फ 10 सीटें ही प्राप्त हुईं। 2010 में 75 सीटों पर लड़ने वाली एल.जे.पी. को सिर्फ 3 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। 2015 में भाजपा के साथ मिल कर 42 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली एल.जे.पी. सिर्फ 2 सीटें ही जीत सकी। 
राम विलास पासवान के निधन के कारण उपजी हमदर्दी लहर के तौर पर यदि पार्टी के हिस्से ठीक-ठाक सीटें आती हैं और दूसरी तरफ भाजपा को जनता दल (यू) से अधिक सफलता मिलती है तो एल.जे.पी. की सहायता से भाजपा का बिहार में अपना मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा हो सकता है। हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर इससे इन्कार किया जा रहा है परन्तु अंदर ही अंदर हो रहे दावों की सुलगाहट अवश्य सुनी जा सकती है। 
दूसरी तरफ नितीश कुमार भी इस ‘आंतरिक’ तैयारी का जवाब उसी अंदाज़ में देने की फिराक में हैं। आर.जे.डी. नेता तेजस्वी यादव द्वारा किये गए सीधे हमले के जवाब वह संयम से ही दे रहे हैं ताकि जो संभावनाओं की ‘गुंजाइश’ बनी रहे। 
दूसरे गठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (आर.जे.डी.), कांग्रेस तथा वामपंथी पार्टियां शामिल हैं, जिनमें आर.जे.डी. 144, कांग्रेस 70 तथा वामपंथी पार्टियां ने 29 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। लम्बे समय से बिहार की राजनीति पर कोई प्रभाव डालने में असफल रही कांग्रेस अपने नीचे की ज़मीन तलाश रही है। कांग्रेस की बिहार में चुनावी लड़ाई, झारखंड तथा महाराष्ट्रर की तरह सरकार बनाने में ‘मददगार’ के रूप में उभरने के लिए ही है।  आर.जे.डी. के तेजस्वी यादव ‘महागठबंधन’ का चेहरा हैं। नितीश कुमार के कहीं भी चुनाव लड़ने की चुनौती देने वाले तेजस्वी यादव ने उपेन्द्र कुशवाहा तथा जीतन राम मांझी जैसी छोटी पार्टियों को बनता महत्व न देते हुए उनको गठबंधन से अलग होने दिया। लालू प्रसाद यादव के समय के कुछ साथियों ने तेजस्वी यादव की मनमानी के चलते पार्टी से अपना रास्ता अलग कर लिया। राजनीतिक विशेषज्ञ तेजस्वी यादव के जोश में अनुभव की कमी महसूस कर रहे हैं। 
तीसरा गठबंधन ग्रैंड डैमोक्रेटिक सैकुलर फ्रंट है जिस का नेतृत्व उपेन्द्र कुशवाहा कर रहे हैं। कांग्रेस तथा भाजपा के साथ सीटों के वितरण को लेकर सहमति न बनने पर कुशवाहा ने अपना खुद का मोर्चा खोला। जिसमें उनके साथ आमीम प्रमुख असाउद्दीन ओवैसी और बसपा भी शामिल है। आमीम प्रमुख ओवैसी, जिनकी पार्टी ने उप-चुनाव में किशनगंज सीट जीत कर बिहार में राजनीति की शुरुआत की है, ने किसी भी तरह की सम्भावनाओं के खुले होने के संकेत दिए हैं।
चौथे मोर्चे पर जन अधिकारी पार्टी के पप्पू यादव हैं, जिन्होंने चंद्रशेखर की भीम आर्मी के साथ मिल कर प्रोग्रैसिव डैमोक्रेटिक अलायंस बनाया है। हालांकि नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.) के विरुद्ध नाटकीय ढंग से दिल्ली में हुई गिरफ्तारी के कारण अधिक चर्चा में आये चंद्र शेखर का बिहार में कोई विशेषाधिकार नहीं है। पप्पू यादव बिहार की राजनीति का एक पुराना चेहरा रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कुछ सीटों पर यह गठबंधन निर्णायक भूमिका निभा सकता है।
पांचवें गठबंधन के रूप में पलुरल्ज़ पार्टी की पुष्पम प्रिया, बिहार की राजनीति को नया रूप देने का दावा कर रही है। समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर बिहार की राजनीति में दस्तक देने वाली प्रिया आम आदमी पार्टी की तज़र् पर बदलाव की ज़रूरत को ही प्रचार का मुद्दा बना रही हैं।
एक अन्य गठबंधन संयुक्त जनतांत्रिक सैकुलर गठबंधन है, जिसका नेतृत्व पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भाजपा के ब़ागी नेता यशवंत सिन्हा कर रहे हैं। सिन्हा के साथ लगभग 16 अन्य पार्टियां हैं।