चलो सखी, धरने पर बैठें

दिल्ली न हुई टिल्ली-लिल्ली हो गई जिसमें काम कम और धरने-प्रदर्शन ज्यादा होते हैं। हों भी क्यों न, अगर लोग राजधानी में धरना नहीं देंगे तो फिर जाएंगे कहाँ। राजधानी बोले तो जहाँ राजा जन बैठें और दिल्ली में एक नहीं, अनेक राजा-महाराजा टाइप जन पाए जाते हैं। इनमें कोई वर्तमान का है, कोई भूत का है और कोई भविष्य के लिए मुँह खोले बैठा है। यहाँ रातों-रात वर्तमान वाला बंदा भूतिया बन जाता है, और भूतिया कब वर्तमान वाले बन जाएं.... कोई नहीं जानता।
तो ऐसी उलझी-सी दिल्ली में देश का हर बाशिंदा अपनी भड़ास निकालने आना चाहता है। वैसे वो धरना भी क्या जिसमें दो-चार जगह पुलिस का लाठी-चार्ज न हो, आँसू-गैस के गोले न छोड़े जाएं और हाय-तौबा न मचे। फिर कुछ लोगों की गिरफ्तारियाँ हों, गिरफ्तारियों के विरोध में फिर कोई धरना हो और बाद में उस धरने के विरोध में फिर कोई और नया धरना शुरू हो जाए....यह सिलसिला यहाँ साल के बारह महीनों चलता ही रहता है।
हमारे चंडूखाने के खुफिया रिपोर्टरों ने खबर दी है कि सरकार ने धरने-प्रदर्शनों को देखते हुए अब दिल्ली की बगल में धरना कैपिटल खोले जाने की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। इसके लिए कुछ प्रवचन करने वाले बाबाओं के आश्रमों पर सरकार की निगाह है क्योंकि जितनी जमीन सरकारों के पास नहीं होती, उससे ज्यादा इन  बाबाओं के पास होती है। वैसे कहा जाए तो अब आश्रम भी आश्रम कहाँ रह गए....। 
योजना यह है कि सरकार उन आश्रमों के गेट पर धरना-कैपिटल का बोर्ड लगा देगी और किसी बड़े धरने की सूरत में कुछ दिनों के लिए खुद भी वहीं शिफ्ट हो जाएगी। ये अंग्रेज भी तो गर्मी में शिमला को राजधानी बना लिया करते थे। यहाँ तो जाना ही बार्डर तक होगा। सरकार के एक बड़े सुझावन लाल नेता ने सुझाया है कि धरने की आड़ में कुछ लोग अपनी कलाकारी दिखा जाते हैं। जिस नेता को कहीं घास नहीं पड़ती, जिसे खुद उसी के मुहल्ले के लोग नहीं जानते, ऐसे स्वनाम-धन्य नेता ही धरने में ज्यादा कूद-फाँद मचाते हैं। टीआरपी बटोरू चैनल वाले दिन-रात लाइव कवरेज दिखा-दिखाकर इनको इतना हाई लाइट कर देते हैं मानो देश की सारी समस्याएं केवल यही ठीक कर सकते हैं। सुझावन लाल का कहना है कि क्यों न ऐसे हालात में धरना देने वालों को ही राष्ट्र-द्रोही साबित कर दिया जाए। विचार, सरकार के विवेकाधीन है लेकिन इसमें डर यह है कि इस बात के विरोध में कितना बड़ा विरोध होगा, कहना मुश्किल है। वैसे ही असहिष्णुता का ठप्पा लगा पड़ा है...।
दूसरा एंगल यह है कि धरने हमेशा बुरे नहीं होते। कई बार इनमें बैठने वालों को बिरयानी के अलावा नकद पैसे भी मिलते हैं जिससे बेरोजगारी की समस्या दूर होती है। धरने की इन्हीं ढेर-सारी खूबियों को देखते हुए अब धरने वाले भी अपना गठबंधन-महागठबंधन बनाने वाले हैं। योजना यही है कि एक की लड़ाई में बाकी भी कूद जाएं। जब मौका पड़ने पर बुआ-भतीजे मिल-बिछड़ सकते हैं, धुर-विरोधी नेता हाथ मिला सकते हैं तो हम धरने वाले पीछे क्यों रहें।
रही बात जनता की, समस्या यह कि ये अपनी मुसीबतों का रोना किससे रोएं। धरने की आड़ में जब सड़कों पर बिरयानी उड़ाई जाए, खाने-पीने की चीजें और महंगी हो जाएं और जाम लगी सड़कों पर आधे घंटे का फासला जब कई-कई घंटों में पूरा किया जाए....तो बेचारी जनता क्या करे, कहाँ जाए। क्या कहा....भाड़ में जाए, तो जनता भाड़ ही तो झोंकती रही है अब तक। आगे भी झोंकेगी.....सच्ची कह रहे हैं हम, बाई गाड की कसम से। (अदिति)