केन्द्र एवं किसान नेताओं की बातचीत का छठा दौर दोनों पक्षों के लिए परीक्षा की घड़ी!

किसान नेताओं और केन्दीय्र मंत्रियों के मध्य बातचीत के पांच असफल दौरों के बाद अब 30 दिसम्बर को दोनों पक्षों के बीच छठी बार होने जा रही है। यह बातचीत इसलिए विशेष अहमियत रखती है कि यदि इस बातचीत में भी कोई सहमति न बनी तो सरकार और किसानों के मध्य टकराव बेहद तीव्र हो जाने की संभावना है। किसान आन्दोलन को और  प्रचंड तथा तीव्र करने के लिए कुछ कड़े ्रफैसले ले सकते हैं, यदि ऐसा होता है तो यह सरकार, किसानों और लोगों के अन्य वर्गों के भी हित में नहीं होगा। इसलिए बातचीत में शामिल सभी पक्षों के लिए परीक्षा की घड़ी है। उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे इस गंभीर मामले का सम्मानजनक समाधान निकालने हेतु पूर्ण सौहर्दपूर्ण प्रयास करें। इस बारे कोई दो राय नहीं हैं कि किसान गंभीर संकट में से गुज़र रहे हैं। उनके हितों की रक्षा अवश्य होनी चाहिए। 
इन दिनों में भी लगातार किसानों द्वारा आत्महत्या करने के समाचार आ रहे हैं। किसानों को गोभी, आलू और बैंगन आदि सब्ज़ियों के लाभकारी दाम न मिलने के कारण वे मज़बूर होकर फसलें खेतों में नष्ट कर रहे हैं। मध्य प्रदेश से कम्पनियों के लिए ठेका कृषि करने वाले किसानों से करार के अनुसार धान की फसल न उठाने और कुछ निजी व्यापारियों द्वारा लाखों की फसलें खरीद कर अलोप हो जाने के समाचार भी मिल रहे हैं। नये कृषि कानून लागू होने के बाद मध्य प्रदेश में 70 प्रतिशत सरकारी मंडियों में कारोबार कम होने और 47 मंडियों के बंद होने का भी समाचार हैं। नि:संदेह पंजाब से आरंभ हुआ किसान संघर्ष अब देश-व्यापी रूप ले चुका है। पंजाब में दो माह तक धरने लगाने के बाद अब दिल्ली की सीमाओं पर लगाए धरनों को भी 31 दिन हो गए हैं। 
इस समय को दौरान दिल्ली की सड़कों पर जमा हुए किसानों को उठाने के लिए भाजपा समर्थकों द्वारा सुप्रीम कोर्ट का भी रुख किया गया ताकि शाहीन बाग के आन्दोलन की तरह ही सुप्रीम कोर्ट से आदेश हासिल करके किसानों को भी दिल्ली की सीमाओं से उठाया जा सके। परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंधी दो दिन तक सुनवाई करते हुए यह दलील दी है कि किसान तो नये कृषि कानूनों संबंधी अपना रोष व्यक्त करने के लिए दिल्ली आ रहे थे, उनको केन्द्र सरकार द्वारा ही सड़कों पर रोका गया है। सड़कें किसानों ने नहीं, अपितु केन्द्र सरकार के आदेशों पर तैनात सुरक्षा दलों ने रोकी हैं। इसलिए शाहीन बाग धरने के संबंध में दिया गया फैसला यहां लागू नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि केन्द्र सरकार को किसानों के साथ बातचीत करके इस मामले का समाधान करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नोट किया है कि क्योंकि केन्द्र सरकार और किसान प्रतिनिधियों की बातचीत सफल नहीं हुई, इसलिए वह केन्द्र सरकार, पंजाब, हरियाणा की सरकारों और निष्पक्ष कृषि विशेषज्ञों को शामिल करके एक कमेटी बनाने का भी विचार रखती है, जो एक निश्चित समय में इस मामले का निपटान कर सके। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि चाहे शांतिपूर्वक ढंग से रोष व्यक्त करना किसानों का अधिकार है परन्तु वे अनिश्चितकालीन समय तक सड़कों में नहीं बैठ सकते। आम लोगों की समस्याओं को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। 
केन्द्र सरकार के किसान आन्दोलन के प्रति अब तक के व्यवहार से यह बात सामने आती है कि उसने सुचेत रूप में नये कृषि कानून कार्पोरेट के कृषि व्यापार और कृषि उत्पादन में दाखिले के लिए ही लाए गए हैं और विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा फंड के दबाव के अधीन और देशी-विदेशी कार्पोरोटों को खुश करने के लिए इन कानूनों को कायम रखने के लिए अड़िग नज़र आ रही है। इसी कारण बार-बार वह कृषि कानूनों के लाभ गिना रही है और आन्दोलन को लटका कर किसानों को थकाने की नीति पर चलती नज़र आ रही है।  इसके साथ-साथ वह राजनीतिक तौर पर अपने हो रहे नुकसान को कम करने के लिए यह प्रचार भी कर रही है कि वह तो किसानों की हर मांग पर विचार करने के लिए तैयार है, किसान ही बातचीत के लिए आगे नहीं आ रहे। चाहे कि किसानों ने केन्द्र द्वारा बातचीत के लिए भेजे सभी पत्रों का दलीलपूर्वक जवाब दिया है और बातचीत के अब तक हुए पांच दौर में अपना पक्ष भी प्रभावी ढंग से रखा है। 
