धन-सम्पदा की देवी लक्ष्मी

लक्ष्मी जी को धन, सुख, समृद्धि एवं ऐश्वर्य की देवी माना गया है और प्राचीन काल से ही उनके पूजन की परम्परा चली आ रही है। भारतीय शास्त्रों में यह भी माना गया है कि लक्ष्मी स्वयं रोग निरोधक शक्ति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में विद्यमान रहती हैं।  भारतीय समाज में मान्यता है कि जो व्यक्ति मां के रूप में लक्ष्मी की पूजा करता है और ईश्वर का प्रसाद समझकर इसका उपयोग सद्कार्यों में करता है, वह स्वयं का तो कल्याण करता ही है, सृष्टि को भी पवित्र बनाता है।लक्ष्मी जी को धन-सम्पदा एवं समृद्धि की देवी क्यों माना जाता है और उनकी पूजा कैसे शुरू हुई, इस संबंध में विभिन्न धार्मिक पुराणों में अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। लक्ष्मी पूजन आरंभ होने और लक्ष्मी जी को धन, समृद्धि एवं ऐश्वर्य की देवी माने जाने के संबंध में प्रमुख कथा इस प्रकार है: एक बार महर्षि दुर्वासा भ्रमण करते-करते हिमालय के अति सुन्दर वन में पहुंच गए। पूरा वन तरह-तरह के सुगंधित फूलों की भीनी-भीनी खुशबू से महक रहा था। वन में उस समय एक देव सुन्दरी अपने हाथ में कमल पुष्पों की अति सुंदर माला लिए खड़ी थी। दुर्वासा ऋ षि की नजर उस माला पर पड़ी तो फूलों की सुगंध से प्रभावित होकर उन्होंने सुन्दरी से वह माला मांगी और सुन्दरी ने ऋ षिवर को प्रणाम करते हुए उन्हें पुष्प माला भेंट कर दी। दुर्वासा माला लेकर वहां से निकले तो रास्ते में उन्हें ऐरावत हाथी पर सवार देवराज इन्द्र उसी ओर आते दिखाई  दिए। दुर्वासा ने इन्द्र को प्रणाम करते हुए वह पुष्प माला उनकी ओर उछाल दी और देवराज इन्द्र ने माला ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दी। दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और उसी क्षण उन्होंने देवराज को श्राप दे डाला कि जिसके मस्तक पर यह पवित्र माला रखी गई हैए वही प्रथम पूजा का अधिकारी होगा।दुर्वासा ऋ षि के श्राप से इन्द्र घबरा गए और दौड़े-दौड़े ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी उन्हें अपने साथ लेकर भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने कहा,मैं लक्ष्मी के साथ उस घर में कभी वास नहीं करता, जो मेरे भक्त का अपमान करता है। इतना कहकर भगवान विष्णु ने क्षीरसागर से लक्ष्मी जी को उत्पन्न होने की आज्ञा दी और देवताओं को लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन करने को कहा। भगवान विष्णु की आज्ञा को शिरोधार्य कर देवताओं ने वासुकी नाग को रस्सी और मंदराचल पर्वत को मंथनी के रूप में इस्तेमाल कर समुद्र मंथन करना शुरू कर दिया। भगवान विष्णु ने स्वयं कछुए का रूप धारण किया और मंदराचल को अपनी पीठ पर रख लिया। समुद्र का मंथन करने के पश्चात् सबसे पहले समुद्र में से ‘कालकूट’ विष निकला, जिसका प्रभाव इतना भयानक था कि उसके प्रभाव से पूरी सृष्टि का विनाश हो सकता था, अत: सृष्टि को बचाने के उद्देश्य से भगवान शिव ने कालकूट विष का सेवन स्वयं कर लिया। इस प्रकार एक-एक करके समुद्र मंथन से समुद्र में से कुल चौदह वस्तुएं निकलीं जिन्हें ‘चौदह रत्न’ कहा गया। इन्हीं अनमोल रत्नों में से एक थी ‘लक्ष्मी’, जो क्षीर सागर की धवल लहरों में से प्रकट हुई थी। जिस समय लक्ष्मी क्षीर सागर से प्रकट हुईं उस समय वह कमल पर विराजमान थीं और उनके उत्पन्न होते ही समूचा जगत उनके अप्रतिम सौन्दर्य से जगमगा उठा। लक्ष्मी जी के रूप में समुद्र मंथन से निकला यह बेशकीमती रत्न देख देवगण झूम उठे। तत्पश्चात् सभी ने लक्ष्मी जी को दिव्य वस्त्र एवं तरह-तरह के बेशकीमती आभूषण भेंट किए और उनकी आरती उतारी। चूंकि लक्ष्मी जी समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों में से एक थीं और उन्हें सबसे बेशकीमती रत्न माना गया, इसलिए उन्हें उसके बाद से धन-सम्पदा एवं ऐश्वर्य की देवी माना गया। माना जाता है कि तभी से धन, समृद्धि एवं ऐश्वर्य की देवी के रूप में लक्ष्मी जी के पूजन की परम्परा आरंभ हुई। समुद्र मंथन से प्रकट होने के बाद लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु का वरण किया। इसीलिए लक्ष्मी जी को विष्णुप्रिया भी कहा जाता है।

-मो. 94167-40584