महान शिल्पकार  भगवान विश्वकर्मा

हमारे धार्मिक ग्रंथों में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पहली या प्रतिपदा तिथि को विश्वकर्मा जयंती के रूप में मनाया जाता है। पहले यहां यह जानना आवश्यक है कि विश्वकर्मा एक ऐसे शिल्पकार थे जिनके मुकाबले में दुनिया में न तो आज से पहले कोई हुआ और शायद आज के बाद भी ऐसा शिल्पकार नहीं हो सकेगा। आज भले ही इस वैज्ञानिक युग में हम नये से नये और अनोखे भवन तैयार करने में सफल हुए हों मगर हम फिर भी उन शिल्पों, भवनों, डिजाइनों एवं कलाकृतियों से मीलों दूर हैं जो विश्वकर्मा जी ने बनाए थे। हमारे लिए वे सब अभी भी कल्पना मात्र हैं। सोने की लंका का दृश्य कैसा रहा होगा? वह इमारत कितनी अनोखी रही होगी जिसमें दुर्योधन को यह पता लगाना मुश्किल हो गया कि कहां फर्श है और कहां पानी या कहां शीशे की दीवार है? आज हम भले ही चांद पर पहुंचने में सफल हो गये हों, और हम अनेक डिजाइनों के भवनों आदि का निर्माण कर रहे हों मगर इस बात का रहस्य आज भी बरकरार है कि पृथ्वी लोक, आकाश लोक, पाताल लोक की परिकल्पना किसने की होगी।  जिस समय भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो उसे पूर्ण रूप नहीं मिल पाया। मानस पुत्रों के उत्पन्न होने के बाद ही यह कार्य पूर्ण हो पाया। इसके लिए सबसे बड़ा योगदान शिल्पकार का ही था। सृष्टि की इससे पहले किसी ने कोई परिकल्पना नहीं की थी। इसके लिए विश्वकर्मा जी ने सबसे पहले डिजाइन तैयार किया। यह डिजाइन ऐसा अनोखा था कि देखने वाला आज भी कह उठता है कि प्रभु यह तेरी कैसी माया है।  ब्रह्मा जी के पुत्र विश्वकर्मा जी को देव शिल्पकार की उपाधि प्राप्त है। ऋग्वेद के अनुसार विश्वकर्मा जी बहुमुखी कलाधारी एवं अदृश्य शक्तियों से सज्जित रचनाकार थे जिन्होंने आकाश-पाताल-पृथ्वी तीनों लोकों में अपनी कला के जौहर दिखाए। उन्होंने स्वर्ग लोक में इन्द्र सभा जैसे भवनों की रचना की। लंका का रावण भगवान शंकर का प्रिय भक्त था। वह सोने की लंका बनाना चाहता था मगर रावण के पास डिजाइन नहीं था। उसने भगवान शिव से निवेदन किया कि वह विश्वकर्मा जी से इस हेतु सहयोग के लिए कहें। भगवान शिव के कहने पर विश्वकर्मा ने लंका का डिजाइन तैयार किया। उस ज़माने में लंका तीनों लोकों में अपने आप में एक अजूबा थी। उसके बाद आया द्वापर युग। द्वापर युग में विश्वकर्मा ने कई अनोखे भवन बनाए। सर्वप्रथम द्वारिका धाम, उसके बाद भगवान कृष्ण का रास मंडल और पांडवों के लिए विश्वकर्मा ने एक ऐसा महल तैयार किया जिसमें कोई यह पता नहीं लगा पाया कि कहां पानी है और कहां दीवार। यह उस ज़माने में रंग महल के नाम से प्रसिद्ध था। आज हमारे देश की राजधानी को किसी ज़माने में इन्द्रप्रस्थ के नाम से जाना जाता था। इसका निर्माण भी विश्वकर्मा द्वारा किया गया था। इसके अलावा मेरठ ज़िला का इन्द्रप्रस्थ शहर भी विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया था। विश्वकर्मा जयंती के अवसर पर सभी इंजीनियर, वास्तुकार, कारीगर, आर्किटैक्ट भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते हैं।