इस समूचे घटनाक्रम के संदर्भ में हमारी यही राय है कि चाहे अब तक किसान संगठनों ने अपने संघर्ष को बहुत ही अनुशासनात्मक ढंग से चलाया है और इसमें वे अपना उत्साह बनाये रखने में भी सफल हुए हैं, दूसरे राज्यों से भी किसानों की आमद बढ़ने लग पड़ी है। एक महीने तक कड़ी सर्दी में किसानों का महिलाओं और बच्चों सहित डटे रहना भी कोई सामान्य बात नहीं है। इस कारण अपने-आप में ही यह आन्दोलन ऐतिहासिक और अंतर्राष्ट्रीय अहमियत प्राप्त कर चुका है, परन्तु हर संघर्ष की एक समय-सीमा होती है। निरन्तर अनिश्चितकालीन इस तरह के संघर्ष में डटे रहना लोगों के लिए संभव नहीं होता। इसलिए किसान नेताओं को इस संघर्ष की सीमाओं के बारे भी सुचेत रहना चाहिए। वैसे भी जीते-जागते समाजों में न तो कोई संघर्ष आखिरी होता है और न ही कोई मांग आखिरी होती है। समय-समय पर मसले पैदा होते रहते हैं और उनके निपटान हेतु संघर्ष भी चलते रहते हैं। चाहे कि इस बात के बारे कोई दो राय नहीं हैं कि मोदी सरकार के कार्पोरेट पक्षीय एजेंडे और उसके द्वारा आरंभ की गई हिन्दुत्व पक्षीय मुहिम के खिलाफ देश के लोगों को भविष्य में भी कठिन और लम्बी लड़ाईयां लड़नी पड़ेंगी परन्तु किसानी संघर्ष की वर्तमान स्थितियां यह मांग करती हैं कि यदि इतने बड़े किसानी संघर्ष के बाद भी मोदी सरकार कृषि कानूनों को पूरी तरह वापिस लेने हेतु  तैयार होती नज़र नहीं आई तो रणनीतिक पहल करते हुए किसानों को इन कानूनों में संशोधन के लिए ऐसे ठोस प्रस्ताव पेश करने चाहिएं, जिससे कि इन कानूनों को बड़ी सीमा तक अप्रभावित किया जा सके। यदि किसानी संघर्ष इस तरह के प्रस्तावों पर अमल करने हेतु सरकार को विवश कर देता है तो भी यह किसान आन्दोलन की एवं किसान नेताओं की बड़ी जीत समझी जाएगी। नि:सन्देह किसी भी आन्दोलन को व्यापक स्तर पर खड़ा करना बहुत कठिन कार्य होता है परन्तु उचित सौदेबाज़ी करके समय की सरकारों से 70-80 प्रतिशत तक अपनी मांगें मनवाना उससे भी बड़ी उपलब्धि होती है। संघर्षों के इतिहास भी इस तरह की सफलताओं का समर्थन और मान्यता देते हैं। लीडरशिप द्वारा कड़ा रवैया अपनाकर  यदि कोई आन्दोलन बिना किसी बड़ी उपलब्धि से असफल हो जाता है तो इससे आन्दोलनकारियों में निराशा फैलती है तथा भविष्य में आरम्भ किए जाने वाले संघर्षों पर भी ऐसी असफलताओं का प्रभाव पड़ता है।
अब 30 दिसम्बर को एक प्रकार से किसान नेताओं की सूझ-बूझ एवं रणनीतिक प्रबीनता की भी परीक्षा है कि वे इस में कितना सफल होते हैं। दूसरी तरफ यदि मोदी सरकार इस संबंध में हठपूर्ण रवैया अपनाती है तो उसे भी इसकी बड़ी राजनीतिक कीमत अदा करने हेतु तैयार रहना पड़ेगा। अच्छा यही होगा कि वह वर्तमान कानूनों पर कम से कम एक वर्ष के लिए अमल रोक दे तथा इस समय के दौरान किसान प्रतिनिधियों तथा संबंधित अन्य पक्षों से बातचीत करके कृषि सुधारों के लिए नये कानून लेकर आगे आये, जो वर्तमान विवादाग्रस्त कानूनों का स्थान ले सकें। उसकी तानाशाही नीतियों के कारण देश भर के लोगों में बेचैनी तेज़ी से बढ़ रही है। इसके साथ ही हम उन लाखों किसानों, कार्यकर्ताओं को भी यह कहना चाहते हैं कि उनको अपने किसान नेताओं पर विश्वास करके उन्हें आन्दोलन की सफलता हेतु उचित सौदेबाज़ी करने की छूट देनी चाहिए। परन्तु हम यह कभी नहीं चाहते कि यह विशाल संघर्ष बिना किसी ठोस उपलब्धि से खत्म हो जाए। यदि सरकार कुछ भी ठोस देने हेतु तैयार नहीं होती तो संघर्ष को और मज़बूत करना भी बहुत ज़रूरी होगा। दूसरी तरफ पंजाब में कुछ लोगों द्वारा जियो के लगभग 100 टावरों को नुकसान पहुंचाया गया है। यह बिल्कुल किसान आन्दोलन को बदनाम करने और गलत रास्ते पर चलने वाली बात है। किसी भी व्यक्ति या संस्थान की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाना किसी भी तरह उचित नहीं होगा। आंदोलन को पहले की तरह अमन एवं अनुशासित रखा जाना अत्यावश्यक है। यह अच्छी बात है कि किसान नेताओं ने उन घटनाओं की आलोचना की है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि ऐसा करना कार्यक्रम का हिस्सा नहीं है। आन्दोलन में शामिल प्रत्येक व्यक्ति एवं प्रत्येक गुट को इस संघर्ष को गलत रास्ते पर डाले जाने के हो रहे यत्नों के प्रति पूरी तरह सचेत रहना चाहिए।