सकारात्मकता एवं भावशुद्धि द्वारा ही संभव है निष्काम कर्मयोग

श्रीमद्भगवद गीता में ही नहीं, उसके बाद के अनेकानेक महत्तवपूर्ण ग्रंथों में भी निष्काम कर्मयोग को बहुत महत्व दिया गया है। प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति ने इस पर अपने विचार रखे हैं क्योंकि निष्काम कर्म से उत्तम कोई स्थिति हो ही नहीं सकती। श्रीमद्भगवद गीता में कहा गया है कि मनुष्य का कर्म करने में ही अधिकार हो, फल की इच्छा में नहीं और साथ ही वह कर्म से कभी विरत न हो। विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से मनीषियों द्वारा इस संसार सागर को पार करने अथवा मोक्ष-प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाए गए हैं : भक्ति, ज्ञान और कर्म। जो व्यक्ति नियमित रूप से कर्म करता हुआ व्यस्त रहता है, उसे अन्य वस्तुओं के लिए न तो समय ही मिल पाता है और न उसे अन्य वस्तुओं की ज़रूरत ही रह जाती है। हम फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करें, यही निष्काम कर्मयोग है। प्राय: हम कह देते हैं कि पूर्णत: निष्काम कर्मयोग असंभव है लेकिन ऐसा नहीं है। एक किसान जब हम सब की भूख मिटाने के लिए अन्न उगाता है तो उसका यह कर्म किसी भी प्रकार से निष्काम कर्म से कम नहीं बैठता। विवेकानंद के लिए तो मानव मात्र की सेवा ही सबसे बड़ी आध्यात्मिकता है जो सात्विक व निष्काम कर्म का ही एक उत्तम रूप है। कर्म के अभाव में मनुष्य अकर्मण्य अथवा निष्क्रिय हो जाता है। एक अकर्मण्य अथवा निष्क्रिय व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। कर्म अनिवार्य है। कर्म के अभाव में हमारा अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है। इसीलिए कहा गया है कि बेकार से बेगार भली। इसीलिए हम सब कभी खाली नहीं बैठते। कुछ न कुछ करते रहते हैं। यहां एक प्रश्न उठता है कि क्या फल की इच्छा अथवा कामना से रहित होकर कर्म करना संभव है? वास्तव में इच्छा अथवा कामनारूपी बीज के अभाव में कर्मरूपी पौधे उत्पन्न ही नहीं हो सकते। यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो हम पाते हैं कि हमारे हर कर्म के मूल में कोई न कोई विचार या कामना अवश्य होती है, होनी भी चाहिए। कामनारहित होना असंभव है। यदि हममें से कोई व्यक्ति यह दावा करे कि वह अपने जीवन में निष्काम कर्मयोग का पालन करता है तो वो एक जुमले से अधिक कुछ नहीं होगा। हां, हमारे विचार, इच्छाएं अथवा कामनाएं कैसी हों, इस पर विचार किया जा सकता है। यदि उद्देश्य ठीक है और समाज अथवा राष्ट्र के लिए सार्थक व उपयोगी है तो ऐसा कोई कर्म बुरा नहीं कहा जा सकता। वैसे यदि हम कुछ भी अच्छा करना अथवा निष्काम भाव से करना चाहते हैं तो यह भी एक कामना ही तो है। आज पूर्णत: निष्काम कर्म संभव ही नहीं। जहां तक फल की इच्छा की बात है, वह भी इतनी ख़राब नहीं लगती।क्या ईमानदारी से कार्य करते हुए सफलता प्राप्ति की अथवा उसके पारिश्रमिक की इच्छा करना बहुत बुरी बात है? क्या हमें अपनी सफलता अथवा अपने परिश्रम के बदले में उचित पारिश्रमिक प्राप्त करने के लिए सचेत नहीं रहना चाहिए? हां, हम कोई भी कार्य क्यों न करें, हमारी सोच सार्थक व सकारात्मक होनी चाहिए। हमारे विचार सात्विक होने चाहिएं। कर्म हमारा अधिकार नहीं, कर्त्तव्य हो लेकिन सकारात्मक सोच से उत्पन्न कर्म करना ही हमारा कर्त्तव्य हो। तभी कार्यों में उत्तमता प्राप्त की जा सकती है।              

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