अध्यादेश के ज़रिये कानून बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति

उत्तर प्रदेश के नक्शे कदम पर चलते हुए शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने भी मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अध्यादेश 2020 को नोटिफाई कर दिया है, जिसका घोषित उद्देश्य ‘किसी को भी बेटियों की सुरक्षा व भविष्य से खेलने नहीं देना’ और ‘बेटियों का सशक्तिकरण है ताकि वे आत्मनिर्भर मध्य प्रदेश बनाने में अपना योगदान दे सकें’। चौहान के अनुसार यह नया कानून किसी विशेष धर्म के विरुद्ध नहीं है। इसका मकसद केवल लड़कियों की सुरक्षा है।इस घोषित उद्देश्य से भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट्स से मालूम होता है कि लगातार पिछले तीन वर्ष से मध्य प्रदेश में दुष्कर्म की घटनाएं अन्य राज्यों के मुकाबले में सबसे अधिक हुई हैं। ब्यूरो की नवीनतम रिपोर्ट (जो 2020 में जारी की गई) में भी बताया गया है कि देश के कुल दुष्कर्म केसों (33,356) में से 16 प्रतिशत मध्य प्रदेश में हुए। इसी प्रकार महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा की वारदात भी सबसे ज्यादा (39 प्रतिशत) मध्य प्रदेश में ही हुईं हैं। इसके बावजूद अध्यादेश के जरिये लाये गये नये कानून का संबंध राज्य में महिलाओं के विरुद्ध यौन उत्पीड़न व शोषण और घरेलू हिंसा रोकने से नहीं है बल्कि उन अंतर-धार्मिक प्रेम विवाहों को रोकने के लिए है जो भाजपा की तथाकथित लव जिहाद परिभाषा के तहत आते हैं। ऐसे विवाह, जिन्हें निश्चित रूप से उंगलियों पर गिना जा सकता है, को अगर ‘अपराध’ मान भी लिया जाये (जबकि संविधान में ऐसा है नहीं) तो भी इस कानून की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि जबरन विवाह करने, जबरन धर्म परिवर्तन कराने, धोखा देने आदि को सख्ती से रोकने के लिए पहले से ही सख्त कानून मौजूद हैं, जिनमें कठोर सज़ाओं का प्रावधान भी है। लेकिन जब वरीयताएं किसी विशेष एजेंडा से प्रभावित हों तो कानूनसाज़ी की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी अनदेखा किया जाने लगता है। हाल के दिनों में केंद्र व राज्यों ने कानून बनाने के लिए अध्यादेश का मार्ग अधिक अपनाया है, जबकि अध्यादेश प्रावधान का उपयोग किसी आपात आवश्यकता की पूर्ति हेतु किया जाना चाहिए जब सदन की कार्यवाही न  चल रही हो। पिछले साल जब तीन नये कृषि कानून 5 जून को लाये गये तो उस समय उनकी कोई आपात आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि देश लॉकडाउन व कोरोना वायरस से जूझ रहा था। चूंकि अध्यादेश को छह माह के भीतर सदन से मंजूरी की ज़रूरत होती है, इसलिए संसद में भी नये कृषि विधेयकों को बिना खास बहस के जल्दबाजी में पारित कराया गया। हाल ही में फ्रांस की संसद ने धार्मिक अधिकार विधेयक का प्रारूप तैयार किया और वह भी दो वर्ष की लम्बी देशव्यापी बहस के बाद। फ्रांस का संविधान अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है, इसलिए धर्म की पालन प्रक्रिया को परिभाषित करना विशेषरूप से कठिन था, खासकर इस्लाम की धार्मिक परम्पराओं और जन सुरक्षा दोनों के आशंकित खतरों में सरकार की हस्तक्षेप क्षमता को संतुलित करने की कोशिश थी। ध्यानपूर्वक शब्दों का चयन करके तैयार किये गये विधेयक का सांसदों व इस्लामी विद्वानों ने गहन अध्ययन किया और इसपर जमकर सार्वजनिक बहस हुई। अब यह विधेयक मंजूरी की प्रतीक्षा में है। अगर भारत में इस प्रकार की