नये खुदाओं की वन्दना

‘कलम को बेचो हमें रोटी चाहिये।’ जब होश संभाली और सबसे पहला नाटक हमने देखा तो इस नाटक में एक भूखा-प्यासा परिवार अपने मुखिया एक लेखक महोदय को यह कहता नज़र आता है। तब बहुत असमंजस उस लेखक महोदय को अपनी कलम बेचने पर हुआ था। ज़माना पुराना था,  वह कलम नहीं बेच पाये। नाटक का अंत हो गया। जब तक उन्होंने कलम बेचने का फैसला किया, लीजिये परिवार ही नहीं रहा। सिसक-सिसक कर दम तोड़ गया। 
आज किसी को इस नाटक की कथा सुना दें, तो वह लेखक के असमंजस को मूर्खता कहेगा। भई, इंस्टैंट कॉफी का ज़माना है। आप कलम बेचने की बात कहते हैं, लोग तो अपना धर्मो ईमान बेचते हुए दो मिनट नहीं लगाते।  पहले मन्दिर में सिर झुका कर ईश्वर की साकार प्रतिमा को नवाजते थे, उससे कुछ मांगते हुए भी कतराते थे। अपनी भक्ति, अपना धर्म बेचने की तो बात ही छोड़िये। लेकिन आजकल कृपा निधान की परिभाषा ही बदल गई। जो बहुमंज़िली इमारत के ऊंचे मालिकाना चैम्बर में बैठा है, वही रोटी तलाशते लोगों को कृपा निधान लगता है। उसके पांव पखारते हुए कितना आत्मतोष मिलता है। ऊंची कुर्सी पर बैठा आदमी अपने सामने लोगों का झुकना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। उनकी घिघियाती हुई आवाज़ जब उसे किसी गिड़गिड़ाहट की तरह लगती है तो उसे लगता है, ऐसा तो होना ही चाहिए। आखिर उसने महामारी से प्रकम्पित इस माहौल में भी उनका अन्न दाना नहीं छीना। उनके परिवार के वसीले की आय आधी कर दी। घिघियाते आदमी की नौकरी छीन उसे सड़क पर तो नहीं फेंका। अब वह उसे कोर्निश बजा इतना भी न करे, तो भला महाशय का इतना लम्बा-चौड़ा औद्योगिक साम्राज्य किस काम का?
पहले जिन कामों को लोग चाटुकारिता कह नीची दृष्टि से देख लेते थे, आज उसे ज़माने के अनुसार व्यवहार सिद्ध कहा जाता है। जो कर सकेगा वह कामयाबी की सीढ़ी फलांग लेगा परन्तु सीढ़ी कमन्द नहीं कि उसे भी इसी मंज़िल के किसी ऊंचे तले पर पहुंचा दे। रहेगा तो वह अपने तले पर ही पर उसके बारे में ऐसा कोई भुखमरा नाटक लिखने की नौबत नहीं आएगी कि लेखक हो तो अपनी कलम को बेचो, साधारण जन हो तो अपनी आत्मा को बेचो, हमें रोटी चाहिए। रोटी मिलेगी साहिब, ज़रूर मिलेगी, केवल मालिक के लिए नित्य नई प्रशंसा के विशेषणों का शब्दकोष बनाते रहिये।  परन्तु इन बातों में आज, कुछ भी अजब नहीं लगता कि जिसके बारे में एक नाटक लिखा जाए। बात इतनी सार्वजनिक हो गई है कि अब इसे देख कोई चिहुंकता भी नहीं। देखते ही देखते प्रगति और विकास का चेहरा बदल गया। कभी समाजवाद के नाम पर इस देश को मिश्रित अर्थ-व्यवस्था बना देने का सपना देखा गया था। कहा गया था कि यहां सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र सहोदर भाइयों की तरह रहेंगे। सरकारी क्षेत्र का लक्ष्य होगा जनकल्याण और निजी क्षेत्र करेगा देश का द्रुत विकास। 
जा रे ज़माना। यह कैसी नौटंकी जीवन का सच हो गई, विकास की मंज़िल हो गई? सरकारी क्षेत्र का जनकल्याण बन गया स्व-कल्याण। देश को प्रगति उपहार के नाम पर मिला परिवारवाद, जो लाल फीता शाही के पंखों पर सवार हो नौकरशाही को प्रस्तर प्रतिमा बनने का ऐसा संदेश दे गया कि अपना काम करवाने आये लोगों को अपनी फाइलों के नीचे चांदी के पहिये लगा मधुर स्वर में गायन करना पड़ा कि ‘तेरे पूजन को भगवान मन मन्दिर आलीशान।’ सवाल जब मन्दिर को आलीशान बनाने का था, तो जीर्ण शीर्ण लोगों के मन में कभी आलीशान मन्दिर नहीं होते। वहां तो केवल टप्परवास गिरती पड़ती झोंपड़ पट्टी है, जो अपने आप को बेच कर बाबू से लेकर अफसरशाही तक की अट्टालिका बना उसे मन्दिर का नाम देती है और देश को दुनिया के सबसे अधिक दस भ्रष्टाचारी देशों में स्थान दिला देती है। 
लेकिन कब तक, बन्धु कब तक? दुनिया तो तेज़ तरक्की के नाम पर निजी क्षेत्र की चेरी हो गई। इसे कार्पोरेट क्षेत्र का नाम दिया गया। अपने देश में भी तरक्की की तेज़ दौड़ के दावे हुए और सरकारी क्षेत्र धन्ना सेठों के आगे सिर झुकाता नज़र आ रहा है। नई सदी आई है। इन झुग्गी-झोंपड़ियों पर अब फाइलों के मसीहा नहीं टैंडरों के विधाता राज करेंगे। सरकारी क्षेत्र को नई जान देने के नाम पर कार्पोरेट सैक्टर देश का आधुनिकीकरण करने चला आया। अब जिये मेरा भाई, गली-गली भौजाई के नाम पर बैंक हो या रेलवे, हवाई उड़ानें हों या खेत-खलिहान, सब में ठेकेदारी और किराये के ठेले पर चलाने वाली प्रणाली अपनी दीवाली मनाती नज़र आ रही है। कार्पोरेट क्षेत्र की बहुमंज़िली इमारतों ने महानगरों से लेकर कस्बों तक के क्षितिज को ढंक लिया है। 
बन्धु, इसे नये युग का नाम दिया गया है। तेज़ी से बदलते समाज का नाम दिया गया है। लेकिन किनके लिए बदला है यह समाज? आंकड़े बताते हैं कि यमदूत जैसी महामारी में गरीब तो और गरीब हो गये। हां, अमीरों की अमीरी दिन दुगनी रात चौगुनी छलांग लगा गई। जो कल अमीर कहलाते थे, आज बहुत बड़े अमीर कहलाये। हां,भूखे पेट अब और नहीं सहा जाता कह और विदीर्ण हुए। अब उन्हें अपनी आत्मा, अपनी कलम, अपनी मेहनत बेचते हुए कोई असमंजस नहीं होता, क्योंकि उन्होंने इस प्रकार बिकाऊ हो जाने के साथ अपने इन नये खुदाओं का प्रशस्ति गायन करना भी सीख लिया है। देश की इस तरक्की से वे भी गदगद नज़र आने लगे हैं। क्या सचमुच?