ज़रूरी है साम्प्रदायिकता का विरोध

आज मीडिया तथा 24/7 समय चलने वाले शब्दिया चैनलों की वजह से किसी एक देश में चलती गर्म हवा दूसरे देश तक जल्दी पहुंच जाती है और वहां की जनता को प्रभावित तथा प्रतिक्रिया पर उतारू भी बनाती है। इसी साल अक्तूबर माह में घटित हुई दो घटनाएं कुछ इसी तरह की हैं, जिनसे पता चलता है कि पृथ्वी के दो अलग-अलग हिस्सों में घटी घटनाएं किसी भी बहुनस्लीय, बहुधार्मिक समाज के लिए कुछ ऐसी ज़रूरी बातों तक पहुंचना संभव है कि वे अपने समाज अपने मुल्क के लिए क्या कर सकते हैं। या क्या करना चाहिए।  पहली घटना फ्रांस की है, जहां से स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के लिए काफी कुछ कहा गया है, जिस देश ने अनेक क्रांतिकारी बदलाव देखे हैं। घटना का आरंभ सितम्बर के पहले सप्ताह में हुआ, जब व्यंग्य की साप्ताहिक पत्रिका चार्ली हैब्दो ने 2015 में छपे कार्टूनों की हिमायत करते हुए फिर से छाप दिया। आपको स्मरण होगा कि इसके सम्पादकीय विभाग के आठ सदस्यों सहित एक दर्जन लोग इसी कारण मार दिये गये थे। इस घटना के बाद पुलिस ने मुख्य आरोपी दो भाईयों को मार गिराया था। सितम्बर में 2015 के हत्याकांड से सम्बधित मुकद्दमा आरंभ हुआ था। सन् 2012 में पत्रिका के तत्कालीन सम्पादक (जोकि 2015 में हमले में मार दिये गये) ने कहा था, ‘मैं फ्रांसीसी कानून के तहत रहता हूं।’ यह फ्रांसीसी समाज की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अधिक मुग्धता के कारण लग सकता है। स्पष्ट है कि वहां श्वेत लोगों का बाहुल्य और नियंत्रण है। वहां के नारे में समानता का तथा भाईचारे के व्यवहार में कमी लोगों को नज़र आ रही है जिसके परिणामस्वरूप देश को आज भीतरी और बाहरी संकटों का सामना भी करना पड़ रहा है। फ्रांसीसी रार्ष्टपति एमेनुएल मैक्रा को तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तैयब एर्शेगन ने मानसिक रूप से बीमार कर दिया है। अब अनेक मुस्लिम बहुल देश उनकी सख्त आलोचना कर रहे हैं। आर्थिक रूप से चोट पहुंचाने के लिए फ्रांसीसी वस्तुओं के आयात का विरोध भी किये जाने की मांग उठने लगी है। फ्रांस आज एक बहुसांस्कृतिक समाज समझा जाता है। वहां की दस प्रतिशत आबादी मुस्लिम बताई जाती है। यह संकट जिस तरह विस्तार ले रहा है, वह बेहतर नहीं कहा जा सकता। पैरिस के एक उपनगर के सरकारी स्कूल में सेमुएल पेरी नाम का अध्यापक बच्चों को इतिहास और नागरिक शास्त्र पढ़ा रहा था। इन स्कूलों में जहां अधिसंख्य आव्रजक बच्चे पढ़ रहे हों, वहां एक एजैंडे के तहत बच्चों में फ्रांसीसी मूल्यों के प्रति आग्रहशील बनाना होता है। सेमुएल पेरी ने इसी दिशा के तहत बच्चों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताते हुए लैक्चर दिया।ऐसा वह समझ रहे थे कि किसी हद तक एक सम्प्रदाय विशेष को आहत कर सकते हैं। कई अभिभावकों ने अगले दिन स्कूल प्रशासन से आपत्ति दर्ज की। शिकायत दर्ज भी करवाई गई परन्तु शिक्षक को आधिकारिक रूप से ठीक मान लिया गया। इससे यह भी स्पष्ट हो रहा है कि फ्रांसीसी सरकार अपने देश में अंदर ही अंदर पनप रहे फोबिया को नकारना चाहती है परन्तु वह कोई सकारात्मक रवैया नहीं माना जा रहा।  दूसरी बड़ी घटना न्यूज़ीलैंड से जुड़ी है। अक्तूबर में ही न्यूज़ीलैंड के चुनाव के परिणाम सामने आए हैं। प्रधानमंत्री जेंसिंग आर्डन को इन चुनावों में बड़ी जीत मिली है। ऐसी जीत 50 वर्ष के इतिहास में किसी नेता को नहीं मिली। जीत पर उन्होंने कहा, ‘हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहां ध्रुवीकरण लगातार बढ़ रहा है। एक ऐसी जगह जहां प्रतिदिन दूसरों के पक्ष को सुनने की क्षमता को खोने वालों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। 2019 में जब क्राइस्ट चर्च शहर में एक मस्जिद में एक नस्लवादी श्वेत ने 51 नमाज़ियों को गोली से उड़ा दिया, वह यह समाचार सुनते ही दौड़ी थीं और धर्मावलंबियों को उन्होंने आश्वासन दिया था कि उनके साथ न्याय होगा। आज ऐसी स्पष्टता, मानवता के प्रति समर्पित महिला को विश्व भर में सम्मान मिल रहा है। आज दुनिया नस्लीय, धार्मिक घृणा के आधार पर जो राजनीति कर रही है, उसका हर तरह से विरोध होना चाहिए। हमें आगे बढ़ने की ज़रूरत है। प्रगति की ज़रूरत है। भेदभाव को परे धकेलने की ज़रूरत है, जो ऩफरत फैलाता है। साम्प्रदायिक बीमारी को दूर करना ही होगा।