प्रक्रिया का पालन तीनों कृषि कानूनों के संदर्भ में किया गया होता तो आज कड़ाके की ठंड में किसान सिंघू बॉर्डर पर धरने पर न बैठे होते। इसी तरह नागरिक संशोधन कानून, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के धर्मांतरण कानूनों आदि को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की ज़रूरत न पड़ती। आज अपने देश में हर कोई बोलता है और कोई सुनता नहीं है। इसलिए आज की अति आवश्यकता गंभीर मुद्दों पर गंभीर बहस है। अपने देश में अक्सर यह होता है कि सार्वजनिक कानून व सार्वजनिक कार्यों संबंधी निर्णय बंद कमरों में लिए जाते हैं, या शायद बिल्कुल नहीं लिए जाते। इन निर्णयों को वे लोग लेते हैं जिनके निहित स्वार्थ होते हैं या जिनकी समाज में कोई दिलचस्पी नहीं होती। मसलन, दिल्ली 2020 दंगों में पुलिस व स्थानीय नेताओं पर गंभीर आरोप लगे, लेकिन फिर भी इस मामले में कोई जांच नहीं हुई और न ही इस बात पर चर्चा हुई कि भविष्य में जन सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाये। इस मुद्दे को ऐसे टाल दिया गया जैसे इसका कोई महत्व ही न हो। इसके विपरीत जब अमरीका में पुलिस के हाथों कई अश्वेतों की हत्या हुई तो स्थानीय व संघीय सरकार के अधिकारी तुरंत विचार करने लगे कि पुलिस की जगह क्यों न निज पड़ोस सुरक्षा बल को तैनात कर दिया जाये। उनके लिए यह मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण था। इसी तरह सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट पर भी कोई चर्चा नहीं हुई, जबकि इसका ऐतिहासिक व आइकोनिक महत्व है। इस प्रोजेक्ट को घरेलू पारिवारिक मामले के रूप में लिया गया कि घर के सदस्य खाने की मेज पर बैठें और अपने नये गेराज के नक्शे पर सहमति बना लें। विस्टा प्रोजेक्ट के लिए सार्वजनिक बहस या विचार विमर्श की ज़रूरत ही महसूस नहीं की गई। यह उस सरकार के लिए अजीब बात नहीं है जो अपनी सुविधा अनुसार ही जनता को सूचित करना पसंद करती है। इसके विपरीत 2019 में जब पेरिस के नोटरेडैम कैथेड्रल की छत आग में ध्वस्त हो गयी थी तो उसे पुन: डिज़ाइन करने के लिए विश्व स्तर पर खुली प्रतियोगिता रखी गई जोकि खुली बहस का सबसे अच्छा सार्वजनिक रूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने देश में सरकारी सोच यह बनी हुई है कि अधिकतर लोग जटिल मुद्दों को समझ ही नहीं पाते हैं। उन्हें तो मतदान करने के लिए भी ईवीएम पर हाथ, कमल, झाड़ू आदि चिन्हों का सहारा चाहिए। ऐसे में उनसे कृषि विधेयकों या सेंट्रल विस्टा पर राय लेना फिज़ूल है।इसलिए सरकार गोपनीयता बनाये रखती है और संभवत: यही वजह है कि सरकारी साइट्स पर अक्सर कोई उपयोगी डाटा नहीं मिलता। हां, पुरानी नदी पर नये पुल का उद्घाटन जैसी खबरें अवश्य मिल जायेंगी। काम की खबर पाने के लिए सूचना के अधिकार का प्रयोग करना पड़ता है। अगर आप अमरीका या इंग्लैंड के संसदों की डिबेट टीवी पर देखें तो पक्ष विपक्ष में ठोस तर्कों व डाटा का प्रस्तुतिकरण नजर आयेगा, लेकिन अपनी संसद में अक्सर बेवकूफी की हद तक व्यक्तिगत हमले देखने को मिलते हैं। आप यह अंतर ही नहीं कर पाते कि लोकसभा टीवी देख रहे हैं या आर टीवी पर अर्नब की नौटंकी। क्या ऐसी बचकानी बहस के लिए 971 करोड़ रुपये की नई बिल्ंिडग की ज़रूरत है? बिना सार्वजनिक बहस के सरकार व जनता के बीच फासला बढ़ जाता है, इसलिए गंभीर मुद्दों पर गंभीर बहस की ज़रूरत होती है।  

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