गंगा के वेग को विराम देती हरिद्वार की धरा

हरिद्वार भारत के समस्त तीर्थ स्थलों में एक विशिष्ट स्थान रखता है। आध्यात्मिक भावों से युक्त तथा प्राकृतिक सुषमा लिए हुए यहां के विहंगम दृश्य मानव जगत को परम आनंद का अनुभव कराते हैं। पावन भागीरथी की कलकल करती शांत धाराएं मनुष्य के विकारों को शांत करके उनमें आध्यात्मिक भाव जागृत करने में महती भूमिका निभाती हैं। सुदूर प्रांतों से चलकर लोग इस स्थान के आकर्षण में बंधकर यहां पावन गंगा की लहरों में एक बार डुबकी लगाने अवश्य आते हैं। हरि के द्वार के नाम से पूरे संसार में यह धर्म नगरी प्रसिद्ध है। शिवालिक पहाड़ियों से घिरा हरिद्वार एक पौराणिक तीर्थ है। स्कन्द पुराण में इसका नाम मायापुरी मिलता है। वहीं केदारनाथ यात्रा का मार्ग होने के कारण से शिव भक्तों ने इसका हरिद्वार के रूप में अस्तित्व स्वीकार किया है। धार्मिक मान्यता के अनुसार राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु कठोर तपस्या करके, गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए प्रसन्न कर लिया। अपने उद्भव स्थल गंगोत्री से निकलने के पश्चात गंगा हिमाच्छादित पहाड़ियों से अठखेलियां करती हुई सर्वप्रथम मैदानी क्षेत्र में यहीं पर दर्शन देती हैं, इस कारण से इसे गंगाद्वार के नाम से भी जाना जाता है। गंगा भारतीय सभ्यता, संस्कृति की प्रतीक है। इसका इतिहास हमारी धार्मिक मान्यताओं एवं परंपराओं से जुड़ा हुआ है। भारत की समस्त नदियों में से यह एक ऐसी विशिष्ट नदी है जिसका सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक महत्व सर्वाधिक है। हरिद्वार के अनेक मंदिर, आश्रम, शिवालय, वन, उपवन, वाटिका, पर्वतीय देवालय, घाट इत्यादि लोकलोचनों को बरबस अपनी ओर आकृष्ट करने में महती भूमिका निभाते हैं। यहां के कुंभ पर्व का विशेष महत्व है। प्रत्येक बारह वर्षों में हरिद्वार में पूर्ण कुंभ का तथा प्रत्येक छठवें वर्ष पर अर्धकुंभ मेले का आयोजन होता है। इसके अलावा प्रतिवर्ष यहां शिवरात्रि, वैशाखी, गंगा सप्तमी, गंगा-दशमी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, संक्र ांति तथा श्रावण मास में मेले भरे जाते हैं। श्रद्धालुजन लाखों की संख्या में उक्त समय विशेष पर भागीरथी गंगा के आंचल में डुबकी लगाकर अपने को भाव विभोर करते हैं।

(उर्वशी)